आग्नेय-उद्वेग का समाधान वरुण संस्कृति से

December 1973

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पुराणों में अग्नि और वरुण का युग्म माना गया है। कहीं-कहीं अग्नि को स्त्री लिंग में सम्बोधित किया गया है और उसका सहचर वरुण को बताया गया है। अग्नि को उग्र और वरुण को शान्त कहा गया है। एक के असंतुलित होने पर दूसरे के द्वारा उसका संतुलन बना देने की चर्चा की गई और उन्हें परस्पर पूरक बताया गया है।

इस पौराणिक प्रतिपादन में बहुत कुछ तथ्य है। पर्वत श्रेणियों से लेकर सामान्य धरातल तक समस्त स्थल क्षेत्र की ऊँचाई समुद्र तल से ऊँची है। धरातल का जीवन जल पर निर्भर है। वृक्ष वनस्पतियों से लेकर, प्राणधारियों तक का निर्वाह प्रधानतया जल से ही होता है। उनके काय कलेवर में तीन-चौथाई जल की ही मात्रा होती है। यह जल ऊँचाई से नीचे की ओर प्रवाहित होता है, उसकी गति स्वभावतः समुद्रतल की ओर है। नदी तालाबों में होता हुआ धरती का जल समुद्र की ओर ही दौड़ता रहता है। यदि यह दौड़ यथावत चलती रही तो कुछ ही समय में धरती का समस्त जल समुद्र में पहुँच जाएगा और भूतल निर्जल शुष्क मरुस्थल मात्र दृष्टिगोचर होगा। न वनस्पति रहेंगी न प्राणियों का अस्तित्व बचेगा।

वरुण देव को इस विपन्न स्थिति से अग्नि उबारती है। सूर्य ताप से समुद्र जल भाप बनकर ऊपर उठता है और वर्षा करके धरती की सजलता स्थिर रखता है साथ ही सागर में संसार का समस्त जल इकट्ठा हो जान पर भूतल का इसमें डूब जाने का जो खतरा है, उससे बचाता है। जल और अग्नि के संयोग का विश्व का संतुलन स्थिर है। अग्नि की उष्णता को सहृदय समतुल्य बनाये रहने में हल का हाथ है। एक की विकृतियों को दूसरे के द्वारा समाधान करते रहने का क्रम यदि न चला होता तो सृष्टि का अब से बहुत पहले ही विनाश हो गया होता।

मानव स्वभाव में, समाज में शान्ति और क्रान्ति का, स्नेह और आक्रोश का दौर चला है। यज्ञ-कुण्ड के चारों ओर जल की नाला बनाने की पीछे इस संतुलन की आवश्यकता का ही संकेत है। न तो अत्यन्त नम्र होकर संसार में जिया जा सकता है और न क्रुद्ध या उग्र रहकर काम चल सकता है। श्रम और विश्राम का युग्म बनाये रहने के लिए ही दिन और रात का सृजन हुआ है। ध्वंस और निर्माण के क्रम में शिव और ब्रह्म निरन्तर लगे हैं। इसी संतुलन के कारण यह वैष्णवी सृष्टि शोभायमान हो रही है।

पिछले दिनों अग्नि ऊर्जा का अत्यधिक प्रयोग होता रहा है। युद्ध, संघर्ष और विनाश का परशुराम अपना फरसा तेजी से चलाता रहा ह अब वह शस्त्र फेंककर बन उगाने का प्रायश्चित करना होगा। द्वेष के स्थान पर स्नेह का प्रतिष्ठा करने से ही संतुलन बनेगा। विनाश और पतन बहुत हो चुका अब सृजन और उत्कर्ष के अभिनव प्रयोजन में लगने के बिना और कोई चारा नहीं।

भौतिक विज्ञान ने ऊर्जा का बहुत उपयोग किया है। कोयला, तेल, विद्युत, अणुशक्ति का ईंधन कल-कारखानों में प्रयुक्त होता है और घर आँगन में चूल्हे से लेकर बत्ती जलने तक के अनेक प्रयोजनों में आग का प्रयोग होता है। परिणाम स्वरूप सृष्टि संतुलन में गर्मी बढ़ रही है और मनुष्य स्वभावों में उसका परिणाम उत्तेजना के रूप में दृष्टिगोचर हो रहा है। यदि यही क्रम चलता रहे तो जड़ चेतन के जल मरने का संकट निश्चित रूप से सामने आ खड़ा होगा।

