नीति निष्ठा का निर्वाह इस तरह बन पड़ेगा!

June 1978

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                                                  निति  निष्ठा का  र्निर्वाह इस तरह बन पड़ेगा

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        यों सभी अपने आपको चरित्रवान कहते हैं। उसके समर्थन की दुहाई देते हैं और प्रसंग आने पर दुश्चरित्रता की निन्दा भी करते हैं ; पर ऐसे कम ही लोग हैं , जो चरित्र की सही परिभाषा जानते हों और अपनी या दूसरों की चरित्रनिष्ठा को सही कसौटी पर कस सकते हों | अपने देश में तो यह परिभाषा बहुत ही छोटी और संकीर्ण हो गई। यहाँ ब्रह्मचर्य तक ही चरित्र को सीमित किया जा सकता है और नर-नारी के बीच जहाँ भी मधुर सम्बन्ध चल रहे हों वहाँ उन्हें दुश्चरित्रता में गिन लिया जायेगा। यद्यपि दाम्पत्य मर्यादा की सामाजिक और ब्रह्मचर्य पालन की शारीरिक –मानसिक–सुरक्षा भी चरित्र का एक अंग है, पर उतने तक ही उसकी परिधि सीमित कर देने से बात बनती नहीं है।

आर्थिक ईमानदारी भी चरित्र का अंग है। लेन–देन का व्यवहार साफ रखें। अच्छा तो यह है कि हर व्यक्ति अपने परिश्रम की कमाई पर गुजर करे। अधिक धन अपेक्षित है ,तो इसके लिए योग्यता वृद्धि ,अधिक श्रम, मनोयोगपूर्वक काम का स्तर ऊँचा करना, अधिक लाभ वाले काम ढूँढ़ना, जैसे प्रयास किये जाने चाहिए। हर हालत में खर्च अपनी निश्चित आजीविका से कम ही रखना चाहिए। जिससे न ऋण लेना पड़े और न अनुचित मार्ग से धन कमाने की बात सोचनी पड़े। यह ईमानदारी का महत्वपूर्ण चरण है कि आय और व्यय का सन्तुलन रखा जाय। न्यायोपार्जित कमाई में जिस स्तर का जीवन जिया जा सकता है, उतना ही कठोरतापूर्वक निर्धारित करके रखा जाय। धन कमाने में हर्ज नहीं है ; पर वह ऐसा नहीं होना चाहिए, जो बेईमानी, चोरी, ठगी, उठाईगीरी, रिश्वत, मिलावट, कम तौल-नाप, अनुचित मुनाफाखोरी जैसे उपायों से कमाया गया हो। फिजूलखर्ची यद्यपि प्रत्यक्ष अपराधों में नहीं गिनी जाती ; पर वह आश्रित दुश्चरित्रता की जननी है। उद्धत प्रदर्शन या शौक-मौज के लिए धन फूँकने वाले लोग अपने बड़प्पन की छाप दूसरों पर डालना चाहते हैं, पर होता ठीक इसके विपरीत है। इतना धन आया कहाँ से ? इस अपव्यय का पूर्ति कहाँ से होगी? परिवार के आवश्यक उत्तरदायित्वों को किस प्रकार निभाया जाता होगा? जैसे प्रश्न तुरन्त ही सम्पर्क वालों के मन में उठते हैं और वे आशंका की दृष्टि से देखते हैं। कम से कम अदूरदर्शी और अप्रामाणिक तो मान ही लेते हैं। इस प्रकार का सन्देह बहुत करके सही भी होता है। सीमित आमदनी में सबसे पहले अपनी और अपने परिवार की महत्वपूर्ण आवश्यकताएंँ पूरी की जानी चाहिए। इसके बाद भी कुछ बचता हो, तो भावी प्रगति और सुरक्षा, आकस्मिक आवश्यकता एवं सत्कर्मों के लिए उसे सुरक्षित रखा जाना चाहिए। जो फिजूलखर्ची में धन उड़ाता होगा, वह इन आवश्यक उत्तरदायित्वों का निर्वाह ठीक तरह कर नहीं सकेगा। यह भी कर्त्तव्य त्याग का अपराध ही बना। फिर अपव्यय से अपनी जो आदत बिगड़ती है, उसे पूरा करने के लिए ऐसे कदम उठाने पड़ते हैं ,जो बेईमान के समतुल्य ही जा पहुँचते हैं। ऋण लेकर काम चलाने की प्रवृत्ति प्रत्यक्ष बेईमानी भले ही न हो, तो भी उसमें अनैतिकता अपनाये जाने की सम्भावना पूरी तरह विद्यमान है। व्यवसाय की पूँजी के रूप में अथवा आकस्मिक रूप से अनिवार्य आवश्यकता पड़ने पर ऋण लिया भी जा सकता है, पर उसे जल्दी से जल्दी चुका देने की अकुलाहट बनी रहनी चाहिए। इसके लिए यदि अतिरिक्त कमाई की सम्भावना हो तो अपने चालू खर्चों में कटौती के उपाय बरतने चाहिए ; भले ही इसमें कई प्रकार की कठिनाई का सामना करना पड़ता हो।

