शब्द ब्रह्मं की नाद-साधना

December 1973

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कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा है-संगीत का मूल-तत्व अतीन्द्रिय और अति मानवी है। दैनिक जीवन के घटनाक्रम में बंधी हुई अन्तःचेतना को वह मुक्ति की अनुभूति तक ले जाता है। क्या गायक, क्या श्रोता-दोनों ही उन क्षणों में वैराग्य की उस भूमिका के समीप जा पहुँचते हैं, जिसे ब्रह्माण्ड की नींव के रूप में तत्व वेत्ताओं ने जाना है।

महाकवि होमर कहते थे-असह्य मनोव्यथा का समाधान या तो रुदन-क्रन्दन में होता है या फिर संगीत के गुँजन में।

भारतीय तत्व वेत्ता संगीत की गणना मानव जीवन की महती आवश्यकताओं में करते रहे हैं। उन्होंने इस विभूति से वंचित लोगों को पूँछ रहित पशु की संज्ञा में गिना है।

साहित्य संगीत कला विहीन। साक्षात पशुः पुच्छ विषाण हीनः॥

संगीत, साहित्य और कला से रहित मनुष्य बिना पूँछ का साक्षात् पशु है।

खगाः भृंगाः पतगांश्च कुरंगद्यापि जन्तवः। सर्व एव प्रगायन्ते गीतव्याप्ति दिगन्तरे॥ -नारद संहिता

पक्षी , भ्रमर, पतंगे, मृग आदि जीव-जन्तु तक गायन करते रहते हैं। गीत-ब्रह्माण्ड व्यापी है।

संगीत मनुष्यों की ही नहीं, सृष्टि के समस्त प्राणधारियों की सम्पदा है। वे सभी अपने-अपने ढंग से उसका उपयोग करते हैं।

सृष्टि का सूक्ष्म निरूपण करने वाले तत्व वेत्ताओं ने बतलाया है कि परा-प्रकृति के अन्तराल में महाकाश में -अनाहत स्वर की थरथराहट उत्पन्न होती है और उस आदि स्वर सूर की भी सात अश्व गतिशील होते हैं।

सूर्य के रथ में सात रंग के सात घोड़े जुड़े हैं। स्वर ब्रह्म भी महदाकाश का नाद-ब्रह्मं है। जो बेवजह अक्षर से क्षर बनता है तो उसकी परिणति सात विखण्डों में सप्त-स्वरों में दृष्टिगोचर होती है। प्रकृति और पुरुष का अनवरत संयोग-सम्भोग-आघात-प्रत्याघातों के रूप में स्व संचलित पेण्डुलम गति से नियत निर्धारित क्रम से चलता रहता है। इसी से ब्रह्माण्ड की घड़ी के समस्त कल-पुर्जे घूमते हैं और विश्व-व्यापी विभिन्न हलचलें गतिशील होती हैं।

भौतिक विज्ञानी कायिक हलचलों के कारण स्वर उद्रेक का अस्तित्व बताते हैं। आत्म-विज्ञानी कहते हैं-शब्द विश्व का मूल है-विभिन्न हलचलें उसकी प्रतिक्रिया मात्र है। क्रिया कौन? प्रतिक्रिया कौन? इसका निर्णय न ही हो सके, तो भी इतना तो मानना ही पड़ेगा कि दोनों परस्पर अविच्छिन्न हैं। एक का आधार टूटने पर दूसरा भी स्थिर न रह सकेगा। जीवन का अन्त होने पर स्वर समाप्त होगा, अथवा स्वर की तालबद्ध स्थिति में अन्तर आने पर रुग्णता पीछे पड़ेगी और उसमें विकृति आ जाने पर मरण ही सम्मुख आ उपस्थित होगा। आयुर्वेद विज्ञानी रोग-निदान के लिए नाड़ी-परीक्षा करते हैं, उसे रक्त संचार की हलचल समझने मात्र की बात ही उसकी झंकृति की अनुभूति की जाती है, उसी प्रकृति नाड़ी संचार के साथ चल रहे, स्वर प्रवाह की स्थिति देखकर भी काम-प्रकृति की सूक्ष्म स्थिति का अन्वेषण किया जाता है।