दूरदर्शी वैज्ञानिक इस संदर्भ में बहुत चिन्तित है। बढ़ते हुए ताप के कारण समस्त विश्व को क्या दुष्परिणाम भुगतने पड़ेंगे यह अब क्रमशः अधिक स्पष्ट होता जा रहा है। इतना ही नहीं ताप की बढ़ती हुई आवश्यकता को पूरा करने के लिए ईंधन की जिस तरह खपत हो रही है उसे देखते हुए धरातल पर संग्रहित ईंधन का भी कुछ समय में अन्त होना निश्चित है तब एक नया प्रश्न यह उत्पन्न होगा कि ईंधन आखिर कहाँ से आये? ईंधन के नये स्रोत कहाँ से मिले?

प्रस्तुत समस्या बड़ी है। उसका हल निकलने पर ही धरती की प्राणी रह सकते हैं। इस समाधान के लिए विज्ञान की आँखें समुद्र पर ही जमती है। अग्नि का असंतुलन वरुण के अतिरिक्त और कोई कर भी नहीं सकता। उच्चतर की विचारशीलता में यह चिन्तन-मंथन चल रहा है कि अब अग्नि का वर्चस्व समाप्त होने जा रहा है उसका स्थान वरुण देव ग्रहण करेंगे। मनुष्य को अपनी आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए धरती पर आश्रित न रह कर समुद्र का आश्रय ग्रहण करना होगा।

पिछले दिनों यांत्रिक आवश्यकता की पूर्ति के दो प्रधान स्रोत रहे हैं-एक कोयला दूसरा पैट्रोल। पर जिस गति से पिछले दिनों उनका खर्च हुआ है और वह क्रम दिन-दिन बढ़ता ही जाता है उसे देखते हुए निश्चित है कि यह भण्डार एक शताब्दी के भीतर ही पूर्णतया समाप्त हो चुकेंगे। लाखों करोड़ों वर्षों के क्रमिक विकास में पृथ्वी ने यह सम्पदा मधुमक्खी द्वारा संग्रहित शहद की तरह एकत्रित की थी। इसके निचुड़ जाने पर फिर उसे इकट्ठे होने के लिए लाखों करोड़ों वर्षों का इन्तजार करना होगा। शहद निचोड़ लेने पर छत्ता दुबारा भी भरता तो है पर समय लगता है। तेल और कोयले का भण्डार सौ वर्ष में हम चुका तो देंगे पर दुबारा फिर उसे पा सकेंगे इसकी प्रतीक्षा की नहीं जा सकती।

इन दोनों स्रोतों के समाप्त हो जाने पर अगली शताब्दी में ऊर्जा कहाँ से प्राप्त की जायगी? आज के वैज्ञानिक जगत का यह सबसे अधिक उलझा हुआ प्रश्न है। इन दिनों इस प्रश्न को हल करने के लिए परमाणु शक्ति की ओर निहारा जा रहा है। अणु विद्युत उत्पन्न करने के लिए प्रायः हर बड़े देश में प्रयत्न हो रहे हैं। अमेरिकन अणु पनडुब्बियों प्रशान्त महासागर से अटलांटिक महासागर तक की यात्रा कर चुकी हैं। उत्तरी ध्रुव के नीचे रह चुकी हैं। रूसी ‘लेनिन अणु चालित जलयान जाड़े में बर्फ से ढके समुद्रों को पिघला कर दूसरे जहाजों के लिए रास्ता बनाता है। अन्य बड़े देशों में भी इस शक्ति के रचनात्मक उपयोग की तैयारी कर रहे हैं। ध्वंसात्मक अणु आयुध ही तो सदा नहीं बनते रह सकते।

