विषाणुओं को मारने की ही बात न सोची जाय

December 1973

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बीमारियाँ का निदान करने के लिए रक्त, मल, मूत्र थूक आदि की परीक्षा की जाती है और देखा जाता है कि प्रस्तुत रोग के कारण कौन से विषाणु हैं? रोगी के शरीर में जो विषाणु पाये जाते हैं, उन्हें मारने के लिए जो औषधि कारगर होती है, उसको उपचार के रूप में सेवन कराया जाता है।

समझा यह जा रहा है कि उन कीटाणुओं की आकृति प्रकृति समझली जाय और उन्हें मार डालना किस रसायन के उपयोग से सम्भव हो सकता है-इसका पता लगा लिया जाय तो रोगों से-उनके उत्पादक विषाणुओं से-छुटकारा प्राप्त कर लिया जाएगा।

पूना की विषाणु अनुसन्धानशाला ने मनुष्यों की तरह समय-समय पर पशु-पक्षियों में भी फैलने वाली महामारियों का लेखा-जोखा तैयार किया है। रानीखेत में एक बार कोयलों पर विपत्ति टूटी थी, मैसूर के क्यासानूर वनों में बन्दरों का सफाया हुआ था। नागपुर की मस्तिष्क-शोध बीमारी, कलकत्ता का रक्त स्रावी ज्वर, दिल्ली का पीलिया सभी को याद है। महामारियों के ऐसे हैजा, प्लेग और इन्फ्लुएञ्जा की जैसी बाढ़ आई थी , वह किसी से छुपी नहीं है।

अब तक प्रायः 200 से अधिक प्रकार के विषाणु आर्थोपोंड-बोर्नबाइरस-ढूँढ़े जा चुके हैं। ये मक्खी, मच्छर, पिस्सू, खटमल जैसे छोटे कीड़ों के शरीर पर कब्जा जमाते हैं और फिर उनके सम्पर्क में आने पर मनुष्य भी प्रभावित होते हैं।

राकफैलर फाउण्डेशन तथा इण्डियन कोन्सिल आफ मेडिसिन रिसर्च ने पिछले दिनों विषाणुओं की आकृति-प्रकृति के सम्बन्ध में तो सुविस्तृत लेखा-जोखा तैयार किया है, पर वे भी ऐसा कुछ ठोस उपाय नहीं निकाल सके कि किस प्रकार इन रक्त बीजों से छुटकारा पाया जाय। क्योंकि उनके आक्रमण ऐसे छद्म और इतने तीव्र होते हैं कि जब तक रोक-थाम का अवसर आवे-तब तक तो वे अपना तीन चौथाई काम पूरा कर लेते हैं।

विषाणुओं की खोजबीन न केवल भारत में, वरन् समस्त संसार में हो रही है। किन्तु अब तक जो परिणाम निकले हैं वे बहुत उत्साहवर्धक नहीं है। क्योंकि मारण प्रयोग की सार्थकता पूर्णतया संदिग्ध होती चली जा रही है। इसका एक कारण तो यह है कि रोग कीटकों के साथ-साथ जीवन-रक्षक स्वास्थ्य कीटाणु भी मरते हैं, क्योंकि दवा तो रक्त में मिलकर मार-काट मचाती हैं, वह रोग को मारने और निरोग को बचा देने की समझ वाली नहीं होती। इसलिए जहाँ रोग-कीटकों को मारने में आँशिक सफलता मिलती है, वहाँ शरीर की जीवनी शक्ति इतनी दुर्बल हो जाती है कि इसके फल स्वरूप किसी रोग की सामयिक निवृत्ति भले ही हो जाय, पर पीछे-पीछे अनेक विकृति-विद्रोह उठ खड़े होने की सम्भावना बन जाती है। दूसरी एक बात यह है कि विषाणु-मारक औषधि प्रयोग के पहले झोंके में तो कुछ न कुछ मरते हैं, पर जो बच जाते हैं, वे ऐसे ढीठ बन जाते हैं कि दवाएँ उनका कुछ भी बिगाड़ नहीं कर पातीं।

