प्राणों की तरुणाई (kavita)

June 1978

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                                                                    प्राणों  की   तरुणाई

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  जब तक जाग नहीं जाती है, प्राणों की तरुणाई। जब तक प्राण नहीं लेते हैं, प्राणवान अंगड़ाई॥

केवल तब तक ही जीवन- रस रहता सूखा - सूखा। जीवन निष्क्रिय सा, नीरस सा रहता रूखा - रूखा॥

जीवित रह कर भी ऐसा जन तो निष्प्राण कहाता। ऐसे जीवित-जन का रहता कब जीवट से नाता॥ जीवन-राग न गाने पाती, सांसों की शहनाई॥2॥

लेकिन जब तरुणाई जगती, रस छलका पड़ता है। जीवन-रस, जीवन्त शिराओं में मचला करता है॥

प्राण जहाँ अंगड़ाई लेते, नभ उल्लास लुटाता। धरा उमंगों से भर जाती, पवन मल्हारें गाता॥ नव-प्रभात संदेशा लाती, प्राणों की अरुणाई॥3॥

घोर-निराशाओं को भी फिर आशा बँध जाती है। आशा और सफलता ,हर तरुणाई की थाती है॥

मरघट में भी फिर जीवन का राग छिड़ा करता है। हर जीवित, मन हूस-मृत्यु से लड़ा-भिड़ा करता है॥

जीवन ही जीवन, देता है चारों ओर दिखाई॥4॥

हम अपने जीवन के रस को और न अधिक सुखायें।

महाप्राण के अंशज होकर, क्यों निष्प्राण कहायें॥

व्यक्ति राष्ट्र सब की ही सोई तरुणाई अब जागे।

युग-परिवर्तन की बेला में हों हम सबसे आगे॥

प्रबल-प्राण पाते गहराई छूते हर ऊँचाई॥5॥

आओ! प्राणवान - स्वर में हम पशुता को ललकारें।

और मनुज में मानवीय- गुणगरिमा चलो निखारें॥

हो अज्ञात, अभाव, निबलता से न मनुजता पीड़ित।

सर्प-विषमता के ,समता के मन्त्रों से हों कीलित॥

आओ! पाटें प्रेम-भाव से ,भेदभाव की खाई॥6॥

-मंगल विजय

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                           *समाप्त*


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