उपवास स्वास्थ्य रक्षा का महत्वपूर्ण आधार

December 1973

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

भारत में उपवासों को धार्मिक मान्यता दी गई है। ‘तपोनानशनात् परम्’ के शास्त्र-वचन में उपवास को परम तप बताया गया है।

मातवे सर्व बालाना मौषधं रोगिणमिव। रक्षार्थ सर्व लोकानाँ निर्मितकादशी तिथिः। -स्कन्दपुराण

पक्ष उपवास की दृष्टि से एकादशी व्रत का भारी महात्म्य बताया गया है।

एकादशी की व्रताभ्यास बालकों का माता के समान पोषण करती है। रोगियों के लिए औषधि उपचार का काम देती है। समस्त संसार की रक्षा करती है।

इन धार्मिक प्रतिपादनों के पीछे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के संरक्षण अभिवर्धन के रहस्य छिपे पड़े हैं। उपवास शरीर की एक वैसी ही आवश्यकता है, जैसी श्रम के साथ विश्राम की। दिन के साथ रात की। अधिक और उपयुक्त श्रम करने की क्षमता बनाये रहने के लिए विश्राम की आवश्यकता न केवल प्राणियों को, वरन् मशीनों को भी पड़ती है। किसी मशीन को निरन्तर चलाया जाय तो वह जल्दी ही नष्ट हो जायगी। इसके विपरीत यदि बीच-बीच में उसे विश्राम देते रहा जाय तो कहीं अधिक समय तक काम करत रहेगी। साप्ताहिक अवकाश का नियम इसीलिए बनाया गया है कि एक दिन छुट्टी मनाने के बाद अधिक उत्साह पूर्वक काम कर सकना सम्भव हो सके। रात को यदि सोया न जाय तो थकान घेर लेगी और अनवरत श्रम करने पर जो लाभ सोचा गया था, वह न मिल सकेगा। ठीक यही बात पेट पर लागू होती है। उससे निरन्तर काम लिया जाय, कभी अवकाश न दिया जाय तो पाचन-यन्त्र नष्ट होने लगेंगे और रोज खाने से रोज ताकत मिलने की मूर्खतापूर्ण लालसा कभी पूरी न हो सकेगी। उपवास करने वालों की तुलना में नित्य खाते रहने वाले नफे में नहीं, नुकसान में रहते हैं।

जर्मनी और उत्तरी आस्ट्रिया के लोग अभी भी एक खाने से दूसरे खाने में आठ घण्टे से कम अन्तर नहीं रखते। दो बार से अधिक खाना वहाँ असभ्यता का चिन्ह माना जाता है।

अमेरिका के शरीर-शास्त्री डा. ऊप्टन सिंक्तेयर ने कहा है कि यदि लोग जीभ पर नियन्त्रण रखें, भूख से कम खायें, पचने के लिए उचित अवसर पेट को प्रदान करें तो संसार में आधी बीमारियाँ अपने आप दूर हो सकती हैं।

एक और विशेषज्ञ डा. प्युरिंगटन का कथन है कि पन्द्रह दिन में एक उपवास और भूख से कम खाने का सिद्धान्त यदि स्वीकार कर लिया जाय तो संसार पर छाया हुआ स्वास्थ्य संकट सहज ही हल हो सकता है।

यूनानी सभ्यता जिन दिनों उन्नति के उच्च शिखर पर थी, उन दिनों यह नियम प्रचलित हो गया था कि काम-धाम से निवृत्त होकर दिन में एक बार ही भोजन किया जाय। प्रातःकाल हलके से दो-चार बिस्किट खाना पर्याप्त था। इसके बाद लोग शाम को पाँच बजे कड़ाके की भूख लगने पर ही एक बार भोजन करते थे। उस काल में इटली के निवासी शारीरिक दृष्टि से बहुत ही अधिक समुन्नत स्थिति में पहुँचे थे।

रूस के जीव-विज्ञानी ब्ल्डादि मौर निकितन के स्वास्थ्य-संवर्धन सम्बन्धी शोध कार्य का निष्कर्ष यह है कि आदमी अधिक खाकर बेमौत मरता है। पचने की क्षमता से अधिक खाने की कुटेव अधिकाँश लोगों का पेट खराब कर देती है और वे अनेक बीमारियों के शिकार बनकर मौत के मुँह में घुसते चले जाते हैं। प्रो. निकितिन की सलाह यह है कि जिन्हें अधिक दिन जीना हो, उन्हें चाहिए कि भूख से कम खायें। दिन में दो बार से अधिक न खायें और सप्ताह में एक बार उपवास करें।

रोम का का सम्राट वैखासियन महीने में दो दिन उपवास करते थे और कम खाते थे। वे कहते थे कि -निरोग रहने का यह अच्छा तरीका है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118