कृतज्ञता और प्रतिदान से रहित होकर न जिये।

December 1973

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हमारी हँसी-खुशी और सुख-सुविधा स्व उपार्जित नहीं है। वह दूसरों के श्रम, सहयोग और अनुग्रह से मिली है। इस तथ्य को यदि ठीक तरह समझा जा सके तो इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि हम मनुष्य मात्र के ऋणी हैं। हमारी सुख-सुविधाओं में असंख्यों का असंख्य प्रकार का योगदान जुड़ा हुआ है। जीवित और मृतक लोगों के सतत् श्रम और अध्यवसाय का ही वह फल है, जिसका उपयोग करते हुए हम विविध-विधि सुख-सुविधाएँ उपलब्ध कर रहे हैं। इस सच्चाई को जो जितनी अच्छी तरह समझ सकेगा, उसे मानव समाज के प्रति उतनी ही गहरी कृतज्ञता के साथ श्रद्धावनत होना पड़ेगा। अपने को उपकृत अनुभव करना पड़ेगा। यह मृदुल संवेदना प्रत्युपकार के लिए का कसक उत्पन्न करती है और ऋण से उऋण होने का प्रयत्न करने के लिए उभारती है।

दूसरों द्वारा प्रदान किये अनुदानों का हम निरन्तर उपयोग करते रहें, किन्तु बदले में समाज को सुखी समुन्नत बनाने के लिए कोई महत्वपूर्ण योगदान न करें तो यह कृतघ्नता और निष्ठुरता हमारी मनः स्थिति को पाषाणवत् पिछड़ी और छिछली ही सिद्ध करेगी। अनुदान प्राप्त करते जाने में उत्साही रहना, किन्तु प्रतिदान की ओर से मुँह मोड़ लेना यों लाभदायक प्रतीत होता है, पर वह लाभ ऐसा है - जो अन्तरात्मा के स्तर को पतित और घृणित ही बनाता चला जाएगा। जिसे खाना ही आता है, खिलाने के आनन्द का जिसे ज्ञान ही नहीं ऐसे स्वार्थी तथा संकीर्ण व्यक्ति को सज्जनों की पंक्ति में नहीं बिठाया जा सकता, भले ही वह कितना ही सम्पन्न एवं समृद्ध क्यों न बन गया हो।

वट्रेडरसेला ने विलासिता और अर्हता के साधन जुटाने तक सीमित सम्पदा की तुलना डाकुओं द्वारा आँखों पर फेंकी जाने वाली ‘सर्च लाइट’ से की है। वे कहते हैं इस चकाचौंध से आदमी वस्तुस्थिति देख सकने में असमर्थ अन्धों जैसा बन जाता है, उसे दीखना-सूझना बन्द हो जाता है और यह समझ में नहीं आता कि आगे कदम बढ़ाने की दिशा कौन सी है।

आमतौर से लोगों का लक्ष्य-सुविधा-साधनों का संचय और दूसरों को चकाचौंध में डालने वाले आतंक तक सीमित बनकर रह गया है। यह उपभोग तक सीमाबद्ध रहने वाली विचारधारा वस्तुतः पशु-सभ्यता है। इसे अपना कर कोई अपनी लिप्साओं की तुष्टि कर सकता है, पर उस आत्म-शान्ति से वंचित ही बना रहेगा, जिसे मनुष्य जीवन का श्रेष्ठ उपहार कह सकते हैं। पेट और प्रजनन की सुविधा सफलता की दृष्टि से शूकर को अधिक सौभाग्यशाली माना जा सकता है। रुचिकर और प्रचुर भोजन उसे सर्वदा उपलब्ध रहता है, साथ ही सन्तानोत्पादन में भी पशुवर्ग की सभी जातियों को पीछे छोड़ देता है। माँसल और परिपुष्ट काया के लिए भी वह गर्व कर सकता है। इतना सब होते हुए भी इसका लक्ष्य-विहीन जीवन किसी भी दृष्टि से सराहनीय नहीं ठहराया जा सकता। भौतिक प्रगति की दृष्टि से सफल और सुख-सुविधाओं से सम्पन्न व्यक्ति अपने सम्बन्ध में कुछ भी सोचे-मूल्याँकन की दृष्टि से वह नर पशु से आगे एक कदम भी बढ़ा हुआ नहीं समझा जा सकेगा।

कृतज्ञता और प्रत्युपकार मनुष्यता के प्राथमिक चिन्ह हैं। सज्जनता और सहकारिता के आधार पर ही आदमी आगे बढ़ा है, ऊँचा उठा है। यदि इन सत्प्रवृत्तियों को गँवा दिया जाय तो फिर आदमी-माँस का लोथड़ा भर रह जाता है।

जो कुछ हम हैं-वस्तुतः समाज के अनुदान एवं अनुग्रह के फल स्वरूप ही हैं। सहज कृतज्ञता और प्रत्युपकार की वृत्ति यही कहती है कि अनुदान की पुण्य-परम्पराओं को अविच्छिन्न रखने के लिए हमें भी अपना कर्तव्य पालन करना चाहिए और समुन्नत-समाज की संरचना में समुचित योगदान करना चाहिए।


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