        सामाजिक कुरीतियों का अन्धभक्त होने से अपव्यय बढ़ता है और उससे  यों तो ऋणग्रस्त होकर सामाजिक तिरस्कार और अर्थ-संकट में फँसना पड़ता है। यदि साहसपूर्वक विवाहोन्माद, मृतकभोज जैसी कुरीतियों को अस्वीकार कर दिया जाय , तो अर्थ - संकट  की विवशता में बन पड़ने वाली बेईमानी से बचा जा सकता है। वर्तमान परिवार की- भाई, बहिनों एवं अभिभावकों की आवश्यकताएंँ पूरी न हो सकने पर भी नई सन्तानें उत्पन्न करना अनैतिक है। यों इसे प्रसन्नता का कारण माना जाता है, पर वस्तुतः उसे ऐसी अदूरदर्शिता में गिना जा सकता है , जिसकी सीधी प्रतिक्रिया दुश्चरित्रता के रूप में सामने आती है। मात्र चोरी - ठगी ही अपराध नहीं है ; कन्धे पर रखे हुए उत्तरदायित्वों से इनकार करना भी लगभग ऐसा ही है। जब प्रस्तुत लोगों के लिए ही पूरी गुजर नहीं है, तो नये अतिथियों को आमन्त्रित करके पुरानों को संकट में धकेलने में क्या बुद्धिमता है? चरित्रनिष्ठा में वह दूरदर्शिता भी सम्मिलित है जिसके कारण न केवल आज वरन् भविष्य में भी नीतियुक्त जीवन जिया जा सके। इस दृष्टि से आय-व्यय का सन्तुलन बनाये रहना भी सच्चरित्रता का महत्वपूर्ण अंग गिना जा सकता है। दाम्पत्य मर्यादाओं का पालन तो सदाचरण का अंग माना ही जाता है।

       दूसरों को ऐसे आश्वासन देने चाहिए, जिनका निर्वाह सम्भव हो सके। दूसरों को ऐसी जानकारी देनी चाहिए , जिसमें अत्युक्ति का समावेश न हो। आत्मप्रशंसा के लिए अपने सम्बन्ध में वैसा बताना ;  जैसी कि वस्तुस्थिति है नहीं ,तो यह शेखीखोरी भी अनैतिकता में ही गिनी जायेगी। फिर भले ही वह आत्मश्लाघा का रौब गाँठने के लिए ही क्यों न की गई हो। अपने सम्बन्ध में अथवा किन्हीं अन्य प्रसंगों में बात को अपनी वास्तविक जानकारी की अपेक्षा बढ़ा कर या घटाकर कहना ,यह झूठ का ही एक अंग हैं। भले ही उसका उद्देश्य धन हरण न होकर कुछ अन्य है, पर दूसरों को भ्रम में डाल देना, कुछ का कुछ समझा देना भी कुटिलता का घिनौना रूप है। मनुष्य अपने वचन और कर्म से दूसरों पर जो छाप छोड़ता है, वह छल युक्त नहीं होनी चाहिए ; उसमें यथार्थता का समावेश रहे। इसी में आत्मसम्मान की रक्षा होती है। बेईमान की तरह झूठा आदमी भी हेय ही गिना जायेगा। झूठी जानकारियाँ देना, भ्रम में डालना और अपनी चतुरता के आधार पर किसी को भटका देना , यह सभी बातें अनैतिकता की सीमा में आती हैं ; भले ही उन प्रवंचनाओं से सीधी अर्थलाभ उठाया न गया हो।