मनुष्य के अन्तरंग की सरसता जब हुलसती है तो उसे गायन के लिए बाध्य करती है। गान-आत्मा की कला है, न कि कण्ठ की विशेषता। आवश्यक नहीं कि गायक को मयूर कण्ठ या कोकिल कंठी ही होना चाहिए। भावनाओं का उद्रेक जब गतिक्रम और लयबद्ध से प्रस्फुटित होता है तो उसे गायन के रूप में उभरता देखा जाता है। गीत-भावपूर्ण ही हो, यह आवश्यक नहीं। शब्दों के अनगढ़ होते हुए भी गान अपनी विविध अभिव्यक्तियाँ प्रकट करता हुआ गुँजित रह सकता है, भले ही उसे कोई दूसरा सुनने के लिए मौजूद या तत्पर न हो।

भगवान का नाम यों किसी भी प्रकार के शब्दोच्चारण से लिया जा सकता है। पर यदि उसे गीतवाद्य के साथ लिया जाय तो शास्त्रकारों के मतानुसार उसका प्रभाव साम-श्रुति-गान के समान अत्यन्त ही प्रभावोत्पादक होता है।

विष्णु नामानि पुण्यानि सुस्वरें रन्वितानिचेत्। भवन्ति साम तुल्यानि कीर्तितानि मनीषिभः॥

यदि ताल सहित सस्वर भगवान का नाम गाया जाय तो वह साम-गान की तरह फलप्रद होता है।

संगीत के आदि-इतिहास पर दृष्टि डालें तो वह विनय, भक्ति, करुणा और ममत्व की अनुभूतियों के साथ उद्भूत हुआ प्रतीत होगा। ईश्वर भक्ति के पीछे उदात्त प्रेम की-आत्मार्पण की-लय तादात्म्य की धारा बहती दिखाई देगी। संगीत का आदि उद्गम भी इसी स्रोत के सन्निकट है। कला की उत्कृष्टता ही काल-जयति बनती है। संगीत को विलास और विनोद का माध्यम बनना जरूर पड़ा, पर वस्तुतः उसकी मूल सत्ता वैसी है नहीं। आत्मा की अभिव्यंजना ने ही क्रमशः संगीत की शाखा प्रशाखाओं के रूप में विकास किया है।

वेद-काल के ऋषियों से लेकर अद्यावधि भक्तजनों ने अपनी अनुभूतियाँ प्रायः छंदबद्ध में ही विनिर्मित की हैं। भक्तिकाल के प्रायः सभी साधनारत महामानव या तो कविताएँ रचते रहे हैं, या फिर छन्द-स्वरों में भगवान के गुणानुवाद गाते रहे हैं। महर्षि नारद से लेकर सूर, तुलसी, मीरा, कबीर तक वही परम्परा क्रमबद्ध शृंखला के रूप में चली आई है।

वीणा पुस्तक-धारिणी-भगवती सरस्वती के दो उपकरणों में शब्द-शास्त्र का विभाजन है। उनके एक हाथ में वीणा और दूसरे में पुस्तक है। इन्हें ज्ञान की दो धाराएँ कह सकते हैं। स्वर-शास्त्र और शब्द-शास्त्र के माध्यम से ही हमारी विचारधाराएँ और भावनाएँ प्रदीप्त होती है। आचार्य आनन्दवर्धन ने इस प्रतीक अलंकार पर अधिक प्रकाश डाला है। भगवान शंकर के डमरू और भगवान कृष्णा की बाँसुरी में भी संगीत-गरिमा का ही संकेत है।

इन दिनों शास्त्रीय संगीत ‘क्लासिकल म्यूजिक’ और सुगम-संगीत लाइट-म्यूजिक के दो भागों में संगीत को विभक्त किया जाता है। गीत के चार अंक माने गये हैं-स्वर पद, लय और मार्ग। स्वरवान अर्थात्-गायन के रूप में प्रयुक्त होते वाला और ‘अभिधानावान’ अर्थात्-वार्तालाप के रूप में व्यक्त होने वाला, इस रूप में भी शब्द का विभाजन है। इसी को गेय पक्ष और वाक् पक्ष भी कहते हैं।

संगीत रत्नाकर-ग्रन्थ में नाद-ब्रह्म की गरिमा पर प्रकाश डालते हुए कुछ ऊहापोह किया गया है-

चैतन्यं सर्व भूतानाँ विवृतं जगदात्मना। नादोब्रह्य तदानन्दंमन्दिलयमुपास्महे॥

नाद पासनयादेवा ब्रह्यविष्णु महेश्वराः। भवन्त्युपासितानूनं यस्मादेते तदात्मकाः॥

नाद-ब्रह्म समस्त प्राणियों में चैतन्य और आनन्दमय है। उसकी उपासना करने से ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों की सम्मिलित उपासना हो जाती है। वे तीनों नाद-ब्रह्म के साथ बंधे हुए है।