इन दिनों अणुशक्ति थोरयम, यूरेनियम, प्लेटोनियम जैसे भारी तत्वों के परमाणुओं के तोड़ने से उपलब्ध होती है। यह तरीका हानि रहित नहीं है। अणु राख के विसर्जन से लेकर ऊर्जा के अनियन्त्रित हो उठने तक के ऐसे अनेक खतरे मौजूद हैं जिनके कारण ऐसा विषाक्त मरण संकट उत्पन्न हो सकता है जिसकी चपेट में आने से उस सुन्दर धरती का उसके निवासियों का यहाँ तक कि समुद्र और वनस्पति तक का अन्त हो सकता है। इसलिए अणु ऊर्जा उत्पन्न करने का उत्साह फूँक-फूँक कर कदम रखने के साथ ही बड़े असमंजस के साथ आगे बढ़ रहा है। इस दिशा में हुई छोटी सी भूलें ऐसी हो सकती है जो अभी तो सामने न आये, पर अगली पीढ़ी के लिए प्राण घातक संकट बन कर सामने आयें।

परमाणु शक्ति के उत्पादन का एक दूसरा विकल्प है-हाइड्रोजन और लिथियम जैसे हलके तत्वों के परमाणुओं को संचालित करके ऊर्जा उपलब्ध करना। इसी आधार पर हमारा सूर्य और असंख्य तारक अपने में ऊर्जा उत्पन्न करते हैं। उसे उत्पन्न करना अब उतना कठिन नहीं रहा जितना उसे नियन्त्रित की कार्य-विधि अगली शताब्दी में अवश्य हस्तगत हो जायगी। जब ऐसा संभव हो जाएगा तब समुद्र जल से भी असीम मात्रा में ईंधन मिलने लगेगा और उलझन का समाधान मिल जाएगा। ‘संगलन ऊर्जा’ जब मनुष्य के काबू में आ जायगी तब तेल कोयले की कोई आवश्यकता न रहेगी। बड़े देशों की विद्युत खपत पाँच-छः संगलन ऊर्जा वाले बिजलीघर ही पूरी कर दिया करेंगे।

परमाणु ऊर्जा भले ही आज की विखण्डन पद्धति से प्राप्त हो अथवा भावी ‘संगलन’ प्रक्रिया से उसका मूल स्रोत सूर्य ही रहेगा। सूर्य एक विशाल अणु भट्टी है जिसमें प्रायः 5,00000000000000000000000 अश्व शक्ति के बराबर ऊर्जा भण्डार विद्यमान है। पर वह पृथ्वी तक आते-आते बहुत ही क्षीण हो जाती है। उसे समेटना हो तो बहुत बड़े क्षेत्र पर चादर ताननी पड़ेगी। बीस अश्व शक्ति बिजली पानी हो तो दो सौ वर्ग मीटर क्षेत्र को समेटना पड़ेगा। वह बहुत झंझट भरा काम है, इससे बड़ी मात्रा में बिजली नहीं मिल सकती है विज्ञानी आर्थररसल ने यह कल्पना की है। कि सूर्य की कक्षा में ऐसा उपग्रह स्थापित किया जा सकता है जो धरती पर अभीष्ट मात्रा में ऊर्जा भेजता रहे। पर यह कार्य भी उतना सीधा और सरल नहीं है। ब्रह्माण्ड किरणों के उपयोग की बात भी जब तब उठती है, बेशक वे अत्यधिक ऊर्जा युक्त हैं पर वे पृथ्वी के वातावरण में स्वल्प मात्रा में और इतनी दूर-दूर रहती हैं कि कुल मिलाकर उनसे कोई बड़ा काम नहीं लिया जा सकता। यदि वे अधिक मात्रा में रही होती तो उनने पहले ही धरती का सफाया करके रख दिया होता। ग्रेनाइट जैसी ज्वाला मुखी चट्टानों में पाये जाने वाले रासायनिक तत्व भी ऊर्जा उत्पन्न कर सकते हैं। वे भी इतनी मात्रा में नहीं है जिससे संसार की विशालतम आवश्यकता की पूर्ति हो सके।

