अन्तःस्रावी ग्रन्थियों की अद्भुत और अतिमानवी क्षमता - 2

December 1973

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

जे. कार्लसन ने अपनी पुस्तक ‘मशीनरी आफ दी वाडी’ में मनुष्य को प्रजनन क्षमता यौन रुचि से-स्थूल प्रभाव से आगे की चर्चा करते हुए लिखा है-दाम्पत्य जीवन का तालमेल बिठाने में और उनके बीच सन्तोष असन्तोष रखने में हारमोन स्थिति का बहुत बड़ा हाथ है। सन्तानोत्पादन कर्म से आगे की बात में यह कहते हैं कि बालकों को मनः स्थिति का जो उत्तराधिकार पूर्वजों से मिलता है, उसका आधार ये हारमोन ही होते हैं। वंशानुक्रम और गुण सूत्र सम्बन्धी चर्चा इन दिनों बहुत है, पर उनमें जो विशेषता उगती-डूबती है, उनका मूल उद्गम कहाँ है? इसकी खोज की जाय तो पता चलेगा कि यह हारमोन्स ही हैं जो एक से एक प्रकार के अद्भुत अवतरण पीढ़ियों में करते हैं। जो विशेषताएँ निकटवर्ती पूर्वजों में नहीं थीं, उन्हें वंशानुक्रम विज्ञानी सैकड़ों पीढ़ी पुरानी वंश परम्परा में छिपे हुए किन्हीं सूत्रों का अनुमान लगाते हैं, पर यह भूल जाते हैं कि हारमोन की निकटवर्ती उत्तेजना में कितना कुछ भरा पड़ा है और उसके आधार पर पीढ़ियों में कैसे अद्भुत परिवर्तन हो सकते हैं?

शिकागो विश्वविद्यालय के एन्क्रोपालोजी विभाग के प्रोफेसर डोरसेप ने तिल्ली के द्वारा होने वाले स्रावों को पाचन-तन्त्र का अति महत्वपूर्ण आधार माना है। वे आमाशय और आँतों की सुव्यवस्था से लेकर गड़बड़ी तक का तिल्ली के स्रावों को महत्व देते हैं। साथ ही यह भी कहते हैं कि भोजन सम्बन्धी रुचि एवं तृप्ति की प्रवृत्ति का भी उन्हीं रसों से सम्बन्ध है।

शरीर-शास्त्री इन जादुई-ग्रन्थियों के स्वरूप, क्रियाकलाप एवं आधार को समझने में दत्तचित्त से संलग्न है। जो मोटी जानकारियाँ उनके सम्बन्ध में अभी तक मिली हैं , उसका निष्कर्ष प्रायः सर्व विदित हो चला है।

अन्तःस्रावी (इण्डोक्राइन) ग्रन्थियों में सात मुख्य हैं। (1) पिट्यूटरी तथा (2) मिनियल शिर में (3) पैराथराइडस (4) थाइराइड तथा (5) थाइमस गले में (6) स्पिलीन तथा (7) एड्रिनल उदर में। इनके अतिरिक्त पेनक्रियस (पचन) तथा गौनड (जनन) ग्रन्थियों को भी इसी शृंखला में सम्मिलित किया जा सकता है।

पिन की नोंक की बराबर पीनियल ग्रन्थि मानसिक तथा आध्यात्मिक विकास से सम्बन्धित है। सुविस्तृत स्थूल तथा सूक्ष्म जगत की विभिन्न हलचलों के साथ इसी केन्द्र के माध्यम से संपर्क साधा जा सकता है। मानवेत्तर सूक्ष्म प्राणियों से प्रेतात्मा तथा देवदूतों के साथ सम्बन्ध बनाने का केन्द्र यही है। बहिरंग और अन्तरंग जीवन के बीच की कड़ी यही है। तृतीय नेत्र इसी को कहा जाता है। ईश्वरीय-प्रकाश को उत्पन्न करने तथा ग्रहण करने का कार्य यहीं से होता है।

