व्यक्तिगत स्वर्ग और मुक्ति की बात सोचना अब हमें छोड़ देना चाहिए और समझना चाहिए कि इन्हें विखण्डित नहीं किया जा सकता। इनकी उपलब्धि कितनी ही मन्द गति से क्यों न हो-मिलेगी एक साथ ही। स्वर्ग मिलने की सम्भावना तभी है, तब जिस समाज में अपना रहना है, वह समुन्नत हो। निकृष्ट वातावरण में रहते हुए हम अपना चरित्र एवं मानसिक सन्तुलन बनाये नहीं रह सकते। दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों की प्रतिक्रिया सज्जनों पर भी होती है। फलस्वरूप वे अपनी उत्कृष्टता बनाये नहीं रह सकते। ऐसी दशा में कोई व्यक्ति सन्त या सज्जन ही क्यों न हो-स्वर्ग की प्राप्ति न कर सकेगा। डाकुओं के बीच धनी का निर्वाह नहीं हो सकता, उसे कभी भी कोई दबोच लेगा। उत्कृष्टता यों उत्पन्न तो एक में भी हो सकती है, पर उसका पोषण और अभिवर्धन परिस्थितियों के खाद-पानी से ही होगा। अकेले सुधरने से ही काम नहीं चलेगा, दूसरों को सुधारते हुए अपना सुधार सम्भव है। दूसरों को तारने का उपक्रम करते हुए हम भी तर सकते हैं।
कोई देश पराधीन हो तो उसका एक नागरिक स्वाधीन नहीं हो सकता, स्वतन्त्रता पूरे देश को मिलेगी-तभी उसका अमुक नागरिक भी स्वतन्त्र कहला सकेगा। दोष-दुर्गुणों से-कषाय -कल्मषों से-स्वार्थ और संकीर्णता से छुटकारा पाना ही मुक्ति है। लोभ और मोह को ही भव-बन्धन कहा गया है। केवल ईश्वर से डरें और कर्तव्य पालन पर अडिग रहें तो फिर हमें किसी से भी डरने की आवश्यकता न पड़ेगी। जिसने कायरता को जीत लिया, उसे सर्वत्र-स्वतंत्र और निर्भय कहा जा सकता है। प्रलोभनों के आगे न झुके-अनीति के आगे अधिक आपत्ति आने के डर से घुटने न टेके - अनौचित्य को अस्वीकृत कर केवल विवेक-संगत और न्याय समर्थित को ही अंगीकार करें तो समझना चाहिए कि आत्मिक-प्रगति को अवरुद्ध करने वाले असुरों पर विजय प्राप्त कर ली। आध्यात्मिक भाषा में मुक्ति का यही अर्थ है। जहाँ भगवान और भक्त दो ही रह जायें-व्यक्ति और आदर्श दो का ही अस्तित्व हो-अवांछनीय विकृतियों को घुस-पड़ने की जहाँ सम्भावना न हो-ऐसी मनः स्थिति को ही जीवन-मुक्ति कहते हैं। यही मानव-जीवन का परम लक्ष्य है।
किन्तु यह मुक्ति भी एकाकी नहीं हो सकती। जिस प्रकार सारे देश को विदेशी गुलामी से मुक्त कराया जाता है, उसी प्रकार समस्त मानव-समाज को निकृष्ट-चिन्तन व अवांछनीय कृत्य से विरत करना होगा। अन्यथा एक के कषाय-कल्मष दूसरे पर आच्छादित हुए बिना न रहेंगे। सूखी लकड़ी के साथ-साथ गीली लकड़ी भी जल जाती है। छूत की महामारी शुद्ध रक्त वालों को भी चपेट में ले लेती है। तात्पर्य यह है कि कुछ ही मनुष्य सन्त बनकर मुक्ति के अधिकारी बन जाएँ-यह नहीं हो सकेगा।
भगवान बुद्ध ने इस तथ्य को समझा था, वे कहते थे-संसार के समस्त प्राणियों के मुक्ता हो जाने के उपरान्त ही मुझे मुक्ति मिलेगी। तब तक मैं बार-बार जन्म लेता और मरता रहूँगा।” मुक्ति के लिए प्रयत्नशील तो रहूँगा, पर वह सर्वजनीन होगी, मेरे अकेले के लिए नहीं।
ऋषि ने ठीक ही कहा है-मुझे राज्य, सुख, स्वर्ग और मुक्ति आदि की कामना नहीं, दुख-तप्त प्राणियों के कष्ट-निवारण की ही कामना है।”
स्वर्ग उत्कृष्ट-चिन्तन का नाम है और मुक्ति-आन्तरिक दुर्बलताओं से छूटना। यह विभूतियाँ समस्त मानव समाज को उपलब्ध हो सकें, तभी व्यक्ति का कल्याण सम्भव होगा।