      जो काम अपनी सामर्थ्य से बाहर हो ; या न करना हो ; उसके लिए झूठे वायदे नहीं किये जाने चाहिए। तत्काल प्रसन्न कर देने के लिए कुछ भी वायदा कर देना और पीछे उसे पूरा न करना, दूसरों के साथ एक प्रकार का विश्वासघात है। यदि उससे पहले ही असमर्थता व्यक्त कर दी जाती , तो वह कोई अन्य उपाय सोचता। विश्वास में बैठे रहकर उसने दूनी हानि उठाई। जिस सहायता का आश्वासन मिला था, वह तो मिली नहीं ; उलटे अन्यत्र प्रयत्न करने का रास्ता और रुक गया। झूठे वायदे करने से आरम्भ में किसी पर छाप भले ही पड़ती हो ,पर जब यह प्रतीत होता है कि हमें बहकाया गया ,तो फिर उलटी प्रतिक्रिया होती है। आरम्भ में जो सहायता की आशा से सद्भावना उत्पन्न हुई थी, वह निराशा में परिणित होकर घृणा का रूप धारण कर लेती है। यह कमाना कम, गँवाना ज्यादा हुआ। यदि कोई वायदा किया गया था, उसे पूरा करने की स्थिति नहीं रही, तो बिना संकोच उस बदली स्थिति की जानकारी दे देनी चाहिए। इससे भले ही उसे निराशा हो, पर वह हानि न उठानी पड़ेगी , जो अन्त तक प्रतीक्षा में बैठे रहने और अन्त में इनकारी होने के कारण अत्यन्त खिन्नतापूर्वक सहन करनी पड़ती है। झूठे मनुष्य सदा के लिए अपना विश्वास गँवा देते हैं। यह चारित्रिक पतन ही गिना जायगा।

      समय का पालन भी चरित्र का एक अंग है। जिसके यहाँ जिस समय पहुँचने का या कोई वस्तु देने, पहुँचाने, लौटाने का वायदा किया गया है ,उसे बिना प्रतीक्षा कराये निश्चित रूप से पूरा करना चाहिए। यह मनुष्य का चरित्र है। समय का पालन न करने पर दूसरों की प्रतीक्षा में अपना समय बर्बाद करना पड़ता है और बेचैनी सहन करनी पड़ती है। प्रकारान्तर से यह भी दूसरों के समय का-- मानसिक सन्तुलन का - अपहरण करना ही है। इस प्रकार के आलस्य, - प्रमाद जो दूसरों को परेशानी में डालते हों, उनका समय नष्ट करते हों, अनैतिकता की श्रेणी में ही आते हैं।

     नागरिक कर्त्तव्यों का पालन हर सभ्य व्यक्ति के लिए नितान्त आवश्यक है। समाज में रहते हैं ; उससे लाभ उठाते हैं ; तो यह भी आवश्यक है कि उसके नीति - नियमों का भी पालन करें। सड़क पर बांएँ हाथ को चलना, साइन लगाना, सार्वजनिक स्थानों पर कूड़ा-कचरा न फेंकना, छींक, जम्हाई, खाँसी आदि से दूसरों को कुरुचि उत्पन्न न होने देने के लिए रूमाल का उपयोग करना, वाणी में नम्रता का समावेश रखना, दूसरों के सम्मान की रक्षा करना, सहयोग के लिए भी आभार व्यक्त करना, किसी के कार्यों में अस्त-व्यस्तता उत्पन्न न करना जैसे शिष्टाचार के अनेक नियम हैं। इन्हें नागरिक कर्त्तव्यों में गिना जाता है। समाज के प्रत्येक सभ्य सदस्य को इनका स्वयं पालन करना चाहिए और दूसरों से वैसा ही करने का अनुरोध करना चाहिए। कर्मचारी पूरे समय और पूरी मेहनत, दिलचस्पी, जिम्मेदारी और ईमानदारी से अपनी ड्यूटी पूरी करें। श्रम कराने वाले उनका उचित पारिश्रमिक नियत समय पर देते रहें। अधिकार माँगने की तरह कर्तव्यपालन को भी महत्व दिया जाय। अधिकार पाने की लड़ाई में कर्तव्य पालन की उपेक्षा को शस्त्र न बनाया जाय। उसके लिए दूसरे अन्य उपाय मौजूद हैं फिर अधिकार न देने वाले के समतुल्य ही अपने ऊपर कर्तव्यपालन न करने का कलंक क्यों लिया जाय? चरित्र को महत्व देने वाले इस सन्दर्भ में सदा पूरा ध्यान रखते हैं।

