अपनों से अपनी बात

December 1973

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समाज-निर्माण अपने कर्तव्य का तीसरा चरण

व्यक्ति सुखी रहे, इसके लिए समुन्नत समाज की आवश्यकता है। समुन्नत समाज भी अपने आप नहीं बन जाता, उसे उत्कृष्ट नेतृत्व में अग्रगामी सज्जनों का समूह विनिर्मित करता है। जब श्रेष्ठ व्यक्ति घट जाते हैं और सामाजिक वातावरण में उत्कृष्टता बनाये रखने के रचनात्मक प्रयास शिथिल हो जाते हैं तो समाज का स्तर गिर जाता है। समाज गिरेंगे तो उस काल के व्यक्ति भी निकृष्ट, अधःपतित और दीन-दुर्बल बनते चले जाएँगे। अच्छा समाज अच्छे व्यक्ति उत्पन्न करता है और अच्छे व्यक्ति अच्छा समाज बनाते हैं। दोनों अन्योऽन्याश्रित हैं। मुर्गी में से अण्डा या अण्डे से मुर्गी? बीज में से वृक्ष अथवा वृक्ष में से बीज की तरह है। यह प्रश्न भी है कि व्यक्तियों से समाज अथवा समाज से व्यक्ति? वस्तुतः दोनों इतने अविच्छिन्न हैं कि उन्हें प्रथक किया ही नहीं जा सकता है। अच्छे व्यक्तियों की आवश्यकता हो तो अच्छा समाज बनाने के लिए जुटना चाहिए। अच्छा समाज बनाने पर ही श्रेष्ठ व्यक्तित्व की आवश्यकता पूरी होगी। सुख-साधनों को अभिवर्धन और समुन्नत लोक-व्यवहार का का प्रचलन ही सर्वतोमुखी सुखी-शान्ति का आवश्यकता पूरी करता है और इस प्रकार का उत्पादन प्रखर प्रतिभा सम्पन्न सुसंस्कृत व्यक्ति ही कर सकने में समर्थ होते हैं।

निजी स्वार्थ-सिद्धि की दृष्टि से विचारे अथवा परिवार के हित -साधन की दृष्टि से देखें-दोनों ही तरह यह आवश्यक हो जाता है कि सुसंस्कृत-समाज में रहकर ही निर्वाह करने का अवसर मिले। बुरे लोगों के बीच, बुरे वातावरण में-अपनी तथा परिवार की प्रगति के लिए किये गये सारे प्रयत्न निष्फल हो जाते हैं। जिस मुहल्ले में आग लगी हो, हैजा फैला हो-उसमें रहने वाले स्वच्छता प्रिय अथवा जागरूक लोगों की भी सुरक्षा नहीं होती। सूखे के साथ गीला जलने की कहावत चरितार्थ होती है। सूखे के साथ गीला जलने की कहावत चरितार्थ होती है। चारों और दुष्टों के पड़ोस में रहकर कोई सज्जन भी चैन से नहीं बैठ सकता। बैठना चाहे तो भी वे दुष्ट लोग शान्त रहने न देंगे। उपद्रव खड़े करके सन्तुलन बिगाड़ने। अपने परिवार को सुसंस्कृत बनाने के लिए कुछ भी क्यों न किया जाता रहे, पड़ोस की गन्दी हवा अपना प्रभाव छोड़ेगी और निकृष्टता का आकर्षण कुटुम्बियों में भी उसी प्रकार की दुर्बुद्धि के संस्कार पैदा करेगा। वेश्याओं के पड़ोस में रहकर-उनकी हरकतें भर देखते रहा जाय तो सदाचार की मानसिक मर्यादाएँ टूटे बिना न रहेंगी।

समाज में यदि अनैतिक, अवांछनीय, अपराधी-तत्व भरे पड़े हों तो उनकी हलचलें, हरकतें-किसी सन्त, सज्जन की उत्कृष्टता को सुरक्षित नहीं रहने दे सकतीं। विकृत समाज में असीम विकृतियाँ उत्पन्न करती हैं। उनकी लपेट में आये बिना कोई नीतिवान व्यक्ति भी रह नहीं सकता उसे प्रत्यक्ष एवं परोक्ष आक्रमणों का शिकार होना पड़ेगा। जहाँ खाद्य-पदार्थों में मिलावट का बोलबाला हो-वहाँ स्वास्थ्य-रक्षा पर ध्यान रखे रहने वाला व्यक्ति भी बीमार पड़े बिना नहीं रह सकता।

