आत्मबोध और आत्मदेव की उपासना

December 1973

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अपने को जान लेना सबसे बड़ा ज्ञान है। साधारणतया लोग अपना अस्तित्व शरीर और मन से बने काय कलेवर तक ही सीमित मानते हैं। वासना और तृष्णा की ही आकांक्षाएँ चित्त में उठती रहती है पेट और प्रजनन के लिए ही उसके क्रियाकलाप होते हैं। लोभ, मोह और अहंकार की पूर्ति से आगे का कोई पुरुषार्थ उससे बन ही नहीं पड़ता। इसका कारण अपने दिव्य अस्तित्व को, मानव-जीवन की गरिमा को-सामने प्रस्तुत तथ्य को-न समझना ही होता है। इसी अज्ञान में भटकते हुए यह जन्म बीत जाता है और अन्ततः पछताने के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं रहता।

आत्म-बोध को जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि माना गया है। जिसने अपने को जान लिया और जिसने लक्ष्य की पूर्ति की आवश्यकता को समझ लिया, वह महामानव बनता है। देव-संज्ञा में सम्मिलित होकर अपना ही नहीं अन्य असंख्यों का कल्याण करता है।

अपने में ब्रह्मसत्ता ओतप्रोत है। उसे जागृत करना अपने में देवत्व तथा ईश्वरत्व का उदय करना है। आत्म चेतना की शक्ति इतनी प्रचण्ड है कि वह जिधर मुड़ती झुकती है, उधर ही प्रगति होती जाती है और वैसी ही परिस्थितियाँ बनती जाती हैं। वाह्य-जगत में जो कुछ भला बुरा सामने है, उसका मूल उत्तरदायित्व अपनी मनःस्थिति पर ही होता है। हम सुधरे तो बाहरी परिस्थितियों को सुधरते देर न लगे। इस सत्य और तथ्य को जानने के उपरान्त ही आत्म-शोधन और आत्म-निमार्ण की आवश्यकता अनुभव होती है। इस मार्ग पर चलते हुए ही जीवन-लक्ष्य को प्राप्त कर सकना सम्भव होता है। इस सन्दर्भ में शास्त्रों को प्रतिपादन इस प्रकार है-

नानोपनिषदभ्यासः स्वाध्यायो यज्ञ ईरितः। ज्ञानयज्ञः स विज्ञेयः सर्वयज्ञोत्तमोत्तमः॥

आत्मज्ञान के स्वाध्याय को यज्ञ कहा गया है। ज्ञान यज्ञ समस्त यज्ञों में सर्वोत्तम है।

आत्मवलोकने यत्नः कर्तव्यों भूतिमिच्छता। सर्वदुःखशिरश्च्छेद आत्मालोकेन जायेत -योगवाशिष्ठ

जो अपना कल्याण चाहता हो उसे आत्मज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। दुःखों का नाश इसी से होता है।

एकः शत्रुर्नद्वितीययोउस्ति-शत्रुरक्तान तुल्यः पुरुषस्य राजन्। येन्नावृतः कुरुते संप्रयुक्तो-घोराणि कर्माणि सुदारुणानि-महाभारत

इस संसार में मनुष्य का एक ही शत्रु है, उसके समान दूसरा कोई नहीं। यह शत्रु आन्तरिक-अज्ञान है। इसी से ग्रसित होकर मनुष्य दारुण कर्म को करने लगता है।

आत्मैव ह्यात्मनो बन्धरात्मैव रिपुरात्मनः। आत्मात्मना न चे़तस्तदुपयोयेउस्ति नेतरः।

अभ्यासवैराग्ययुतादाक्रन्तेन्द्रियपन्नगात्। नात्मनः प्राप्यते यत्तत्प्राप्तयेते न जगत्त्रयात्।

आराधयात्मनात्मानमात्मनात्मानमर्चयेमत्ः आत्मनात्मानमालोक्यं संतिष्ठस्वात्मनात्मनि ॥

सर्वेषामुक्तमस्थानाँ सर्वासाँ चिरसंपदाम्। स्वमनोनिग्रहो भूमिर्भूमिः सस्यश्रियामिव-योगवाशिष्ठ