विश्व-स्वास्थ्य संगठन ने रोग-वाहक कीटों की आनुवांशिकी पर एक अन्वेषण रिपोर्ट प्रकाशित करके बताया है कि कीटनाशक दवाएँ आरम्भ में तो मार-काट करने में सफल होती हैं, पर जो जीवित बच जाते हैं, उनमें इन कीट-नाशक दवाओं से लड़ने की क्षमता भी तेजी से विकसित हो जाती है। इस वातावरण में रहते-रहते यह कीट निर्भय हो जाते हैं और फिर डी. डी. टी. - डाएल्ड्रिलन-जैसी दवाएँ भी उन्हें नष्ट करने में असमर्थ हो जाती हैं। अभ्यस्त कीड़े इन विषैली दवाओं पर निर्भय होकर बैठ जाते हैं-इतना ही नहीं, कितने ही तो इन विषों के रसास्वादन का भी प्रेमपूर्वक आनन्द लेते हैं। जो बात फसल-नाशक कीटाणुओं पर लागू होती है, ठीक वही मानव शरीर में भीतर अड्डा जमाये बैठे विषाणुओं पर लागू होती है। कुछ दिन के अभ्यास के बाद वे भी दवाओं को अंगूठा दिखाने लगते हैं।

इन परिस्थितियों में यही सोचना पड़ रहा है कि कीटाणु-नाशक दवाओं पर लगने वाले प्रयत्न को एकांकी न हरने दिया जाय, वरन् शरीरों में उस जीवनी-शक्ति के उद्भव का प्रयास किया जाय, जिसके रहते न विषाणु बाहर आक्रमण कर सकें और न मलों व सड़न के कारण भीतर ही उत्पन्न हो सकें। स्वास्थ्य-सम्बन्धी सामान्य नियमों का पालन करना-आहार-विहार में प्रकृति के अनुरूप सामंजस्य उत्पन्न करना ही वह वास्तविक उपाय है, जिससे विषाणुओं की विभीषिका से निपटने का स्थायी उपाय निकल सकता है।

एक और भी चिन्ताजनक पक्ष यह है कि यह मारक औषधियाँ भी विषाणुओं से कम घातक नहीं हैं। यदि उनका मारक तत्व किसी प्रकार प्रबल हो चले तो फिर उसकी भयंकरता किसी महामारी से कम न रहेगी और लाभ सोचने के स्थान पर रोग और रोगियों के ही नहीं, स्वस्थ मनुष्यों के सफाया होने की सम्भावना भी सामने आ खड़ी होगी।

खरगोशों की बहुता से निपटने के लिए उनमें एक मारक तत्व की सुई लगाने का ऐसा ही प्रयोग हुआ है, जिसने विषाणु-नाशक दवाओं के सेवन के साथ जुड़ी हुई विभीषिका को सामने लाकर खड़ा कर दिया है। फ्राँस में एक डाक्टर ने अपने बगीचे के खरगोश मारने के लिए उन्हें एक जहरीला इंजेक्शन लगाया, उसका अनुमान था कि इन खरगोशों के संपर्क में आने वाले बगीचे के कुछ और खरगोश भी मर जायेंगे। पर परिणाम अप्रत्याशित हुआ, वह मारक छूत इस प्रकार अनियन्त्रित होकर फैली कि यूरोप में खरगोश के वंश नाश का ही संकट उत्पन्न कर दिया। घटना इस प्रकार घटी कि - फ्राँसीसी डाक्टर पाल अमर्दाडिलाइल के बगीचे में खरगोशों का बाहुल्य था, वे आये दिन नये पौधे नष्ट कर देते। इससे वे खरगोशों पर बेतरह झल्लाये हुए थे। खरगोश मारने की दवा का विज्ञापन पढ़ा तो उनकी बाछें खिल गईं और दूसरे ही दिन उसे मँगाने का आदेश दे दिया और वह कुछ ही दिनों में आ भी गई। उनका विचार अपने बगीचे के खरगोशों को खत्म करने का था। सो बताई हुई तरकीब के अनुसार उन्होंने दो खरगोश पकड़े, उन्हें दवा के इंजेक्शन लगाये और बगीचे में छोड़ दिया। खरगोश बीमार पड़े, उनकी छूत बगीचे के अन्य खरगोशों को लगी और वे उसी छूत की बीमारी से सब के सब मर गये। डाक्टर को अपनी इस सफलता पर बहुत प्रसन्नता हुई।

पर बात एक ही बगीचे तक समाप्त नहीं हुई। छूत फैली और उसने पहले फ्राँस भर के खरगोशों का सफाया किया और पीछे सारे यूरोप में उन पर कहर बरसा दिया।

फ्राँस में माँस के लिए खरगोश पाले जाते थे। किसानों ने पशु-पालन के घरेलू उद्योग में खरगोश को भी शामिल कर रखा था। सरकारी शिकारग्रह में शिकारियों के लिए लाइसेन्स लेकर खरगोशों के शिकार की अनुमति मिलती थी। इससे सरकारी खजाने में करोड़ों रुपया लाइसेन्स फीस का जमा होता था। अनुमान किया गया था कि प्रायः 20 लाख खरगोशों का माँस उस देश के निवासियों को मिलता था। उनकी खालें काफी कीमती होती थीं और उससे किसानों तथा शिकारियों को काफी पैसा मिलता था। चमड़े के उद्योग में इस चमड़े की बड़ी भूमिका थी। इस उद्योग से सरकार को 20 करोड़ फ्रेंक का टैक्स मिलता था और चमड़े के कारखानों में प्रायः एक लाख कर्मचारी काम करते थे।

