अध्यात्म का आधार और परिणाम

December 1973

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

स्पष्टतः जड़ की तुलना में चेतना की सत्त असंख्य गुनी अधिक है। जड़ शक्तियाँ प्रबल कितनी ही हों, उनकी हाथी जैसी विशालता और क्षमता पर मानवी-चेतना का ही अंकुश रहता है। यह चेतना जितनी बुद्धियुक्त और सूक्ष्म होती चली जा रही है, उतनी ही मात्रा में प्रकृति की एक से एक बढ़ी-चढ़ी शक्तियों पर नियन्त्रण स्थापित कर सकना सम्भव होता जाता है। आश्चर्य नहीं कि किसी दिन मनुष्य अपने पिता परमात्मा का भावनात्मक दृष्टिकोण से ही नहीं, प्रकृति पर नियन्त्रण कर्ता के रूप में भी अपना वर्चस्व सिद्ध करे। चेतना की गरिमा निस्सन्देह असीम है, वह उतनी ही महिमामयी है -जितनी उसकी अधिष्ठात्री परमात्म सत्ता।

जड़ सत्ता का स्वरूप वर्चस्व और प्रयोग समझने के लिए हमें भौतिक-विज्ञान का सहारा लेना पड़ता है। ठीक उसी प्रकार चेतन-सत्ता की स्थिति, क्षमता और विधा को जानने के लिए जिस विज्ञान का आश्रय लेना पड़ता है, उसे अध्यात्म कहते हैं। चेतना-शक्ति का सदुपयोग कर सकने पर हम उन अनन्त वैभवों को अधिपति बन सकते हैं, जिनके सामने भौतिक समृद्धियाँ राई-रत्ती के समतुल्य ही बैठती हैं।

अध्यात्म के उपकरण कलेवर के रूप में पूजा-पाठ साधना, वेश, वस्त्र आदि का उपयोग हो सकता है, पर वस्तुतः उसका प्रयोजन उससे बहुत आगे का है। देवता या परमेश्वर के रूप में जिसकी आराधना की जाती है, वह वस्तुतः अपने आपे का परिष्कृत रूप ही है। इष्टदेव और सद्गुरु के रूप में इसी को विभिन्न नाम व रूपों से प्रस्तुत किया गया है। अपने आप में गहरी दिलचस्पी उत्पन्न करके आत्म-शोधन और आत्म विकास का क्रिया कलाप ही वस्तुतः भक्ति-भावना अथवा योग-साधना का प्रयोजन है। परमात्मा के जो गुणानुवाद गाये जाते हैं, वे वस्तुतः अपने ही परिष्कृत रूप में अभ्यर्थना है। ईश्वरीय अनुकम्पा से जो कुछ वरदान अनुदान मिलने का विश्वास किया जाता है-वह कहीं अन्यत्र से नहीं, अपने ही अन्तरंग से प्रस्फुटित होता है। देवता हमारे मानस-पुत्र हैं और मन्त्र विधानों का प्राण-साधक के प्रचण्ड संकल्पों के साथ गुँथा पड़ा है। मानवी-निष्ठा की श्रद्धा और विश्वास की परिणति ही सिद्धियों और विभूतियों के रूप में होती है।

बहिरंग साधनों के माध्यम से अन्तरंग में प्रवेश करना यही है-अध्यात्म साधना का तत्त्वज्ञान। इंजेक्शन की पिचकारी के सहारे द्रव औषधियाँ रक्त में मिलाई जाती हैं, सीधा प्रवेश कठिन पड़ता है। ठीक यही प्रयोग देव-मन्त्रों कर्मकाण्डों और साधना-विधानों के द्वारा आत्म-सत्ता की गरिमा के प्रति श्रद्धालु होने के लिए किया जाता है।

अध्यात्म-विज्ञान का उद्देश्य ईश्वरीय-क्रम व्यवस्था में गड़बड़ी फैला कर अपने लिए कुछ अतिरिक्त लाभ प्राप्त कर लेना नहीं है। यह खुशामद या रिश्वत जैसे ओछे हथकण्डों से हो भी नहीं सकता। अध्यात्म आत्म देवता में उत्कृष्टता की मान्यता परिपक्व करने और उसका स्तर, ऊँचा उठाने की विधि व्यवस्था है। जो उसे ठीक तरह समझते हैं और सही रीति से प्रयास करते हैं, वे भौतिक विज्ञानियों से कम नहीं, अधिक ही पाते हैं, क्योंकि जड़ की अपेक्षा चेतन की सत्ता भी बड़ी है और उसकी उपलब्धियाँ भी अधिक ऊँचे स्तर की हैं।

जड़-विज्ञान हमें शरीर और मन की प्रसन्नता दे सकने वाले साधन प्रदान कर सकता है। किन्तु अन्तःकरण की प्रसन्नता और प्रफुल्लता से भर देने की क्षमता परिष्कृत चिन्तन के अतिरिक्त और कहीं नहीं। दूरदर्शी और वस्तु स्थिति समझने वाले दृष्टिकोण का नाम स्वर्ग है और पूर्वाग्रहों तथा कुसंस्कारों से छुटकारा पाकर उच्चस्तरीय रीति-नीति अपना सकने के साहस सका नाम मुक्ति। वस्तुतः अध्यात्म-विज्ञान के यही दो प्रधान प्रतिफल हैं। यों उसके साथ पत्र-पल्लवों की तरह ऋद्धि-सिद्धियाँ तो असंख्यों जुड़ी हुई हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118