आत्मा ही अपना बन्धु और अपना शत्रु-स्वयं है। यदि अपना उद्धार आप नहीं किया जा सकता तो दूसरा कोई और उपाय नहीं। अभ्यास, ज्ञान, वैराग्य और संयम से ही आत्मा की प्राप्ति होती है। वाह्य कर्मकाण्डों से नहीं। इसलिए आत्मा की ही पूजा करो, उसी की आराधना में लगो। उसी का दर्शन करके उसी में अवस्थित हो जाओ। जैसे भूमि से सब अन्न उत्पन्न होते हैं, उसी तरह परिष्कृत मनोभूमि से सब सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।

खेदोल्लासविलासेषु स्वात्मकतृतयैकया। स्वसंकल्प क्षयं याते सगतैवावशिष्यते-महोपनिषद्

खिन्नता और उल्लास की स्थिति उत्पन्न करना मनुष्य के अपने हित की बात है। यह तथ्य समझ लेने पर मन में शान्ति और समता ही शेष रह जाती है।

उत्थितानुत्थितानेतानिन्द्रयारीन् पुनः पुनः। हन्याद्विवेकदण्डेन वज्रेणेव हरिंर्गिरीन्-महोपनिषद 6।21

मनोविकार भले ही छोटे हों या बड़े, यह शत्रु के समान हैं और प्रताड़ना के ही योग्य हैं। जिस प्रकार छोटा सा इन्द्र वज्र बड़े-बड़े पर्वतों को गिरा देता है, वैसे ही विवेक के प्रहार से इन शत्रुओं को निरस्त करना चाहिए।

कुम्भकारों घटमिव चेतो हन्ति करोति च। सर्व संकलपरुपेण चिच्चमत्कुरुते चिति-योगवाशिष्ठ

जैसे कुम्हार मिट्टी को तोड़ता और बर्तन बनाता रहता है। वैसे ही मन अपनी सृजन-शक्ति से अपनी अभीष्ट दुनिया रचता रहता है। जैसे स्वप्नों की रचना मन स्वयं ही करता है, वैसे ही अपनी दुनिया भी आप ही बनाता है।

फलं ददाति कालेन तस्य तस्य तथा तथा। तपो वा देवता वापि भूत्वा स्वैव चिदन्यथा। फलं ददात्यथ स्वैरं नभःफलतिपातवत्-योगवाशिष्ठ

जीव अपनी इच्छा से ही देवता, तपस्वी बनता रहता है। प्रगति और अवनति का आधार मनुष्य का अपना कर्तव्य ही है।

चित्तमेव हिं संसारस्तत्प्रयत्नेन शोधयेत्। यच्चित्त्स्तन्मयों भाति गुह्यमेतत्सनातनम्-मैत्रेयुपनिषद 1।9

जैसा अपना मन है, वैसा ही अपना संसार है। इसलिए संसार को सुधारने की अपेक्षा अपने मन को सुधारना चाहिए। यह सनातन रहस्य है।

समासक्तं यदा चित्तं जन्तोर्विषयगोचरे। यद्येवं ब्रह्यणि स्यात्तत्को न मुच्येत बंधनात्।11। -मैत्रेयुपनिषद 1।11

मनुष्य का चित्त जितना बाहरी विषयों में संलग्न रहता है। उतना ही यदि ब्रह्म में रहने लगे तो सहज ही सब बन्धनों से छूट जाय।

मनो हि जगताँ कतृ मनो हि पुरुषः स्मृतः। स्वरुपं सर्वकृत्वं च शक्तत्वं च महात्मनः ॥1॥

प्रतिभासमुपायाति यद्यदस्य हि चेतसः। तत्तत्प्रकटतामेति स्थैर्य सफलतामति ॥3॥ -योगवाशिष्ठ

मन ही आत्मा का दृश्य रूप है। वह जैसी चाहता है, वैसी अपनी दुनिया गढ़ लेता है। उसमें असीम शक्तियाँ सन्निहित हैं। चित्त में जैसी कल्पनाएँ उदय होती हैं, संसार में परिस्थितियाँ भी वैसी ही बनने लगती हैं।