पिट्यूटरी ग्रन्थि नाक की जड़ के पीछे अवस्थित है। बुद्धि की तीव्रता, प्रेम-सम्बन्ध उत्साह, आत्म-नियंत्रण उसका मुख्य कार्य ह। बौनेपन या लम्बाई की बढ़ोत्तरी से इसी की विकृति का सम्बन्ध है। पुरुषत्व और नारीतत्त्व का दिशा परिवर्तन यही से होता है। यौवन के उतार-चढ़ाव तथा प्रजनन सम्बन्धी गतिविधियों का संपर्क इसी केन्द्र से है।

थाइराइड गले में स्थित है। मस्तिष्कीय सन्तुलन एवं स्वभाव-निमार्ण में इसका बहुत हाथ होता है। भावना तथा व्यक्तित्व का विकास बहुत कुछ इसी पर निर्भर है। आलस्य तथा उत्साह के लिए यही केन्द्र उत्तरदायी है। यहाँ थोड़ी भी उत्तेजना बढ़ जाने से व्यक्ति अधीर, अशान्त, उत्तेजित, बकवादी हो जाता है। आपे से बाहर होने में उसे देर नहीं लगती। प्रतिभाशाली और विकासोन्मुख व्यक्तियों को वैसा अवसर थाइराइड की सुव्यवस्था से ही प्रदान किया होता है।

गेहूँ के दाने की बराबर पैराथराइडस का स्नायु-संस्थान से निकट सम्बन्ध है। इसमें अवांछनीय से जूझने का साहस भरा रहता है। टूटी हुई कोशिकाओं का पुनर्निर्माण स्नायु-तन्त्रों का गठन, स्फूर्ति , रोग-निरोधक क्षमता का भण्डार इसी केन्द्र में भरा है।

थाइमस वक्षस्थल के ऊपरी भाग में होती है। गर्भस्थ स्थिति में विकास करने की क्षमता इसी में भरी ही। यदि यह ग्रन्थि अविकसित रहे तो भ्रूण-स्वस्थ माता से भी उचित पोषण प्राप्त न कर सकेगा। जन्म से लेकर किशोरावस्था और यौवन के द्वार तक ठीक तरह पहुँचा देने की जिम्मेदारी भी उसी को संभालनी पड़ती है। संक्षिप्त में इसे विकास ग्रन्थि कह सकते हैं।

प्रकृति के प्रतिपक्ष में अवस्थित स्पिलीन (तिल्ली) ग्रन्थि शृंखला में सबसे बड़ी है। पाचन-संस्थान की बलिष्ठता और रक्त की शुद्धि का बहुत कुछ आधार इसी पर निर्भर रहता है। स्नायु-संस्थान का गतिविधियों में इसका बड़ा हाथ रहता है। सूक्ष्म शरीर को व्यवस्थितिः सूर्य-चक्र से इस ग्रन्थि का विशेष सम्बन्ध रहता है। तदनुसार अन्तर्ग्रही प्रभावों को शरीर एवं मस्तिष्क तक पहुँचाने में इस केन्द्र की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है।

गुर्दों के ठीक ऊपर एड्रीनल ग्रन्थिका दूसरा नाम- सुप्ररिनल भी है। यह एक बड़े सम-बीज के आकार की होती है। पुरुषत्व और नारीतत्त्व की कितनी ही विशेषताएँ यही से विकसित होती है। इस केन्द्र को दूसरा मस्तिष्क कह सकते हैं। आपत्ति के समय प्रेरणा में इसकी भूमिका देखते ही बनती है। वीरता और कायरता मानो उसी उद्गम की उपज हो। लिंग-परिवर्तन की जो घटनाएँ घटित होती रहती हैं, उसमें इसी ग्रन्थि के स्रावों की उल्टी-पुल्टी करतूतें झाँकती रहती हैं।

गोनडस् (जनन ग्रन्थियाँ) जननेन्द्रिय की हलचलों की क्षमता को तथा प्रजनन शक्ति को नियन्त्रित करती है। पुरुष-यौवन और नारी यौवन का-विशेषतया प्रजनन सम्बन्धी यौवन का इसी ग्रन्थि से सम्बन्ध रहता है। वृद्धावस्था में आमतौर से शरीर बहुत शिथिल हो जाता है और इन्द्रियाँ जबाब दे जाती हैं। फिर भी कई बार यह आश्चर्य देखा गया है कि शताधिक आयु वाले व्यक्ति भी नवयुवकों की तरह प्रजनन-क्रिया सफलता पूर्वक सम्पन्न करते रहते हैं। यह गोनडस ग्रन्थियों के सशक्त बने रहने का ही परिणाम है।

