प्राणों की तरुणाई
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जब तक जाग नहीं जाती है, प्राणों की तरुणाई। जब तक प्राण नहीं लेते हैं, प्राणवान अंगड़ाई॥
केवल तब तक ही जीवन- रस रहता सूखा - सूखा। जीवन निष्क्रिय सा, नीरस सा रहता रूखा - रूखा॥
जीवित रह कर भी ऐसा जन तो निष्प्राण कहाता। ऐसे जीवित-जन का रहता कब जीवट से नाता॥ जीवन-राग न गाने पाती, सांसों की शहनाई॥2॥
लेकिन जब तरुणाई जगती, रस छलका पड़ता है। जीवन-रस, जीवन्त शिराओं में मचला करता है॥
प्राण जहाँ अंगड़ाई लेते, नभ उल्लास लुटाता। धरा उमंगों से भर जाती, पवन मल्हारें गाता॥ नव-प्रभात संदेशा लाती, प्राणों की अरुणाई॥3॥
घोर-निराशाओं को भी फिर आशा बँध जाती है। आशा और सफलता ,हर तरुणाई की थाती है॥
मरघट में भी फिर जीवन का राग छिड़ा करता है।
हर जीवित, मन हूस-मृत्यु से लड़ा-भिड़ा करता है॥
जीवन ही जीवन, देता है चारों ओर दिखाई॥4॥
हम अपने जीवन के रस को और न अधिक सुखायें।
महाप्राण के अंशज होकर, क्यों निष्प्राण कहायें॥
व्यक्ति राष्ट्र सब की ही सोई तरुणाई अब जागे।
युग-परिवर्तन की बेला में हों हम सबसे आगे॥
प्रबल-प्राण पाते गहराई छूते हर ऊँचाई॥5॥
आओ! प्राणवान - स्वर में हम पशुता को ललकारें।
और मनुज में मानवीय- गुणगरिमा चलो निखारें॥
हो अज्ञात, अभाव, निबलता से न मनुजता पीड़ित।
सर्प-विषमता के ,समता के मन्त्रों से हों कीलित॥
आओ! पाटें प्रेम-भाव से ,भेदभाव की खाई॥6॥
-मंगल विजय
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*समाप्त*