चित्तं प्रवर्तते चित्तं चितमेव विमुच्यते। चित्तं हि जायते नान्यच्चित्तमेव निरुध्यते॥

चित्त से ही प्रवृत्ति होती है, चित्त से ही निवृत्ति। चित्त से ही सब कुछ उत्पन्न होता है। चित्त से ही अवरोध होता है।

सर्वः स्वससंकल्पवशाल्लधुभवति वा गुरुः।

सब कोई अपने संकल्पों के कारण ही छोटा अथवा बड़ा बन जाता है।

भजन्ते विश्वे देवत्वं नाम ऋत सपन्तो अमृत मेवैः-ऋग्वेद

अपने आचार-व्यवहार को श्रेष्ठ रखकर सभी कोई देवत्व को प्राप्त कर सकते हैं।

एनं मनोमणिं ब्रह्यद् बहुपंककलंकितम्। विवेकवारिणा सिद्ध् यै प्रक्षाल्यालोकवान भव-महोपनिषद् 5।83

मन रूपी मणि को विवेक-जल से स्वच्छ कर डालों। इसी से तुम्हें तेजस्वी सिद्धियाँ मिलेंगी।

मनुष्य हाड़-माँस का पुतला नहीं है, उसके कण-कण में दिव्य तत्वों का समावेश है। ईश्वर की सत्ता उसमें समाई हुई है। ऋषियों और देवताओं का इसी काया में समावेश है। यदि उन्हें जान और समझ लिया जाय और अज्ञान का आवरण चीरकर आत्मज्ञान की -आत्मकल्याण की साधना की जाय तो अपने भीतर ही वह सब कुछ मिल सकता है, जिसकी हमें खोज है।

इस संदर्भ में आस वचन इस प्रकार मिलते हैं-

सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे, सप्त रक्षन्ति सर्वे अप्रमादम्-यजु 34।55

शरीर में सात ऋषि निवास करते हैं, वे प्रमाद रहित होकर सावधानी के साथ उसकी रक्षा करते हैं।

इमामेव गौतम भारद्वाजौ अयमेव गौतमोउयं भारद्वाजः। इमावेव विश्वामित्र जमदग्नि अयमेव विश्वामित्रोउयं जमदग्नि इमामेव वशिष्ठ कश्यपौ अयमेव वशिष्ठो, अयं कश्यपो, वागेव अत्रि। वाचा ह्यन्नमद्येतउत्रि द्ववै नामेतद्यदत्रिरिति सर्वसय अत्ता भवति-वृहदारण्यक 30-2।2।4

दांया कान गौतम है, बांया कान भारद्वाज। सीधी आँख विश्वामित्र, बाईं आँख जमदग्नि। दाईं नाक वशिष्ठ, बाईं नाक कश्यप। वाणी अत्रि। जो खाता है, सो अत्रि है। अति ही अत्रि है।

ता एता देवताः अस्मिन महत्यण्रवे प्रापतंस्तमशनायापिपसाभयामन्बवार्जत् ता एनमब्रुवन्नयतनै नः प्रजानीहि यस्मिन् प्रतिष्ठता अन्नमदामेति ॥1॥

ताभ्यो गामानयत्ता अब्रुवन्न वै नोउयमलमिति ताभ्योउश्वमानयत्त अब्रुबन् सुकृतं बतेति। सुरुषों बाव सकृतम्। ता अब्रवीद्यथायतनं प्रविशतेति॥3॥

अग्निर्वाग्भूत्वा मुखं प्राविशद्वायुः प्राणो भूत्वा नासिके प्राविशदादित्यश्चक्षूर्भूत्वाक्षिणी प्राविशद्दिशः श्रोत्रं भूत्वाँ कर्णा प्राविशन्नोषधिवनस्पतयों लोमानि भूत्वा त्वचं प्राविशंश्चंद्रमा मनो भूत्वा ह्नदयं प्राविशन्मृत्युरपाना भूत्वा नाभि प्राविशदापो रेतो भूत्वा शिश्नं प्राविशन् ॥ 4॥ -एतरेय-2।1 से 4