नकारं प्राण नामानं दकारमनलंविदुः। ज्ञातः प्राणाभिसंयोगा तेननाहैउभिघीयते॥

प्राण का नाम ‘ना’ है और अग्नि को ‘द’ कहते हैं। अग्नि और प्राण के संयोग से जो ध्वनि उत्पन्न होती है, उसे नाद कहते हैं।

संगीत रत्नाकर में नाद की बाईस श्रुतियों में विभक्त किया गया है। ये श्रुतियाँ कान से अनुभव की जाने वाली विशिष्ट शक्तियाँ हैं। इनका प्रभाव मानवी-काया और चेतना पर होता है। इन बाईस शब्द श्रुतियों के नाम हैं-(1) तीव्रा,(2) कुमह्वति, (3) मन्दा, (4) छन्दोवती, (5) दयावती, (6) रंजनी, (7) रब्तिका, (8) रौही, (9) क्रोधा, (10) वडिनका, (11) प्रसारिणी, (12) प्रीति, (13) यार्जनि, (14) क्षति, (15) रक्ता, (16) संदीपिनी, (17) अलापिनी, (18) मदन्ति (19) रोहिणी, (20) रम्पा, (21) उग्रा, (22) क्षोभिणी।

इन बाईस ध्वनि-शक्तियों को सप्त स्वरों के साथ सम्बद्ध किया गया है। यह विभाजन इस प्रकार है-

- षडज (स) तीव्रा, कुमह्वात, मन्दा, छन्दोवती।

-रिषव (रे) दयावती, रंजनी, रब्तिका।

-गान्धार (ग) रौही, क्रोधा।

-मध्यम (म) बड़िनका, प्रसारिणी, प्रीति, मार्जनि।

-पंचम (प) क्षिति, रक्ता, संदीपनी, अलापिनी।

-धैवत (ध) मदन्ति, रोहिणी, रम्पा।

-निषाद (नि) उग्रा, क्षोभिणी।

इन बाईस शक्तियों की ध्वनि के द्वारा उत्पन्न होने वाले भौतिक एवं चेतनात्मक प्रभाव ही समझना चाहिए। औषधियाँ जिस प्रकार मूल द्रव्यों के रासायनिक सम्मिश्रण से उत्पन्न होने वाले अतिरिक्त प्रभाव के कारण विभिन्न रोगों पर अपना प्रभाव डालती हैं। इसी कारण विभिन्न रोगों पर अपना प्रभाव डालती हैं। इसी प्रकार इन बाईस शक्तियों का उनके सम्मिश्रण का वस्तुओं तथा प्राणियों पर प्रभाव पड़ता है। प्राचीन काल में इस रहस्यमय विज्ञान के ज्ञाता नाद-ब्रह्म के उपासक कहलाते थे। वे विभिन्न गीत-वाद्यों के-भाव मुद्राओं के और रसानुभूति के आधार पर अपने अन्तराल में दबी हुई शक्तियों को जगाते थे और संपर्क में आने वाले श्रोताओं की व्यथा वेदनाएँ हरते थे। जड़-चेतन प्रकृति को प्रभावित करके वे अवांछनीय परिस्थितियों को बदल कर अनुकूल वातावरण उत्पन्न करने में भी चमत्कारी सफलता प्राप्त करते थे। नाद-योग का स्थान किसी भी उच्चकोटि की योग-साधना से कम न था।

नाद-योग में अनाहत स्वर सूर्य ओंकार का आश्रय लिया जाता है, और उसके वाहन अन्य स्वरों को घण्टा, शंख, बंसी, भेरी, मृदंग, गुँजन, कम्पन, गर्जन आदि के रूप में सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय के माध्यम से सुना जाता है। इस आधार पर अवलम्बन के सहारे योगीजन भगवद्-वाणी का अवगाहन करते हैं। प्रकृति के अन्तराल में चल रही हलचलों को समझते हुए वर्तमान और भविष्य की स्थिति एवं सम्भावनाओं का ज्ञान प्राप्त करते हैं।