कुरीतियों और रूढ़ियों से भरे समाज में सामान्य मनोबल का सुधारवादी-चीं बोल जाएगा और उसे सिद्धान्तवाद ताक पर रखते हुए समूह गत प्रवाह में बहने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। दहेज के विरोधी और आदर्श विवाहों के समर्थक को भी जब अपनी जवान कन्या के लिए विवाह का कोई सुयोग बनता नहीं दीखता तो जाति बिरादरी वालों और दहेज-लोभियों की शरण में ही जाना पड़ता है और उनके इशारे पर चलने के लिए विवश होना पड़ता है। सुविस्तृत समाज के विरुद्ध एकाकी खड़े रहने वाले तो कोई विरले ही सुस्साहसी होते हैं, सामान्य मनोबल के लोग तो लड़खड़ा ही जाते हैं।

शिक्षा में उद्दण्डता भरती जाय तो न तो अपनी लड़की का गृहस्थ चैन से बैठेगा और न बेटे की बहू घर में शान्ति रहने देगी। क्या जामाता क्या पुत्र बहू? निकले तो उसी शिक्षा-संस्था से है, जहाँ-उच्छृंखलता का निरन्तर बोलबाला रहता है। यह बच्चे जिस प्रकार का प्रशिक्षण पाते रहे हैं, उसका प्रभाव उनके गृहस्थ पर न पड़े-यह हो ही नहीं सकता। देश-शिक्षा-पद्धति से हमें क्या लेना-देना कहकर काम नहीं चल सकता है। उसका प्रभाव अपने बच्चों के गृहस्थ जीवन पर पड़ेगा ही और फलस्वरूप अपनी बेचैनी भी बढ़ेगी ही।

इसी प्रकार शासन की स्थिति -व्यापारियों की रीति-नीति-अपराधों और अनैतिकता की वृद्धि-साहित्य और कला संगीत का प्रवाह -मूर्धन्य व्यक्तियों का कर्तृत्व-वर्ग-संघर्ष आदि की विषाक्तता-किसी सज्जन सद्गृहस्थ को शान्ति पूर्वक जीवन-यापन नहीं करने दे सकती। वास्तविकता यही है कि व्यक्ति एकाकी निर्वाह नहीं कर सकता, उसे समाज से प्रभावित होना ही पड़ता है। इतना ही नहीं उस प्रवाह में जन-साधारण की पीढ़ियों का मनः स्तर अनायास ही ढलता चला जाता है। बुरे वातावरण में केवल बुराई ही पनपती है। बुरे लोग बढ़ते हैं और उनके उपद्रवों से बुरी परिस्थितियाँ ही उफनती है। ऐसी स्थिति में व्यक्तिगत रूप से किया गया स्वाध्याय, चिन्तन मनन, पूजा, पाठ अथवा सज्जनोचित निर्वाह में कुछ सार नहीं रह जाता।

व्यक्ति निर्माण और परिवार निमार्ण की तरह ही समाज-निमार्ण भी हमारे अत्यन्त आवश्यक दैनिक कार्यक्रमों का अंग माना जाना चाहिए। अपने लिए हम जितना श्रम, समय, मनोयोग एवं धन खर्च करते हैं, उतना ही समाज को समुन्नत, सुसंस्कृत बनाने के लिए लगाना चाहिए। यह परोपकार परमार्थ की दृष्टि से ही नहीं, विशुद्ध स्वार्थसाधन और सुरक्षा की दृष्टि से भी आवश्यक है।

अपनी क्षुद्रता की संकीर्णता को व्यापक आत्मीयता में विकसित करना ही अध्यात्म तत्व दर्शन का मूलभूत प्रयोजन है। इस दृष्टिकोण को अपनाने पर ही संयम, सदाचार, सेवा, एवं लोकमंगल के लिए संकल्प एवं उत्साह उत्पन्न होता है और उन्हें निरन्तर निबाहने के लिए साहस, विश्वास बढ़ता है। ईश्वर-भक्ति इस तात्त्विक दृष्टि का नाम है। इसी तत्व-दर्शन का प्रतिपादन करने के लिए धर्म, अध्यात्म एवं ईश्वरवाद का विशाल-काय कलेवर खड़ा किया गया है। स्वर्ग और मुक्ति जैसे अमरफल आत्म-विस्तार के कल्पवृक्ष पर ही लगते हैं। साधना, उपासना, तपश्चर्या, योग-परायणता वैराग्य, संन्यास, दान-पुण्य स्वाध्याय सत्संग एवं विविध-विधि धर्म-कृत्यों का एक मात्र प्रयोजन यही है कि आत्मा पर चढ़े हुए संकीर्ण-स्वार्थपरता के वे कषाय कल्मष हट जाएँ तो वासना-तृष्णा के-लोभ-मोह के भव-बन्धनों में जकड़े रहते हैं। नरक कोई स्थान नहीं, संकीर्ण स्वार्थपरता की निकृष्ट दृष्टिकोण की प्रतिक्रिया मात्र है। उदारता एवं सेवा-साधना के जल-साबुन से ही मनःक्षेत्र पर छाई हुई मलिनताएँ धोई जाती हैं। यह समस्त प्रयोजन समाज-सेवा का व्रत धारण किये बिना सम्भव नहीं हो सकते। सेवा-धर्म को अंगीकार किये बिना कोई व्यक्ति मात्र पूजा-पाठ की टण्टघण्ट अपनाये रहकर सच्चा अध्यात्मवादी नहीं बन सकता और न उसे आत्मिक प्रगति का लाभ मिल सकता है।

