संस्कृत में एक “खेट” शब्द आता है जिसकी शब्द व्युत्पत्ति = खे + अटनम्, खे अर्थात् आकाश, अटनम् अर्थात् भ्रमण करना। खेट आकाश-भ्रमण करना इसी शब्द से खेट शास्त्र बना है जिसका अर्थ विशुद्ध रूप से यह होता है कि प्राचीन काल में भारतवर्ष में विमानन एक समृद्ध विद्या थी और उसके द्वारा यहाँ के लोग सुदूर अन्तरिक्ष यात्रायें कुशलता पूर्वक किया करते थे। भारद्वाज कृत “यंत्र सर्वस्व” के 28 वें वैमानिक प्रकरण में इस बात की विस्तृत व्याख्यायें दी हैं जिनका उन औपनिषद् तथा पौराणिक आख्यानों से पूरी तरह मेल खाता है, जिनमें सुदूर ग्रहों के बुद्धिमान प्राणियों तथा वहाँ की स्वर्गीय परिस्थितियों का उल्लेख मिलता है।
इसका यह अर्थ हुआ ,कि जीवन- मात्र पार्थिव नहीं ,वह अनन्त है। एक क्षुद्र ग्रह की प्रकृति और परिस्थितियों से उसे बाँध देना, एक प्रकार से उसका अपमान है | जितना जगत विराट है, हमारा जीवन भी उतना व्यापक हो ,तो ही इस देवोपम सौभाग्य की सार्थकता मानी जायेगी। हमारा चिन्तन नितान्त भौतिकवादी न होकर आध्यात्मिक रहना चाहिये। यह सम्भव है, कि हम उस उद्देश्य को समझ पायें, कि मनुष्य जीवन का लक्ष्य और उपयोग क्या हो सकता है।
यह मान्यता गलत है ,कि जीवन– मात्र पार्थिव तत्वों की रासायनिक प्रक्रिया मात्र है | ऐसा रहा होता ,तो यह मानते हुये भी, कि प्रत्येक ग्रह की प्रकृति के अनुरूप ही मानव शरीर और उसकी बौद्धिक रचना भी होगी। जहाँ तक शारीरिक बनावट की बात है ,वह तो देशान्तरों के जलवायु ऋतु आदि के परिवर्तन के साथ इस पृथ्वी में ही बदली हुई मिलती है। एक ही पृथ्वी के मनुष्य भारतीय, चीनी, तिब्बती, अफ्रीकन तथा जर्मन इन सब के रूप- रंग आकृति, प्रकृति में विलक्षण वैषम्य पाया जाता है , किन्तु बौद्धिक क्षमताओं में ऐसा कोई अन्तर दीखता नहीं |शिक्षा-दीक्षा के अभाव में या न्यूनाधिक्य के कारण यह अन्तर तो हो सकता है ; किन्तु विचारसत्ता सबमें समान होती है | इसी तरह अन्य ग्रहों की पार्थिव रचना भले ही कैसी ही हो; पर ऐसी प्रामाणिक घटनायें अक्सर घटती रहती हैं, कि अन्तरिक्ष के कोने-कोने में बौद्धिक क्षमतायें विद्यमान हैं। इस तथ्य का भी प्रतिपादक है, कि जिस तरह पदार्थसत्ता का एक स्थान से विस्फोट हुआ है उसी तरह विचार सत्ता की भी एक केन्द्रीभूत शक्ति अवश्य होनी चाहिये ;जहाँ से वह दीपक की तरह सर्वत्र, जलता ,बुझता रहता है।
अमेरिका के न्यू हैम्पशायर में एक्सेटर गाँव के समीप पुलिस सर्जन यूगिने वट्रेण्ड अपनी ड्यूटी पर थे– तभी एकाएक एक कार आई और उन्हें देखकर रुक गई | उसमें से एक अत्यन्त घबराई हुई स्त्री निकली। उसने बताया मेरी कार के ऊपर एक विशाल गोलाकार रक्तवर्णी चमकती हुई वस्तु तेजी से पीछा करती हुई आ रही थी वह अभी-अभी एकाएक जंगल की ओर तेजी से मुड़कर अदृश्य हो गई है।