अभी तक अन्तःस्रावी ग्रन्थियों सम्बन्धी खोज प्रारम्भिक अवस्था में है और उनसे निकलने वाले हारमोन स्रावों के बारे में स्वल्प जानकारी ही प्राप्त हो सकी है। फिर भी जो समझा और पाया गया है, उसे देखते हुए शरीर विज्ञानी आश्चर्य-चकित हैं कि शरीर और मन पर वास्तविक नियन्त्रण करने वाले यह महत्त्वहीन लगने वाले स्राव वस्तुतः कितने अधिक महत्वपूर्ण हैं। मस्तिष्क, हृदय, रीढ़, गुर्दे, आमाशय और आँतों आदि अंगों को शारीरिक स्वास्थ्य को अक्षुण्ण रखने वाले अंक समझे जाते हैं और बीमारियों का कारण भी इन्हीं में कहीं कोई गड़बड़ी के रूप में खोजा जाता है। रक्त-परीक्षा द्वारा यह जाना जाता है कि रोगी के शरीर में किन विषाणुओं ने प्रवेश किया है। मल, मूत्र, थूक आदि की परीक्षा करके भी आन्तरिक स्थिति का पता लगाया जाता है और पाई गई विकृतियों का शमन किया जाता है। पर जब से हारमोन स्रावों के सम्बन्ध में गहराई से जानकारी मिली है, तब से समझा जा रहा है कि हृदय, गुर्दे आदि तो डाली-टहनी मात्र हैं, शरीर -वृक्ष को जड़े तो अन्तःस्रावी ग्रन्थियों में गहराई तक घुसी बैठी है।

गरीब आदमी-जिन्हें चिकनाई की मात्रा अन्यत्र स्वल्प मिलती है, अत्यन्त मोटे हो सकते हैं और चिकनाई, आलू, चावल आदि का प्रयोग बिलकुल छोड़ देने पर भी मोटे ही होते चले जाते हैं। ऐसी दशा में प्रतीत होता है कि खुराक से नहीं, शरीर की स्थूलता और दुर्बलता का किसी दूसरी क्षमता से सम्बन्ध है। यह बात अल्प अवयवों के सम्बन्ध में है। यहाँ तक कि मस्तिष्कीय संरचना के सही होने पर भी सोचने की क्षमता उद्धत एवं अवास्तविकता ग्राही हो सकती है। ऐसी दशा में मस्तिष्क आदि का स्थानीय इलाज करने से भी कुछ बनता-बिगड़ता नहीं, क्योंकि वे अवयव भी पराधीन होते हैं। अन्तःस्रावी ग्रन्थियों द्वारा इन अंकों को कठपुतली की तरह नचाया जाता है।

औषधि-विज्ञान अभी भी तीर तुक्का ही बना हुआ है। छोटी-छोटी बीमारियों से ग्रसित व्यक्ति एक के बाद दूसरे डाक्टर का दरवाजा जीवन भर खटखटाते रहते हैं ओर उस मर्ज के लिए निर्धारित औषधियों में से प्रायः सभी का उपयोग कर चुके होते हैं, पर उस कुचक्र में धन और समय गँवाते रहने के बाद भी कुछ हाथ नहीं लगता। यही स्थिति अधिकाँश रोगियों की होती है। वे विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों का भी आश्रय लेते रहते हैं, एलोपैथी, होम्योपैथी, आयुर्वेद, यूनानी, नैचरोपैथी आदि ढेरों तरह की चिकित्सा पद्धतियाँ प्रचलित हैं, वे अपने विज्ञान की महत्ता जोर-शोर से करती हैं, पर देखा गया है कि उनमें से किसी के भी दावे में बहुत ज्यादा दम नहीं है। रोगी प्रायः यहाँ-वहाँ भटकते-भटकते जहाँ के तहाँ ही बने रहते हैं। कोई अच्छे हो जाएँ तो उनकी अन्तःशक्ति की अविज्ञात हलचलों को ही श्रेय देने की बात उचित जँचती है।

