शरीर एवं मन (kahani)

June 1978

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शरीर एवं मन में एक बार विवाद छिड़ गया | शरीर का कहना था “पाप कर्म मैं कर सकता हूँ।; मैं तो जड़ हूँ- मिट्टी का ढेला, मोह, क्रोध उत्पन्न करने वाला स्पन्दन मुझमें भला कहाँ से हो सकता है। अंतः पाप कर्म का भागीदार मैं नहीं। '' मन कैसे यह दोषारोपण सह सकता था तुरन्त बोला “मेरे पास पाप करने का साधन ही कहाँ है, मैं पाप कर्म कर नहीं सकता | बिना साधनों के कोई कर्म कैसे किया जा सकता है। ?

भगवान ने दोनों को झगड़ते देखा ,तो वे मुस्कराये व बोले, “पाप कर्म में तुम दोनों ही बराबरी के भागीदार हो, शरीर पर जब मन हावी हो जाता है, तब शरीर को पाप कर्म में प्रवृत्त करता है; तो फिर शरीर भी सक्रिय हो जाता है व दुष्कर्म होते रहते हैं |”

सच है, मन को शरीर पर हावी न होने दिया जाय तो शरीर कर ही क्या सकता है और शरीर मन की न मानें ,तो मन फिर चुप हो बैठ जायेगा।

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