मौत जिंदगी की शुभचिंतक (kahani)

December 1973

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जिन्दगी उगते सूर्य की दिशा में अपने ढंग से चलती चली जा रही थी।

एक विराम पर उसने मुड़ कर पीछे की ओर देखा तो चौंक पड़ी। चाण्डाली-सी काली और कुरूप छाया पीछे-पीछे दबे पाँवों चली आ रही थी।

जिन्दगी चिल्लाई। अभागिन, तू कौन है? मेरे पीछे क्यों आती है? तेरी काली, कुरूप और भयानक आकृति देखकर मुझे तो भारी डर लगता है। जा, भाग, मुझसे दूर हट।

छाया चुप रही। पर जिन्दगी जब डरती, घिघियाती ही चली गई तो छाया ने अपना मुँह खोला और बोली-बहिन। मैं तो तेरी सहचरी हूँ, तेरे साथ ही चल रही हूँ और अन्त में हमें और तुम्हें एक ही होकर रहना है। मुझसे डरने की क्या बात? जानती नहीं, मेरा नाम क्या है? अच्छा तो सुनो-मुझे मौत कहते हैं।

जिन्दगी ने मौत को छाया बनकर पीछे लगी देखा तो उसके डर का ठिकाना न रहा। सकपकाती, काँपती हुई वह मूर्छित होकर एक ओर गिर पड़ी।

जिन्दगी के सीने में दबा, मन का चोर निकलकर बाहर आया और उसे आश्वस्त करने का प्रयत्न करते हुए बोला-दीदी अपनी ही छाया से भला कोई डरती है? चोर की ही अपनी छाया से डर लगता है-तुम कोई चोर थोड़े ही हो, जिसे इस तरह डरने की आवश्यकता रहे।

प्रतिछाया ने देखा-जिन्दगी की मूर्छा कुछ हलकी पड़ी है और पलक खोलने का प्रयत्न कर रही है। अब उससे भी न रहा गया। सान्त्वना देने का प्रयत्न करते हुए वह भी कान के पास मुँह ले जाकर धीर-धीरे बुदबुदाई। बोली बहन, मैं तो पुरातन को नवीन में बदलने वाली तेरी शुभ-चिंतक सहेली हूँ, मुझसे डरने की कोई बात नहीं। डराने वाला तो मन का पाप है, तू उसे भगा। डर तो पाप में है, मैं तेरी थकान मिटाने और शान्ति देने के अतिरिक्त और कुछ करती ही नहीं।


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