शरीर की सुदृढ़ता, सुन्दरता, स्फूर्ति, इन्द्रिय-क्षमता से लेकर रोग निरोधक शक्ति तक के भले बुरे पक्ष अब संबद्ध अवयवों की स्थिति पर निर्भर नहीं माने जाते, वरन् यह समझा जाता है कि हारमोन तत्वों का बहुत बड़ा हाथ उस भली-बुरी स्थिति को उत्पन्न कर रहा है। यही बात मानसिक स्थिति के बारे में भी है। मन्द बुद्धि, तीव्र-बुद्धि दूरदर्शी, अदूरदर्शी मस्तिष्कीय-स्थिति मनुष्य के बहुत प्रयत्न करने पर भी जब बनती-बदलती नहीं तो प्रायः यही अनुमान लगाया जाता है कि न केवल शरीर की वरन् मन की स्थिति के सम्बन्ध में भी मनुष्य की प्रयत्न चेष्टा बहुत ही सीमित परिणाम उपस्थित कर पाती है।

शरीर और मन की स्थिति से एक कदम और आगे बढ़कर स्वभाव और चरित्र की बात आती है। इसे भावना एवं निष्ठा क्षेत्र कह सकते हैं-आध्यात्मिक स्तर भी। अन्तःकरण के भले बुरे अथवा सीधे-उल्टे होना का भी बहुत कुछ सम्बन्ध इन अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के साथ पाया गया है। ऐसी दशा में यह भी सोचना होगा कि क्या स्वाध्याय सत्संग जैसे स्थूल आधारों के सहारे व्यक्तित्व का स्तर बदल सकना सम्भव भी है, अथवा नहीं। चरित्र निमार्ण एवं भावना-स्तर के विकास में अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ ही यदि सहायक-बाधक हैं तो फिर उस क्षेत्र में हो रहे प्रयत्नों पर नये सिरे से विचार करना होगा और व्यक्तित्व की गहराई तक पहुँचने के लिए चालू प्रयत्नों से आगे बढ़कर कुछ नये आधार ढूँढ़ने होंगे।

प्राणियों के हारमोन इंजेक्शन द्वारा रोगी शरीरों में पहुँचाने के प्रयत्न भी चले हैं और एक की ग्रन्थि दूसरे में फिट करने का प्रयास भी किया गया है, पर उससे भी कुछ काम नहीं चला है और उस दिशा में चल रहा अत्युत्साह अब शिथिल हो चला है।

अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के रहस्य और मर्म पर से पर्दा उठाने के लिए हमें षट्-चक्र-विज्ञान को समझना होगा। अदृश्य अन्तरिक्ष भरी विपुल और विभिन्न शक्तियों के साथ मानवी-सत्ता का संबंध वे षट्-चक्र ही बनाते हैं। उन्हीं के प्रभाव को वे अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ ग्रहण करती हैं और अपनी गतिविधियाँ अपनाती हैं।

कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया में षट्चक्र बेधन का विधान है। उसे स्थूल-विज्ञान के आधार पर समझना हो तो अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के साथ उनका सम्बन्ध जोड़ सकते हैं और सिद्ध कर सकते हैं कि अध्यात्मिक साधनाएँ मानवी-व्यक्तित्व के साथ जुड़े रहने वाले अनेक उतार-चढ़ावों को सन्तुलित करने में तथा प्रगति के अवरुद्ध पथ को प्रशस्त करने में महत्वपूर्ण सहायता कर सकती है। षट्चक्रों के विकास परिष्कार के साथ अन्तःस्रावी ग्रन्थियों का सन्तुलन और नियन्त्रण भी किस प्रकार सम्भव हो सकता है? इस गुत्थी को सुलझाने के लिए योग-साधना के अंतर्गत चक्र-विज्ञान में गहराई तक उतरने की आवश्यकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118