       नैतिकता की रक्षा के लिए ऐसे साहस की आवश्यकता है, जिसमें गलतियों के प्रति दुःख मानने, पश्चाताप प्रकट करने और प्रायश्चित करने के लिए आगे बढ़ा जा सके। पिछले दिनों जो गलतियाँ हुई हैं, उससे जो समाज को क्षति पहुँची, उसकी भरपाई करना प्रायश्चित है। प्रायश्चित से ही पापों का परिमार्जन होता है। इतना साहस प्रकट करने पर ही यह जाना जा सकता है कि भविष्य में वैसा न करने का संकल्प किया गया है। आत्मशुद्धि के लिए भूतकाल की गलतियों की क्षतिपूर्ति कर सकने जितना प्रायश्चित और भविष्य में न करने का प्रण ये दोनों ही बातें यह प्रकट करती हैं कि गँवायी गई चरित्रनिष्ठा को पुनः अंगीकार कर लिया गया है। उससे खोया हुआ आत्मबल फिर प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार नैतिक साहस को चरित्र निष्ठा का प्रमाण माना जायेगा।

       अपनी भूल के लिए किसी दूसरे को दोषी ठहराया जा रहा हो, तो चरित्रनिष्ठ में इतना साहस होना चाहिए कि वह वास्तविकता बताये और अपनी गलती स्वीकार करे। इससे निर्दोष की बदनामी और कठिनाई बच जायेगी। यदि भूल से अथवा आवेश में अपने द्वारा किसी पर गलत दोषारोपण किया गया है, तो उसके लिए क्षमा माँगने और अपना आरोप वापिस लेने की हिम्मत अपने में होनी चाहिए।

       नैतिक व्यक्ति परिश्रम की कमाई को ही ईमानदारी की समझते हैं और उसी से सन्तोषपूर्वक गुजारा करते हैं। सट्टा, जुआ, लाॅटरी, रेस, पहेलीहल जैसे उपायों से बिना परिश्रम का धन कमाना,कानूनी पकड़ की सीमा में आता हो अथवा न आता हो , नैतिक दृष्टि से अनुचित है। बिना समुचित समाजसेवा किये, वंश या वेश के नाम पर दान-दक्षिणा बटोरना तथा समर्थ होते हुए भी भिक्षा -- व्यवसाय के आधार पर आजीविका चलाना अनैतिक है। कोई चौकीदारी कर रहा है या नहीं, इसकी परवाह किये बिना अपना काम ठीक तरह करते रहने में भी नैतिकता का वह आदर्श सन्निहित है, जिसमें हराम की कमाई का निरोध होता है। दहेज, अलन-चलन, जैसी कुरीतियों के सहारे मुफ्त का धन बटोरना, न देने पर दबाव डालना, आर्थिक भ्रष्टाचार की श्रेणी में ही गिने जाने योग्य हैं।

जिन कार्यों या व्यक्तियों के प्रति आपके मन में घृणा है, दुर्बलतावश उन्हीं की प्रशंसा करना या साथ देना अनुचित है। अनैतिकता के साथ सीधा संघर्ष करने की अपनी परिस्थिति न हो, तो कम से कम इतना तो किया ही जा सकता है कि उससे असहयोग किया जाय। जिन कार्यों को हम पसन्द नहीं करते , उनके प्रति असहमति प्रकट करने में हर्ज नहीं है। यदि इतना भी न बन पड़े , तो कम से कम इतना तो होना चाहिए कि उनके समर्थन में कुछ न कहा जाय और सम्मान तथा सहयोग किसी भी तरह प्रदान न किया जाय। संकोच, दबाव, लाभ, दोस्ती आदि किसी भी दबाव में अनुचित को समर्थन प्रदान करना नीति निष्ठा के लिए किसी भी तरह सहन नहीं हो सकता। टूट जाना पर अनीति के आगे सिर न झुकने की नीति- निष्ठा का निर्वाह आदर्शवादी साहसिकता के सहारे ही सम्भव हो सकता है, इसलिए सत्साहस को सच्चरित्रता का ही एक अंग माना गया है।

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