ब्रह्माण्ड में चल रहे स्वर-प्रवाह की तरह ही पिण्ड रूपी सितार के तार भी अपने क्रम से झंकृत होते रहते हैं। मेरु-दण्ड स्पष्टतः वीणा-दण्ड है। सात धातुओं के सात तार इसमें जुड़े हैं। सप्त-विधि अग्नियों का पाचन परिपाक चलते रहने से ही तो प्राण को पोषण मिलता है और जीवन को स्थिर रखा जाता है। यह अग्नियाँ सात धातुओं को पकाती हैं और परिपाक को तेजस् में बदलती हैं। (1) पेशियों का आकुंचन-प्रकुञ्चन (2) नाड़ियों का रक्ताभिषरण, (3) फेफड़ों का श्वास-प्रश्वास (4) हृदय की धड़कन (5) मस्तिष्कीय विद्युत का ऋण धन, आरोह-अवरोह (6) चित्त का विश्राम जागरण, (7) कोशिकाओं का जन्म-मरण-यह सात क्रियाकलाप ही जीवन-विधा के मूलभूत आधार हैं। इन्हीं को सप्त-ऋषि सप्त-लोक सप्त-द्वीप सप्त-सागर सप्त-मेरु सप्त-सरित सप्त-शक्ति के नाम से पुकारते हैं। शब्द सूर्य के यही सप्त अश्व हैं। स्वर-सप्तक इन्हीं की प्रत्यक्ष अनुभूति हैं। ब्रह्माण्ड-व्यापी शब्द-ब्रह्म का गुँजन काय-पिण्ड के अंतर्गत भी सुना जा सकता है।

नाद के दो भेद हैं-आहत और अनाहत। स्वच्छन्द तन्त्र ग्रन्थ में इन दोनों के अनेकों भेद-उपभेद बताये हैं। आहत और नाद को आठ भागों में विभक्त किया है। घोष, राव, स्वन, शब्द, स्फुट, ध्वनि, झंकार, ध्वंकृति। अनाहत की चर्चा महाशब्द के नाम से की गई है। इन्हें स्थल कर्णेन्द्रिय नहीं सुन पाते, वरन् ध्यान धारणा द्वारा अन्तःचेतना में ही इनकी अनुभूति होती है।

विकृत, वादी, संवादी, अनुवादी और विवादी स्वरों का-उनके ग्रह अंश और न्यास-पक्षों का-तिरसठ अंलकारों का-उनचास कूट तानों का संगीत रत्नाकर में उल्लेख है। मध्यकाल में राज्याश्रय पाकर संगीत का स्वर पक्ष काफी विकसित हुआ था। इससे पूर्व वह सन्तों और योगियों का प्रिय विषय था। तब उसकी गणना श्रेय-साधना के रूप में की जाती थी।

दीपक-राग प्रेम-राग जैसे स्वर ब्रह्म के नगण्य से स्थूल प्रकृति से सम्बन्धित चमत्कार है सूक्ष्म प्रकृति को तरंगित और उत्तेजित करने में उसकी धाराएँ बदलने में भी संगीत का प्रभाव स्वल्प दृष्टिगोचर नहीं होगा।

अन्य योगों की साधना का अवलम्बन लेकर जिस प्रकार उच्चकोटि की सिद्धियाँ प्राप्त की जा सकती है, उसी प्रकार स्वर-योग की साधना से भी उच्च आध्यात्म की भूमिका में प्रवेश करके दिव्य विभूतियों को करतलगत किया जा सकता है। जिस प्रकार ब्रह्माण्ड के अन्तराल में नाद-ब्रह्म का गुँजन संव्याप्त है, उसकी प्रतिध्वनि से पिण्ड की अन्तःस्थिति भी गूँजती रहती है। संगीत की स्वर साधना इस अव्यक्त गुँजन को व्यक्त बनाती है-मुखर करती है। गान यदि उच्च स्तर का हो तो अन्तरात्मा की भावसत्ता को तरंगित करके ब्रह्मानंद की आत्मानन्द की रसानुभूति करा सकता है।

प्रसिद्ध है कि तानसेन दीपक-राग गाकर बुझे हुए दीपक जलाते थे और मेघ-राग गाकर छितराए बादलों को घटा बनाकर बरसाते थे। यह विद्या उन्होंने स्वामी हरिदास के चरणों में बैठकर योग-साधना के रूप में सीखी थी। प्राणायाम के उच्च-स्तरीय अभ्यास ने उन्हें शब्द-ब्रह्म का वेत्ता बनाया था। आहत-नाद और अनाहत-नाद की अत्यन्त सूक्ष्म प्रवाह शृंखला को नादयोग के आधार पर ही अनुभव में लाया जाता है। योग के आधार पर ही अनुभव में लाया जाता है। स्वर-साधना प्रकारान्तर से नाद-ब्रह्म की वैसी ही आराधना है, जैसी ब्रह्म-विद्या के अन्तर्गत अद्वैत-ब्रह्म चिन्तन की।


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