पृथ्वी का न केवल कोयला और पेट्रोल अगली शताब्दी तक समाप्त हो जाएगा वरन् खनिज पदार्थों की खदानें भी छूँछ हो जायेंगी। धातुएँ तथा रासायनिक पदार्थों को जिस तेजी से खोज निकाला जा रहा है उस क्रम से यह भण्डार भी एक नहीं तो दो शताब्दियों के अन्दर चुक जाएगा। तब इन वस्तुओं के लिए हमें समुद्र का आश्रय लेना होगा। समुद्र के ढाई वर्ग किलोमीटर पानी में प्रायः 15 करोड़ टन ठोस पदार्थ होता है। इसमें एक करोड़ टन नमक, दो करोड़ टन मैग्नेशियम और एक करोड़ टन खनिज पदार्थ होते हैं। इनमें से आवश्यक धातुएँ निकाली जा सकेंगी पर उसके लिये बहुत बड़ी मात्रा में ऊर्जा की जरूरत पड़ेगी। यह प्रयोजन संगलन अणु शक्ति से ही सम्भव हो सकेगा।

इस प्रकार समुद्र न केवल अगले दिनों ईंधन की आवश्यकता पूरी करेगा वरन् उससे आहार की तथा खनिज पदार्थों की आवश्यकता भी पूरी हो सकेगी। समुद्री घास और काष्ठ का अगले दिनों अन्न शाक और फलों के स्थान पर प्रयोग होगा। मछली आदि जलचरों को तो आदमी बहुत समय से खाने का अभ्यस्त है ही, मीठे जज की बढ़ती हुई आवश्यकता भी विशाल परिमाण में समुद्र के अतिरिक्त और किसी स्रोत से नहीं हो सकती। धातुएँ खनिज पदार्थ तथा रसायन में समुद्र में कमी नहीं है। पृथ्वी की अपेक्षा अब समुद्र में ही इनका विपुल भण्डार पाया जा सकता है। वर्षा और नदियाँ हर साल धरती की बहुमूल्य सम्पदायें बहाकर समुद्र में पहुँचाती हैं इस प्रकार धरती गरीब होती जाती है और समुद्र अमीर बन रहा है।

समुद्र के एक वर्ग मील जल में प्रायः डेढ़ अरब मन नमक, सोना 80 मन, चाँदी ढाई हजार मन, मैग्नेशियम डेढ़ करोड़ मन तथा बहुमूल्य खनिज एवं रासायनिक पदार्थ प्रचुर परिमाण में मिले होते हैं। हर वर्ष नदियों का जल समुद्र में लगभग 150 अरब मन पृथ्वी के खनिज पदार्थ बहाकर समुद्र में पहुँचा देता है।

मनुष्य को अगले दिनों इन वस्तुओं की आवश्यकता पड़ेगी तो उसे नये साहूकार समुद्र के आगे ही अपना पल्ला पसारना पड़ेगा। निवास के लिए समुद्र के बीच जहाँ तहाँ अभी भी निर्जल टापू पड़े हैं उन्हें बसाना पड़ेगा और समुद्र में दबी पर्वत श्रेणियों के ऊपर खम्भे खड़े करके नये नगर बसाने पड़ेंगे। तैरती हुई बस्तियाँ बनाने की बात पर भी गम्भीरता पूर्वक विचार किया जा रहा है। आशा के केन्द्र बिन्दु जहाँ टिके हैं उसे देखते हुए यह कहना अत्युक्ति न होगी कि अगला युग वरुण युग होगा। समुद्री सभ्यता का विस्तार नये रूप में सामने आयेगा।

भौतिक जगत की गुत्थियों को हल करने में अगले दिनों वरुण देव की महत्वपूर्ण भूमिका मानव स्वभाव में ही उग्रता असहिष्णुता और संघर्ष की आग्नेय प्रवृत्ति घटेगी। स्नेह सौजन्य की नीति अपनाये बिना और कोई चारा नहीं। ध्वंस की चल रही अस्त्र शस्त्रों की दौड़ को रचनात्मक प्रयोजनों में बदले बिना और कोई गति नहीं। आग्नेय समस्या के स्थान पर जब वरुण देव की शीतल संस्कृति की स्थापना होगी तो विनाश की गति-विधियों को भी सृजन में परिवर्तन होने के लिए सहमत होना पड़ेगा।


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