प्राचीन काल में साधु और ब्राह्मण वर्ग अपना समस्त जीवन लोक-मंगल के लिए समर्पित करते थे। वानप्रस्थ-आश्रम- स्वार्थ की परिधि से निकलकर परमार्थ की कक्षा में प्रवेश करने की सन्धि बेला ही तो है। क्षुद्रता की -संकीर्णता की-आत्मवत् सर्व भूतेषु, वसुधैव कुटुम्बकम् के देवत्व में विकसित परिणत करने का व्यावहारिक कार्यक्रम वानप्रस्थ के रूप में अप्त-पुरुषों ने निर्धारित किया है। भारतीय संस्कृति की सुनिश्चित परम्परा है कि वैयक्तिक और पारिवारिक प्रयोजनों के लिए किसी को भी आधे से अधिक समय एवं मनोयोग नहीं लगाना चाहिए।

जीवन का पूर्वार्ध- ब्रह्मचर्य-गृहस्थ की भौतिक-प्रगति के लिए पर्याप्त है। उत्तरार्ध को-वानप्रस्थ एवं संन्यास के रूप में समाज के लिए समर्पित करना चाहिए। यह विधान इसीलिए है कि व्यक्ति को अपना महत्वपूर्ण अनुदान समाज-निर्माण के लिए देना चाहिए। दान-पुण्य का जो महात्म्य महत् बताया गया है, उसके पीछे भी यही प्रयोजन है।

प्राचीन काल में साधु-ब्राह्मण उन्हें कहते थे, जो लोक मंगल के लिए ‘सर्वतो भावेन’ आत्म-दान करके उसी में तन्मय निमग्न हो जाएँ। उन दिनों देवालयों और तीर्थ-स्थानों का निमार्ण-जन कल्याण के लिए संचालित प्रवृत्तियों के केन्द्र संस्थान के रूप में होता था। उनका संचालन ऋषि-कल्प देव-पुरुषों के हाथ में रहता था। जनता भी इस झंझट में नहीं पड़ती थी कि इन दिनों किन सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन को प्राथमिकता दी जाय? यह निर्णय साधु-ब्राह्मणों की परिषद ही करती थी।

धार्मिक जनता साधु-ब्राह्मणों को-तीर्थ देवालयों को दान इसी के लिए देती थी कि उसके द्वारा समाज में सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन का प्रयोजन पूरा होता रहे। इन लोक-सेवा के निर्मित बने धर्म-केन्द्रों को भगवान को निवास-गृह माना जाता था और वहाँ जाकर लोग श्रद्धा से मस्तक नवाते थे एवं संचालित सत्प्रवृत्तियों में योगदान देने की प्रेरणा प्राप्त करते थे। तीर्थ में विशेष समारोह भी समय-समय पर इसी आह्वान के लिए होते थे कि इन अवसरों पर अधिक संख्या में, अधिक भावना-सम्पन्न लोग एकत्रित हो और समाज-निर्माण के लिए तत्कालीन योजनाओं को अग्रगामी बनाने के लिए व्यावहारिक मार्गदर्शन एवं अभीष्ट उत्साह प्राप्त करें। समय दान-श्रम दान-धन दान का एक मात्र उद्देश्य समाज के पिछड़ेपन को दूर करना-पिछड़े वर्गों को ऊँचा उठाना है। इस प्रयोजन को पूरा करने वाले व्यक्तियों तथा संगठनों का पोषण करना है।

पिछड़े वर्ग में अन्धे, कोढ़ी, अपंग, दीन, दुर्बल ही नहीं आते, वरन् ऐसे अज्ञानी, कुमार्गगामी, उद्दण्ड एवं दुराग्रही भी आते हैं-जो औचित्य एवं विवेक का तिरस्कार करके अवांछनीय लोक-प्रवाह में बहते हुए चले जा रहे हैं। अन्न-वस्त्र अन्धे-अपंगों को बाँटने भर से समाज-सेवा की इतिश्री नहीं हो जाती, वरन् उनकी सहायता का भी ध्यान रखना चाहिए-जो अविवेक का शिकार होकर घिनौना और दुराग्रही जीवन जी रहे हैं, वस्तुतः यह वर्ग और भी अधिक दया का पात्र है। सत्प्रेरणाएँ देकर यदि उन्हें सन्मार्गगामी बनाया जा सके तो गन्दे नाले में गिरकर नष्ट होने वाली महत्वपूर्ण शक्ति को बचाया और उपयोगी प्रयोजनों में लगाया जा सकता है। इसमें उन भूले-भटको का भी कल्याण होता है और समाज को ऊँचा उठने का भी अवसर मिलता है। विचार-क्रान्ति एवं ज्ञान-यज्ञ की पुण्य-प्रक्रिया ज्ञान-दान के जिस महान् उद्देश्य को पूर्ण करती है, उसे अन्न-वस्त्र दान की तुलना में लाख-करोड़ गुना अधिक श्रेयस्कर, सत्परिणमोत्पादक माना जाएगा।

