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बीज की तीन ही गति हैं-या तो वह बीज बनकर गले और अपने को सुविकसित पौधे के रूप में परिणत करके अपने जैसे अनेक बीज पैदा करे और अपना वंश चलाता रहे। दूसरी यह कि पिसकर आटा बन जाय फिर रोटी के रूप में एक प्राणी का पेट भरे और अन्त में दुर्गन्धित विष्ठा बनकर किसी आड में उपेक्षित पड़ा रहे। तीसरी यह कि भीरुता और संकीर्णता से ग्रसित आत्म-रक्षा की बात सोचता रहे और कीड़े-मकोड़ों अथवा सड़न-सीलन द्वारा नष्ट कर दिया जाय।
मनुष्य-जीवन की भी यही तीन गतियाँ हैं, परमार्थ-प्रयोजनों में अपने को संलग्न करके यशस्वी-जीवन जिये और संसार की सुख-शान्ति में योगदान करे-यह पहली गति है। दूसरी गति यह कि अपने शरीर और परिवार को ऐश्वर्यवान बनाने पर ध्यान को केन्द्रित रखे, पेट और प्रजनन की समस्याओं में उलझा रहे। उचित-अनुचित का विचार न करके पशु स्तर की जिन्दगी गुजारे और अन्ततः विष्ठा जैसी हेय और घिनौनी परिणति प्राप्त करे। तीसरी गति अति कृपणता, अति संकीर्ण और अति स्वार्थ बुद्धि की है। उस स्तर के लोग न परमार्थ सोचते हैं, न स्वार्थ।
मनुष्य जीवन की सार्थकता और मानवी-बुद्धि की प्रशंसा इस बात में है कि वह प्रथम गति का वरण करे और श्रेष्ठ सज्जनों के मार्ग का अवलम्बन करे। ईसा ने लोगों से कहा था-मूर्खों जो बीज तुम बोते हो वह गले बिना नहीं उगता। भौतिक रूप से तुम गलोगे तो अध्यात्मिक रूप से ऊँचे उठोगे।