परमात्मा ने देवताओं को इस संसार में भेजा। उनमें भूख, प्यास और अनुभूति उत्पन्न की। देवताओं ने परमात्मा से कहा-हमारे लिए शरीर-निमार्ण करो। जिसमें रहकर हम अपनी आवश्यकताएँ पूर्ण करें। परमात्मा ने उन्हें गौ, अश्व आदि के शरीर दिखाये, जिसे उन्होंने अनुपयुक्त बताया। तब परमात्मा ने उन्हें मनुष्य देह दिखाया। देवताओं ने कहा-हाँ यही बहुत ठीक और सुन्दर है। तब परमात्मा ने कहा अपने-अपने मुख में, वायु प्राण बनकर नासिका में, सूर्य नेत्रों में दिशाएँ कानों में, औषधि त्वचा में, चन्द्रमा मन बनकर हृदय में यम अपान बनकर नाभि में और वरुण रेतस बनकर जननेन्द्रिय में प्रविष्ट हुआ।

पुरुषो वाद गौतमाग्निस्तस्य वागेव समित्प्राणो धूमो जिह्नार्चिश्चक्षुरंगाराः श्रोत्रं विस्फलिंगा॥1॥

तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा अन्नं जुह्नति तस्या आहुते रेतः सम्भवति॥2॥ -छान्दोग्य 5।7।12

यह पुरुष की अग्नि है। वाणी समिधा है। प्राण धुँआ है। जिह्वा ज्वाला है। नेत्र अंगार हैं। कान चिनगारियाँ। इस अग्नि में देवगण हवन करते हैं और उससे पराक्रम उत्पन्न होता है।

आत्म-चिन्तन को ज्ञान-तप कहा गया है और आत्म-निमार्ण को आध्यात्मिक अग्निहोत्र। बाह्य जगत में स्वाध्याय, सत्संग को ज्ञान का आधार माना गया है। किन्तु अंतर्जगत में आत्म-चिन्तन को ज्ञान देव की-आत्मदेव की आराधना माना है। अपनी अन्तःस्थिति में उत्कृष्ट-तत्वों की स्थापना करके हम आत्मदेव की आराधना करते हैं। आत्मदेव को तत्व-दर्शन ने सर्वोच्च उपास्य माना है और उसकी आराधना का निर्देश किया है-

अव्युत्पन्नधियो ये हि बालपेलवचेतसः। कृत्रिमार्चामयं तेषाँ देवार्चनमुदाह्नतम्॥

संवेदनात्मकतया गतया सर्वगोचरम। न तस्याह्नानमन्त्रादि किंचिदेवोपयुज्यते॥ न दीपेन न धूपेन न पुष्पविभवार्पणैः॥

न च कुँकुमकर्पूरभोगैश्चित्रैर्न चेतरैः। श्मबोधादिभिः पुष्पैर्देव आत्मा यदर्च्यते। तत्तु देवार्चनं विद्धि नाकारार्चनमर्चनम्-योगवाशिष्ठ

जिनकी बुद्धि चैतन्य नहीं हुई है, चित्त चंचल है, उनके लिए बाहरी देवदर्शन कृत्रिम रूप से बनाया गया है।

जो परमदेव सब जगह मौजूद है और ज्ञानरूप में सब प्राणियों के भीतर विद्यमान है, उसके लिए मन्त्रानुष्ठानों की आवश्यकता नहीं है।

आत्मदेव की पूजा के लिए दीपक, धूप, पुष्प, नैवेद्य, चन्दन, दक्षिणा, केशर, कपूर आदि की आवश्यकता नहीं होती।

शम और बोध की पुष्पाञ्जलि से आत्मदेव की आराधना ही सच्ची पूजा है। वाह्य आकृतियों का पूजन अवास्तविक है।