पुलिस सर्जन ने समझा –स्त्री कहीं डर गई है। भय की अवस्था में अक्सर ऐसा होता है, कि मानसिक कल्पना का साकार भूत आ धमकता है ; पर मनोबल वाले लोगों को वैसा कुछ प्रतीत नहीं होता। अभी सर्जन इसी उधेड़ बुन में था, कि एकाएक वायरलैस कन्ट्रोल की घंटी बजी और उसने भी चिल्लाकर वही सूचना दी |उनके ऑफिसर जिनी टोलेन्ड ने इस पेट्रोल पार्टी को तुरन्त जंगल की ओर बढ़ने का आदेश दिया। गाड़ी रास्ते में बढ़ी ,तो उन लोगों को 58 व्यक्ति उसी तरह घबराये हुये ,कुछ खंदकों में छुपे, कुछ भागते हुये मिले। उन सबके कथन एक ही तरह के थे। पेट्रोल गाड़ी अभी कुछ दूर ही गई थी। एक खेत की ओर से 6 घोड़े भयानक चीत्कार करते हुये आगे आ रहे थे और वही द्रुत गति की उड़न तश्तरी जैसी वस्तु उनका पीछाकर रही थी। पेट्रोल पार्टी के पास पहुँचने तक वह निशान एकाएक पीछे मुड़ा, आकाश की ओर तेजी से उड़ते हुये शून्य में विलीन हो गया।पीछे निकाले गये निष्कर्ष में इन अधिकारियों ने माना, कि वह कोई विलक्षण आकृति का यान था, हम नहीं जानते , कि उसे कोई बुद्धिमान प्राणी चला रहे थे या यह कोई अणु-नियंत्रित यन्त्र था ; जो भी हो ;उसके पीछे किसी अत्यन्त बुद्धिमान सत्ता का हाथ सुनिश्चित था।
एक तर्क यह हो सकता है कि विमानों के उड़ने की, घूमने की, मुड़ने की नियमित गणितीय व्यवस्था होती है; पर इन घटनाओं से उक्त तथ्य पुष्ट नहीं होता। यह तर्क इसलिये उठ सकता है क्योंकि अपनी पृथ्वी में किसी आविष्कार के दायें-बाँये ही उस तरह के विकास की कल्पना चलती है ; पर बौद्धिक क्षेत्र का विस्तार तो अनन्त है | सो यदि विचार करें, तो एक ही वस्तु के अनेक रूपांतर हो सकते हैं। भारद्वाज के “यंत्र सर्वस्व” में ही विमानों के उड़ने के पाँच तरह के मार्ग बताये हैं (1) रेखा पथ (2) मंडल (3) लक्ष्य (4) शक्ति (5) केन्द्र। इसी प्रकरण में उन यंत्रों का भी उल्लेख है- जिनसे विमानों के न केवल उड़ने– उतरने वरन् नीचे– ऊपर दायें –बायें जाने के लिये यंत्रों के प्रयोग का वर्णन और विधान मिलता है। ऐसा भी उल्लेख मिलता है, विमान को दृष्टि से ओझल भी किया जा सकता था और उस कृत्रिम आवरण को मिटाया भी जा सकता था। यदि प्राचीन भारत में ही उस तरह के प्रमाण उपलब्ध हो सकते हैं, तो अन्य लोकों में बुद्धिमान प्राणियों की कल्पना को नकारा नहीं जा सकता।
21व 23 नवम्बर 1967 के म्युनिख़ (जर्मनी) के अखबार ' डाईसईट से ज्युच 'ने भी इस तरह की एक घटना के हवाले से उक्त तथ्य क़ी पुष्टि की है अौर ळिखा है ,कि अगराम के एक नक्षत्रविद॒ ने तो आकाश से आने वाले इस वस्तु के फोटो भी ळिऐ हैं| यूगोस्लाविया के माउन्ट नीग्रे पहाड़ी पर इसी तरह की एकवस्तु ने जंगल मेंआग ल गा दी और बहुत देरतक दूर थरथराती खड़ी रही; मानों वह किसी प्रतिक्रिया का अध्ययन कर रही हो| इवानग्रेडके निवासियों का तो यहाँ तक कथन है , कि बाहर दिखने वाली चमक वस्तुतः कोई परमाण्विकआवरण था; यथार्थ वस्तु तो उस आवरण के मध्य थी| एक स्थान पर
विरल हुये उस आवरण के अन्दर अन्य वस्तुएँ भी देखी हैं, जो अत्यधिक शुभ्र संगमरमर की तरह कीधातु जैसी प्रतीत होती थी |
यह घटनाएँ इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं, कि जीवन विराट् पार्थिव नहीं। वह एक सर्वव्यापी विचार सत्ता का दृश्य प्रभाव और उसका शक्तिशाली अंश है | हमें मूलतः उस चेतना की शोध और अनुसंधान में रत होना चाहिये। अपना चिन्तन अपने विचार भौतिक सुखों की संकीर्णता तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए।