अगली शताब्दी का भविष्य कथन

December 1973

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अपने युग की दो ऐसी महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं, जो भूतकाल में कभी भी इस तरह नहीं आईं। इनमें एक है, जनसंख्या की वृद्धि, दूसरी है-वैज्ञानिक प्रगति। इन दोनों में प्रतिक्रियाएँ भी वैसी ही प्रचण्ड होती हैं, जैसी कि वे स्वयं हैं।

भूतकाल में सुविस्तृत भूतल के अनुपात से मनुष्यों की जनसंख्या नगण्य थी। प्रकृति से जूझने के उतने समर्थ साधन हाथ में न होने से मृत्यु संख्या भी अधिक थी। दुर्भिक्षों, महामारियों तथा अन्य प्रकृति-प्रकोपों से असंख्य मनुष्य मरते थे। वासनात्मक प्रवृत्तियाँ उग्र न होने से सन्तान भी सीमित ही होती थीं। विधुर और विधवाएँ निवृत्त-जीवन जीते थे। अब किशोरावस्था आने से पूर्व ही मस्तिष्क गृहस्थ धर्म का उपभोग करने के लिए प्रशिक्षित हो जाता है। वासना भड़काने वाली फिल्में, पुस्तकें तथा तस्वीरें बे-हिसाब बढ़ रही हैं। कानाफूसी में प्रायः वहीं चर्चाएँ रहती हैं। जो देखा सुना जाता है, उसमें भावुकता भड़काने वाली प्रेरणाओं की भरमार होती है। इन परिस्थितियों में प्रजनन का अनुपात बढ़ना स्वाभाविक है। दूसरी ओर विज्ञान की प्रगति ने ऐसी व्यवस्था बना दी है कि भूखों मरने अथवा प्रकृति-प्रकोप से दम तोड़ने की संभावनाएं कम ही रह गई हैं। बीमारियाँ सताती बहुत हैं, पर उनने भी मारने का उत्साह ढीला कर दिया है। दूसरी ओर बढ़ी हुई जनसंख्या द्वारा नई पीढ़ियों का उत्पादन चक्रवृद्धि दर से हो रहा है। एक के 3, 3 के 9, 9 के 27, 27 के 81, 81 के 243, 243 के 729, 729 के 2187, 2187 के 6561।

एक व्यक्ति की तीन सन्तानें होती चलें तो सातवीं पीढ़ी पर 6561 बच्चे हो जायेंगे। यही क्रम आगे भी बढ़ता रहा तो संख्या न जाने कहाँ से कहाँ पहुँचेगी? इस क्रम में कुछ रोक-थाम भी होती है, पर बढ़ोत्तरी का अनुपात इतना तीव्र है कि निकट भविष्य में मनुष्यों के निवास, आहार के लिये जमीन खाली न बचेगी। पानी की कमी पड़ेगी और शिक्षा, व्यवसाय, यातायात आदि के लिए जगह न रहेगी। ऐसी दशा में स्वभावतः वर्तमान धरती के अपर्याप्त होने पर नये स्थान तैयार करने होंगे।

विज्ञान की प्रगति ने सुख-सुविधाओं की वृद्धि की है। आगे यह उत्साह और भी तीव्र होगा और नये-नये सुविधा साधन सामने आयेंगे। उनका उपयोग-उपभोग न किया जाय, यह भी नहीं हो सकता। इसलिये यन्त्रों द्वारा श्रम करने से मनुष्य को खाली-ठाली रहना पड़ेगा और अधिक सुविधा-साधनों का सहज उपलब्ध लाभ लेना होगा।

इन समस्याओं का हल खोजने के लिए संसार के मूर्धन्य मस्तिष्क चिन्तित हैं। कई उपाय सोचते हैं, पर इन समस्याओं पर काबू पाने का कोई कारगर उपाय हाथ लग नहीं रहा है। हाँ, इतना अवश्य स्पष्ट होता जाता है कि आत्यन्तिक परिणाम जो भी हो, अन्तिम उपाय जो भी निकले, फिलहाल अगली शताब्दियों का कम से कम तात्कालिक हल तो निकालना ही पड़ेगा, जिसमें महाविनाश को जितनी दूर तक टाला जा सके उतनी दूर उसे धकेल दिया जाय।

जनसंख्या वृद्धि और वैज्ञानिक प्रगति के वर्तमान उत्साह पर अधिक नियन्त्रण अगले दिनों न हो सकेगा। हाँ, इतना प्रयत्न अवश्य किया जाएगा कि कम से कम सौ वर्ष तक मानव जाति को जीवित रहने के लिए मार्ग निकाल लिया जाय। इसके लिए अभी से प्रयास चल पड़े हैं और सन् 2000 से 2100 तक की अवधि में जो किया जाना है, जो होना है, जो बनना है-आज उसकी रूपरेखा सबके सामने स्पष्ट रहे और उसे पूरा करने के लिए आवश्यक प्रयास समय रहते आरम्भ कर दिये जायें।

अर्थ-शास्त्री आर्थर सी. क्लार्क और प्रो. वक्र मिस्टर फुलर ने अगली शताब्दी के लिए जो विश्व योजना बनाई है, उसमें जनसंख्या वृद्धि को प्रथम स्थान दिया गया है और उसके अनुरूप साधनों की उपलब्धि में वर्तमान तथा भावी वैज्ञानिक उपलब्धियों को पूरी तरह नियोजित करने का कार्यक्रम बनाया है। उनके कथनानुसार अगली शताब्दी में माँस का उत्पादन बन्द हो जाएगा, क्योंकि वह बहुत महंगा पड़ेगा। एक पौंड माँस तैयार करने में प्रायः 20 पौंड चारा खर्च होता है। इतनी वनस्पति खर्च करके इतना कम माँस उत्पन्न करना सरासर घाटे का सौदा है। इसके लिए उपजाऊ जमीन की इतनी शक्ति बर्बाद नहीं की जा सकती। जो चारा, भूसा, इमारती लकड़ी अथवा कागज, गत्ता जैसी चीजें बनाने के लिए काम आकर जरूरी आवश्यकताओं को पूरी करेगी, उन्हें जानवरों को खिलाना और फिर माँस उत्पन्न करना सरासर फिजूल खर्ची है। गिनी-चुनी बहुत दूध देने वाली गायों के लिए जगह और खुराक बचाई जा सके-यही क्या कम है? यह भी तब हो सकेगा, जब मनुष्यों को स्थान तथा खुराक सम्बन्धी कटौती के लिए तैयार किया जा सके। दूध-दही तो सोयाबीन जैसी वनस्पतियाँ आसानी से बना दिया करेंगी। घी तो तेल की ही एक किस्म है। चिकनाई की जरूरत तेल से पूरी हो ही सकती है, फिर घी की क्या जरूरत? तेल में प्रोटीन तथा बैक्टीरिया मिलाकर कृत्रिम माँस आसानी से तैयार हो सकता है, फिर पशु-माँस के जंजाल में उलझने की लम्बी और महँगी प्रक्रिया अपनाने की कोई आवश्यकता ही न रहेगी। फ्राँस में कृत्रिम माँस बनाने में अभी भी सफलता प्राप्त कर ली गई है, आगे तो वह विधि और भी सरल तथा समुन्नत हो जायगी।

सड़कें बहुत जमीन घेरती हैं और वे जहाँ भी पक्की हो जाती है, जमीन की उर्वरा शक्ति नष्ट कर देती हैं। इन दिनों सड़कों ने जितनी जमीन घेर रखी है और भविष्य में घेरने जा रही हैं, उस भूमि-विनाश पर गम्भीरता से विचार करना होगा। सड़कें या तो जमीन के नीचे चलेंगी या फिर सस्ते वायुयान यातायात तथा परिवहन की आवश्यकता पूरी करेंगे। सड़कों से घिरी जमीन पर पौष्टिक किस्म की बड़ी फसलें देने वाली और साल में जल्दी जल्दी कई बार कटने वाली घास लगाई जायेंगी। वनस्पति को पूरा ही आहार प्रयोजन के लिए काम में लाना पड़ेगा। तभी आदमी का पेट भरेगा। इन दिनों अन्न खाने की जो आदत है, वह उस समय छोड़नी ही पड़ेगी। अनाज के पौधे का आकार विस्तार जितना होता है, उसकी तुलना में बीज का अनुपात बहुत थोड़ा होता है, फसलों का अधिकाँश भाग भूसे के रूप में चला जाता है। अभी तो भूसे चारे को पशु भी खा लेते हैं, आगे पशु रहेंगे ही नहीं तो चारे की उपयोगिता भी नहीं रहेगी। ऐसी दशा में पूरी घास खाने की आदत डालनी पड़ेगी। आखिर अन्य शाकाहारी प्राणी भी तो घास खाकर ही रहते हैं, फिर मनुष्य को ही इसमें क्या ऐतराज होना चाहिए? घास में प्रोटीन तथा दूसरे जीवनोपयोगी तत्व पर्याप्त मात्रा में मौजूद हैं। घास का चूरा आटे का काम दे सकता है। जरूरत के अनुसार उसमें दूसरी चीजें भी मिलाई जा सकती है, पर आटा बनेगा घास का ही। अनाज का प्रचलन भी अगले दिनों पशु माँस की तरह ही बहिष्कृत करना पड़ेगा। नकली दूध, नकली दही, नकली घी नकली माँस जब सभी खाद्य पदार्थ कृत्रिम बनने लगेंगे तो अनाज का आटा खाने के लिए ही कोई क्यों आग्रह करेगा? कुछ दिन में लोग घास का आटा खाने के लिए तैयार हो ही जायेंगे। न होंगे तो वैसा मजबूरी करा लेगी।

मनुष्यों को स्वच्छ साँस मिलती रहे, इसके लिए वृक्ष आवश्यक हैं। 25 वर्ग फुट जमीन में एक आदमी को साँस ले सकने के उपयुक्त वायु मिलती है। इसलिए खुली जगह में वृक्ष उद्यानों का प्रबन्ध अधिक करना पड़ेगा। तब सड़कों का ही सफाया नहीं करना पड़ेगा। मकान भी कई कई मंजिलों ऊँचे बना करेंगे। एक मंजिल मकान कहीं दिखाई नहीं पड़ेंगे। निवास-आवास में घिरने वाली जमीन तो बचानी ही पड़ेगी। वनस्पति उगाने के लिए यह आवश्यक होगा कि मकानों में उसे अधिक न घेरा जया। यह समस्या अनेक मंजिल ऊँचे मकान बनने के प्रचलन से ही सम्भव हो सकेगी।

घास के आहार को अधिक पौष्टिक बनाने के लिए उसमें प्रोटीन के नये स्रोत सम्मिलित करने पड़ेंगे। एक कोशीय यिस्ट-जीवाणु (बैक्टीरिया) कबक (फफूट) शैवाल, इनमें प्रमुख होंगे। प्रचलित तेल-प्रधान वनस्पतियों में मूँगफली, सोयाबीन, नारियल और बिनौले का सम्मिश्रण खाद्य पदार्थों में मिला दिया जाय तो घास का आटा प्रचलित गेहूं के आटे से कहीं अधिक पौष्टिक और स्वादिष्ट बन जायेगा। गेहूं में 10-12 प्रतिशत, चावल में 8-9 प्रतिशत और माँस-मछली में 20-22 प्रतिशत प्रोटीन होता है। इस दकियानूसी आहार को हटाकर प्रोटीन के नये स्रोतों का उपयोग करने से सहज ही कहीं अधिक पौष्टिकता मिल जायगी। यिस्ट में 55 प्रतिशत, बैक्टीरिया में 80 प्रतिशत, फफूँद में 40 प्रतिशत और शैवाल में 25 प्रतिशत प्रोटीन होता है। ऐसी दशा में उनका उपयोग करने से समस्या का बहुत समाधान निकलेगा।

पेट्रोलियम के कारखानों से उप-उत्पादन के रूप में मिलने वाले सूक्ष्म जीवाणुओं से अच्छा प्रोटीन विनिर्मित करने में फ्राँसीसी विज्ञानी चेम्पेटन ने आशाजनक सफलता प्राप्त की है। एक कोशीय प्रोटीन माँस उत्पादन पर आने वाली लागत की तुलना में ढाई हजार गुना सस्ता पड़ता है और कम समय लेता है, ऐसी दशा में उसका आश्रय मनुष्य को लेना ही पड़ेगा। समुद्री वनस्पति क्लोरिला का जापान में खाद्य पदार्थ के रूप में उपयोग करने का प्रचलन है। इंग्लैण्ड घास से प्रोटीन बनाने में लगा हुआ है। सोयाबीन का दूध गो दुग्ध की आवश्यकता पूरी कर सकेगा, यह विश्वास खाद्य-शोधकों में अभिनव-आशा का संचार कर रहा है। एक किलो सोयाबीन में 10 लीटर दूध बनाने की सम्भावना में सस्तेपन का आकर्षण भी बहुत है। गणों में तो उसे समान ही बताया जा रहा है।

भोजन पकाने की प्रणाली में भारी हेर-फेर करना पड़ेगा। कच्चा राशन रखने, पकाने के लिए चौका-चूल्हा बनाने, पकी हुई वस्तुओं को सुरक्षित रखने के लिए जितने स्थान की अब जरूरत पड़ती है, भविष्य में उतनी जगह की बरबादी नहीं की जा सकेगी। अन्न, शाक आदि को उत्पन्न होते ही बड़े कारखानों में तैयार भोजन के रूप में तैयार किया जाएगा और उस सूखे सार-तत्व को पैकेट में बंद कर दिया जाएगा। चूँकि भोजन में 90 प्रतिशत पानी होता है, इसलिए सूखे सार-भोजन में आवश्यकतानुसार पानी मिलाकर अँगीठी पर गर्म कर लिया जाया करेगा। बस दस मिनट में भोजन तैयार है। इससे स्थान की ही नहीं, बनाने-पकाने के समय की भी बचत होगी।

पहाड़ समतल बनाने पड़ेंगे। पथरीली जमीन जो कृषि योग्य नहीं बन सकेगी, वह निवास और कल कारखानों के काम में ली जायगी, शहर-गाँव उसी पर बसेंगे। पहाड़ों का चूरा करके इमारती ईंट-पत्थर सीमेंट आदि बनेगा, ताकि इन कार्यों में उपजाऊ जमीन का एक चप्पा भी बर्बाद न किया जाय। लकड़ी की जगह प्लास्टिक अथवा कृत्रिम-धातुओं का उपयोग करके मकानों की आवश्यकता पूरी की जायगी।

अमेरिका के विज्ञान-लेखक आइजक्र आसिमोव ने आँकड़ों सहित बताया है कि बढ़ती हुई आबादी के कारण अगले बीस वर्षों में जो संकट उत्पन्न होंगे उनमें जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं में कमी पड़ने का संकट मुख्य है। वायु, जल और आहार यह तीनों ही वस्तुएं ऐसी हैं, जिनके आधार पर मनुष्य जीवित रहता है। बढ़ती हुई आबादी के लिए अगले दिनों यह तीनों ही न तो शुद्ध मिलेंगी और न पर्याप्त मात्रा में।

मनुष्य की आवश्यकताएँ और विलासी-प्रवृत्तियाँ जिस तेजी से बढ़ रही हैं , उसकी पूर्ति कल -कारखाने ही कर सकते हैं। कारखाने-धुँआ धूलि और शोर फैलाते हैं, तथा उनके प्रयुक्त होने वाले विषैले रासायनिक पदार्थ बहकर जलाशयों में जाते हैं। इससे जल और वायु दोनों ही विषैले होते चले जाते हैं बड़े शहरों के ऊपर धुँआ इतनी मात्रा में छाया रहता है कि वहाँ के निवासी धीरे धीर दम घुटने जैसे संकटों में ग्रसित होते चले जा रहे हैं। इस कठिनाई को हल करने के लिए सम्भवतः अणु-विद्युत काम में लानी पड़े और वर्तमान धुँआ देने वाले कारखानों में प्रयुक्त होने वाली मशीनें रद्द करनी पड़ें। तब कोयला जलाकर कारखाने चलाने पर प्रतिबन्ध लगेगा। डीज़ल और पैट्रोल से चलने वाली अन्य मशीनें भी रोकथाम की परिधि में आ जायेंगी। तब मोटरों में शक्तिशाली बैटरियाँ काम करेंगी। पैट्रोल पर भी प्रतिबन्ध लग जाएगा।

देहात सिमट कर जिस तेजी से शहरों के पेट में घुसती जा रही हैं, उसे देखते हुए यह स्पष्ट है कि भविष्य में बड़े शहरों की संख्या तेजी से बढ़ेगी। उनके लिए पानी का प्रबन्ध करना कठिन हो जाएगा। मौसम में वैज्ञानिक प्रगति ने जो परिवर्तन किया हैं, उन्हें देखते हुए वर्षा घटने की पूरी आशंका है। पानी जितना बरसेगा उससे न तो धरती की प्यास बुझेगी और न आदमियों की। ऐसी दशा में समुद्र का आश्रय लेना पड़ेगा। अणु शक्ति के दैत्याकार बिजली-धर समुद्र का पानी शुद्ध करेंगे और उसे सिंचाई तथा पीने-धोने की आवश्यकता पूरी करने के लिए उपलब्ध करेंगे। पर तब पानी इतना महंगा हो जाएगा कि उसे वैसी ही सावधानी के साथ खर्च करना पड़ेगा, जैसे कि आजकल दूध या तेल का खर्च करते हैं। एक सीमित कोटे से ही जल हर किसी को मिला करेगा। तब पानी का खर्च बहुत सोच-समझकर ही करना पड़ा करेगा।

निवास के लिए तब भूगर्भ का सहारा लेना पड़ेगा। चूहे, छछूँदर, साँप जिस तरह बिलों में रहते हैं, सन्त योगी गुफाओं में रहते हैं, तब वहीं रीति मानवी-निवास के लिए फिट पड़ेगी। जमीन की ऊपरी परत अनाज, घास, वृक्ष आदि लगाने के लिए सुरक्षित रखी जायगी। शुद्ध हवा पाने के लिए खुली जगह का होना और उससे वृक्ष वनस्पतियों का उगना जरूरी है। मनुष्य का मूल आहार वनस्पति ही है, उसे उगाने के लिए जमीन चाहिए। बढ़ी हुई आबादी के लिए शुद्ध हवा और आहार की पूर्ति के लिए जगह खाली करनी पड़ेगी। अब भी निवास तथा कारखानों, स्कूलों, बाजारों सड़कों कब्रिस्तानों ने जो जगह घर रखी है, उसे उनके कब्जे से छुड़ाकर पाताल लोक को भिजवाना पड़ेगा। जमीन खोद कर सुरंग-शहर बसाने पड़ेंगे, निवास के लिए जमीन की निचली परत काम में लानी पड़ेगी। अभी भी लोग समुद्र के भीतर पनडुब्बियों में रहते हैं। ऐयर-कण्डीशन मकानों की स्थिति भी लगभग ऐसी ही होती है। उनमें कृत्रिम-प्रकाश कृत्रिम हवा से ही काम चलता है। इसका अभ्यास करने पर सारी मनुष्य जाति को भूतल-निवास की आदत पड़ जायगी। आदिम-काल में प्रायः सभी जीव खुले-मैदानों में रहते थे। पीछे परिस्थिति वश उन्होंने बिल माँद और गुफाओं में बनाने तथा उनमें रहने का अभ्यास किया था। परिस्थितियाँ मजबूर करेंगी तो मनुष्य को भी जमीन के नीचे रहना पड़ेगा। शायद समुद्र में या जलाशयों में तैरती बस्तियाँ बड़े जलयानों के रूप में उतारनी पड़ें। आकाश का उपयोग उतना ही हो सकता है कि सौ फुट ऊँचे मकान बनाकर उन पर बस्तियाँ बसाई जाएँ और उनके नीचे पेड़ पौधे उगते बढ़ते रहें।

पर्वतों को धकेल कर उनकी जमीन तो निश्चित रूप से छीननी पड़ेगी। भूगर्भ में बसी बस्तियों का संपर्क बनाये रहने वाले भूतल के मकान उसी पथरीली जमीन पर उपलब्ध पाषाण-चूर्ण से ही बनेंगे। एक सम्भावना यह भी है कि दक्षिणी ध्रुव पर जमी बर्फ को अणुशक्ति से पिघला कर उस क्षेत्र को मनुष्यों के रहने योग्य बनाया जाय। ध्रुवों की जमीन छीनने के लिए जो छेड़खानी करनी पड़ेगी, उसमें खतरा बहुत है। उन प्रदेशों में जमी बर्फ पिघलने लगी तो समुद्र की सतह ऊँची उठ जायगी और तटवर्ती इलाके पानी में डूब जाएँगे। फिर भी यह खतरा उठाना पड़ेगा, क्योंकि बम्बई जैसे शहरों के समुद्र में डूब जाने पर भी ध्रुवों से बहुत जमीन प्राप्त होगी और समुद्र की बाढ़ से उत्पन्न खतरा उठाकर भी मनुष्य जाति बर्फ में ही रहेगी।

वाहनों में उड़न-खटोले ही स्थायित्व प्राप्त करेंगे। हवा में उड़ने वाली मोटरें वर्तमान हैलिकाप्टरों का ही सुधरा हुआ रूप होगा। वे मकानों की ऊपरी छतों पर रखी जाया करेंगी और वहीं से उनके उड़ने-उतरने का भी प्रबन्ध होगा।

पशु थलचर है। थल तो मनुष्यों के लिए भी कम पड़ेगा। ऐसी दशा में उन्हें वाहन के अथवा श्रमिक के रूप में प्रयुक्त न किया जा सकेगा। दूध और माँस के लिए भी उन्हें पालना सम्भव न होगा, ऐसी दशा में शाकाहारी पशु तो न घरों में पलेंगे और न जंगलों में रहेंगे। माँस न मिलने पर सिंह आदि हिंसक जानवर भी न रहेंगे। माँस का प्रचलन बन्द हो जाएगा। हाँ, जलचर माँस के लिए प्रयुक्त होते रहेंगे। मछली अगली शताब्दी में भी मनुष्य का आहार बनी रहेगी, उसकी सस्ती, जल्दी बढ़ने वाली और स्वादिष्ट नस्लों की फसल तैयार की जायेगी और माँस उत्पादन में समुद्रों से, नदी-सरोवरों से योगदान मिलेगा। बंगाल की तरह घरेलू तालाब बढ़ेंगे और उनमें मत्स्य पालन अब की उपेक्षा कहीं अधिक होने लगेगा। इतना ही नहीं, समुद्र की सतह से लेकर तली तक में कई किस्म की घास उगाई जाएँगी और अत्यन्त छोटे जीवों की कृषि की जायेगी। जमीन पर उगी वनस्पति के अतिरिक्त खुराक की आधी आवश्यकता जलाशयों से पूरी की जायगी।

शिक्षा प्राप्त करने के लिए बच्चों को स्कूलों में नहीं जाना पड़ेगा। घर ही से स्कूल-कालेज की आवश्यकता पूरी हो सकेगी। रेडियो और टेलीविजन के सहारे हर कक्षा के उपयुक्त पाठ्यक्रम प्रसारित किये जाते रहेंगे और उन्हीं के सहारे सब कुछ सीखते रहना सम्भव हो सकेगा। शिल्प, यन्त्र, सर्जरी जैसे प्रत्यक्ष अनुभव वाले हाथ से करके सीखने वाले विषय ही स्कूलों में रहेंगे।