तस्य निश्चिन्तनं ध्यानम्। सर्वकर्म निराकारण-मावाहनम् निश्चलज्ञानमासनम्। समुन्मनं भावः पाद्यम्। सदामनस्कमर्ध्यम्। सदादीपितराचमनीयम्। वराकृतप्राप्तिः स्नानम्। सर्वात्मकत्वं दृश्यविलयो गन्धः। दृगविशिष्टात्मानः अक्षतः। चिदादीप्तिः पुष्पम। सूर्यात्मकत्वं दीपः। परिपूर्णचन्द्रामृतरसैकीकरणं नैवेद्यम्। निश्चलत्वं प्रदक्षिणम्। सोउहंभावो नमस्कार। परमेश्वरस्तुतिर्मौनम्। साउहंभावो नमस्कारः। सदासन्तोषी विसर्जनम्। एव परिपूर्णराजयोगिनः सर्वात्मकपूजोपचारः स्यात्। सर्वात्मकत्वं आत्माधारो भवति। सर्वनिरामयपरिपूर्णोउहमस्मीतिमुमृक्षणाँ मोक्षैकसिद्धिर्भवति॥ इत्युपनिषत्॥ -आत्म पूजोपनिषद्

आत्मा का ध्यान-उसका निरन्तर चिन्तन ही है। स्थिर ज्ञान ही उसका आसन है। उन्मन पाद्य है। तन्मयता अर्घ्य है। निष्ठा आचमन है। समर्पण स्नान है। लय गन्ध है। अन्तर्दृष्टि अक्षत है। विश्वास पुष्प है। अन्तः प्रकाश दीपक है। शान्ति नैवेद्य है। श्रद्धा प्रदक्षिणा है। ‘सोऽहं भाव’ नमस्कार है। मौन ही स्तुति है। संतोष विसर्जन है। यह आत्म-पूजा ही सर्वात्मा की सच्ची पूजा है। मैं परिपूर्ण निरामय ब्रह्म हूँ, यह मान्यता ही मोक्ष तक पहुँचती है। यही उपनिषद् है।

अस्य शरीरज्ञस्य यूपरशनाउशोभितस्यात्मा यजमान बुद्धिः पत्नी वेदा महऋत्विजः हंकारोउध्वर्युः चित्तं होता प्राणो ब्रह्यणाच्छंसी अपानः मैत्रा-वरुणः शरीर वेदिः नासिकाउन्तर्वेदिः मूर्धा द्रोणकलशः पादो रथः दिक्षणहस्तः स्रुवः सव्य आज्यस्थाली श्रोत्रे आधारौ चक्षुषह आज्यभागौ ग्रीवा धारा पोता तन्मात्राणि सदस्या महाभूतानि वाचः तालः शंयोर्वाकः स्मृतिदया क्षान्तिरहिंसा पत्नीसंयाजाः ओंकारो यूपः आशा रशना मनोरथः कामः पशुः केशा दर्भाः इन्द्रियाणि यज्ञपात्राणि कर्मेनिद्रयाणि हवीशि अहिंसा इष्टयः त्यागो दक्षिणा अवभृथं मरणात् सर्वाण्यस्मिन् देवता शरीरेउधिसमाहिताः ॥22॥ -प्राणाग्नि होत्रोपनिषद् 22

इस जीवन यज्ञ का आत्मा-यजमान बुद्धि-यजमान-पत्री वेद-ऋत्विक् अहं-अध्वर्यु चित्त-होता प्राण-ब्राह्मणच्छमी अपान-प्रति प्रस्थान, व्यान-प्रस्तोता उदान-वेदी शिर-द्रोण-कलश पैर-रथ दाहिना हाथ-स्रुवा बाँया हाथ-घृत-पात्र कान-आधार नेत्र-आज्य भाग, गर्दन-धारा तन्मात्राएँ-सदस्य पंचभूत-प्रयाजा जीभ-इडा दाँत होठ-सबूत वाक्-तालु शयोर्वाक, स्मृति-दया ऊंकार-यूप आशा-रसना काम-पशु काल-कुशाएं ज्ञानेन्द्रियाँ-यज्ञ-पात्र कर्मेन्द्रियाँ-हवि अहिंसा-इष्टियाँ मृत्यु-अवधूत स्थान है। यह यज्ञ पूर्ण फलदायक है, इसमें सभी देवता समाहित हैं।

आत्म बोध की ज्ञान साधना और आत्म-कल्याण की कम-साधना से निरत रहकर जीवनोद्देश्य की पूर्ति कर सकने में निश्चय पूर्वक सफल हो सकते हैं।


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