द्वितीय महायुद्ध के समय तो भुखमरी से खरगोशों ने ही फ्राँसीसियों का बचाया था। इन दिनों प्रायः 85 लाख खरगोश हर साल मारे जाने लगे थे।

यूरोप भर में इन उपयोगी खरगोशों का इतनी तेजी से सर्वनाश होने से सर्वत्र हाहाकार मच गया। उन दिनों एक तीन वर्ग मील के इलाके में 20 हजार खरगोश जमीन पर मरे हुए पड़े पाये गये। जंगलों और झाड़ियों में मरने-सड़ने वालों की संख्या तो और भी बढ़ी चढ़ी थी। बीमार खरगोशों से गाँवों की गलियाँ भरने लगीं और सड़कों पर पहुँच कर वे तेज दौड़ती मोटरों से कुचलने लगे। सड़कें इस रक्त-माँस से घिनौनी हो गई। यह समस्या उन दिनों यूरोप की एक बड़ी समस्या बन गई।

खरगोशों का वंश-नाश करने वाली इस दवा का नाम था- भिकजा मेटोसिस’ उसे आस्ट्रेलिया की सरकारी प्रयोगशाला में बढ़े हुए खरगोशों को नष्ट करने के लिए बनाया था। इस दवा के इंजेक्शन लगाकर कुछ खरगोश जंगलों में छोड़े गये, फल स्वरूप छूत की बीमारी उन्हें लगी और बड़ी संख्या में वे रम गये। इससे वे मरे तो, पर वैसा सफाया नहीं हुआ-जैसा कि यूरोप की जलवायु ने उन पर कहर बरसाया।

इस संकट के निवारण का खरगोशों की नस्ल बचाने के लिए फैली हुई महामारी पर नियन्त्रण करने का काम पाश्चर इन्स्टीट्यूट ने अनेक सरकारों के अनुरोध पर अपने हाथ में लिया। डा. प्येरलेपें के नेतृत्व में एक वेक्सीन निकाला गया और उससे उस महामारी पर नियन्त्रण प्राप्त किया जा सका।

रोकथाम के लिए जो ‘एन्टीभिक्जामेटोसिस’ इंजेक्शन बनाया जा सका, उससे इतना ही हो सका कि खरगोशों की नस्ल मिटने से बचाई जा सके। पाश्चर इंस्टीट्यूट के कर्मचारियों ने बड़ी मेहनत करके दो वर्ष में चार लाख स्वस्थ खरगोश पकड़े और उन्हें टीका लगाकर जंगलों में छोड़ दिया, ताकि वे उस महामारी के प्रभाव से अपने को बचा सकें और भविष्य के लिए नस्ल पैदा कर सकने योग्य बने रह सकें। जिन्हें टीका नहीं लगाया जा सका, वे तो बेचारे तेजी से मौत के ग्रास बनते ही चले गये।

बेल्जियम, लग्जेम्वर्ग, जर्मनी आदि देशों में भी खरगोशों का इसी प्रकार इस महामारी ने सफाया किया। डा. पाल डिलाइल ने कुछ खरगोशों पर ही मारक प्रयोग किया था, पर इसकी विष-बेल फैली तो उसने करोड़ों के ही प्राण ले लिये।

विषाणुओं की भयंकरता और उनकी हानि कम नहीं हैं। उनके निराकरण का उपाय किया जाना चाहिए। पर वह अति उत्साह भरा और एकांकी नहीं होना चाहिए। मारक औषधियों की उल्टी प्रतिक्रिया को ध्यान में रखते हुए उनका प्रयोग फूँक-फूँक कर करने में ही कल्याण है।

गुत्थी का हल आज निकल या कल, संयम और सादगी की अध्यात्म परम्परा को जीवन में स्थान देने पर ही निकलेगा। विषाणुओं का मारण जितना उचित है, उससे लाख गुना आवश्यक यह है कि हम समझदारी ओर सरलता की सौम्य जीवन पद्धति अपनायें। साथ ही मल संचय की उस गुँजाइश की जड़ उखाड़ने में निरन्तर प्रवृत्त रहें, जिसके कारण कि इन विषाणुओं की उत्पत्ति होती है।


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