हर घर में बच्चे पालना और चूल्हा-चौका रोपना यह बहुत ही कष्ट साध्य और गन्दगी वाला और घरों की सुविधा व्यवस्था बिगाड़ने वाला कम माना जाएगा। अस्तु बच्चे राष्ट्र की सम्पत्ति होंगे। सरकारें उन्हें पालेंगी। पका हुआ सारतत्त्व वाला सखा आहार पैकेट में बन्द मिलेगा और खाते वक्त आवश्यकतानुसार उसे पानी मिला-मिलाकर बिजली की अँगीठी पर गर्म भर कर लिया जाएगा। अब जो तरह-तरह के मिष्ठान पकवान देखने को मिलते हैं, वे तब अजायबघरों में ही देखने को मिलेंगे। तब सबको राष्ट्रीय-भोजन के निर्धारित स्तर को ही स्वीकार करना पड़ेगा। बच्चे भी उतने ही पैदा करने की छूट होगी, जितने कि सरकार निश्चित करेगी। मर्यादा तोड़ने का अवसर देने से पूर्व ही नर नारियों को बधिया बना दिया जाया करेगा।

कपड़े लोग पहनेंगे तो सही, पर वे सूत, रेशम या ऊन के न होंगे। जो जमीन आहार उगा सकती है, उसमें कपास उगाना सरासर मूर्खता का काम होगा। पशु रहेंगे ही नहीं तो ऊन कहाँ मिलेगी? ऐसी दशा में प्लास्टिक सरीखे रसायनों से जो कृत्रिम-धागा बनेगा, वस्त्र उसी से बना करेंगे। उनके उपयोग में धोने-सुखाने जैसे झंझट भी हल्के हो जायेंगे। आजकल भी टेरालीन, नाइलोन आदि के कपड़े बनते हैं। भविष्य में इसी जाति का कपड़ा उपलब्ध रह जाएगा।

भविष्य विचारक विज्ञानी डा. जनरेल्स का कथन है, भविष्य में बिजली की आवश्यकता सूर्य-किरणों से उपलब्ध होगी। अणुशक्ति से भी काम लिया जाएगा। इन दिनों सबसे बड़ी चिन्ता यह है कि अणु-भट्ठियों की राख को कहाँ डाला जाय? वह जहाँ भी डाली जायगी, वहीं सत्यानाश करेगी। इसके दो उपाय निकलेंगे। सस्ता उपाय यह है कि काँच के बने बड़े-बड़े ताबूतों में बन्द करके उसे गहरे और आबादी से दूर समुद्रों के बीचों बीच डुबोया जाय। महँगा उपाय यह है कि उसे किसी उपग्रह में राकेटों द्वारा फेंक दिया जाय, दोनों में से कोई न कोई उपाय कारगर सिद्ध हो ही जाएगा। क्योंकि अणुशक्ति से ही जब काम लेना रहा तो उसकी राख के लिए भी कोई न कोई रास्ता निकालना ही पड़ेगा।

अगली शताब्दी की अन्यान्य समस्यायें भी हैं। सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, भावनात्मक, पारिवारिक, धार्मिक, साँस्कृतिक अनेक प्रश्न ऐसे उभर कर आवेंगे, जिन्हें अत्यन्त तीक्ष्ण बुद्धि से सामने प्रस्तुत संकटों का तात्कालिक समाधान प्राप्त करने की दृष्टि से करना होगा। यहाँ तो चर्चा उन अहम् समस्याओं की हो रही है, जिन पर मनुष्य के जीवित रहने का दारोमदार है।

निस्सन्देह प्रगति के पथ पर चलते हुए हम ऐसे दल-दल में फँस गये है, जिसमें से निकलने के लिए हमें भौतिक प्रगति की तुलना में लाख गुनी प्रगतिशील बुद्धिमत्ता का परिचय देना होगा। अन्यथा प्रगति से उत्पन्न समस्याएँ ही हमें चबा डालेंगी और मानवी अस्तित्व के अन्त का संकट उत्पन्न करेंगी।


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