अपने समाज में आज अगणित दुष्प्रवृत्ति संव्याप्त है। असंख्य उलझी हुई समस्याएँ सामने हैं। कष्ट, कलह और शोक-सन्ताप के असीम कारण मौजूद हैं। इन विकृतियों के दुष्परिणाम पग-पग पर भुगतने पड़ रहे हैं। मनुष्य पतित और दुष्ट बनता जा रहा है। अपने और दूसरों के लिए विपत्तियाँ और विभीषिकाएँ उत्पन्न कर रहा है, इस समस्त शृंखला की जड़ में व्यापक दुर्बुद्धि ही उफनती दिखाई देती है। चिन्तन का स्तर निकृष्टता के दल-दल में फँस जाने से उत्पन्न विग्रह की चीख-पुकार ही आज दसों दिशाओं में कुहराम गूँज रहा है। संसार में न तो वस्तुओं का अभाव है और न उपयुक्त परिस्थितियों में कोई कमी है। विपत्ति केवल दुर्बुद्धि की उत्पन्न की हुई हैं। सद्भावों का स्थान दुर्भावों ने सत्प्रवृत्तियों के स्थान दुष्प्रवृत्तियों ने पकड़ लिया है। फलस्वरूप जो वस्तुएं सुख-शान्ति एवं प्रगति के अभिवर्धन में लग सकती थीं, वे ही विपत्तियाँ एवं उलझने बढ़ाने में प्रयुक्त हो रही है। प्रगति के स्थान पर अधोगति पल्ले बँध रही है। इसका निराकरण फुंसियों पर मरहम लगाने से नहीं, रक्त-शुद्धि का उपचार करने से होगा। अमुक कठिनाई को अमुक उपास से हल करने की बात सोचना मुरझाए पेड़ की पत्तियाँ धोने की तरह है, इससे कुछ बनेगा नहीं। काम तो जड़ सींचने से चलेगा।

जीवन के हर क्षेत्र में-समाज के हर वर्ग में-दुष्प्रवृत्तियों ने गहराई तक जड़े जमा ली है। फलस्वरूप हर दिशा में संकटों के दान सर्वभक्षी नग्न-नर्तन कर रहे हैं। लड़ना हमें उन दुर्बुद्धि से है, जो समस्त विपत्तियों की जननी है। समाज-सेवा के यों छुट-पुट उपाय भी बहुत हैं, और उन्हें खड़ा करने वाले को थोड़ा यश भी मिल जाता है, पर इससे संकट के मूल प्रयोजन को टालने में प्याऊ, धर्मशाला, दवाखाना, बगीचा, मन्दिर आदि स्थापित करने वाले ‘धर्मात्मा’ कहलाने की वाहवाही प्राप्त कर सकते हैं। आत्म-विज्ञान का लाभ तो इसमें प्रत्यक्ष है, पर विश्व-संकट की छाई हुई घटाओं को खिसकाने में इससे तनिक भी सहायता नहीं मिलती। दुर्बुद्धि से लड़ने के लिए विचार-क्रान्ति का गाण्डीव उठाना पड़ेगा और पाँच जन्य बजाना पड़ेगा। परशुराम के कुल्हाड़े को सँभाल कर निकृष्ट-चिन्तन के परिवार का शिर उतारना पड़ेगा। किसी समय रावण, कुम्भकरण, कंस, जरासन्ध, दुर्योधन, दुशासन, महिषासुर, मधुकैटभ, वृत्रासुर, हिरण्यकश्यपु आदि का दमन धर्म-स्थापना के लिए आवश्यक माना गया था। आज दुष्प्रवृत्तियों के परिपोषक ज्ञान का कलेवर ओढ़कर नग्न-नृत्य करने वाले अज्ञान रूपी महादैत्य का दमन करना पड़ेगा। विचार-क्रान्ति किये बिना समाज निमार्ण की आधार-शिला नहीं रखी जा सकेगी। ज्ञान यज्ञ के बिना सुख शान्ति एवं प्रगति की सर्वतोमुखी संभावनाएं प्रस्तुत कर सकने वाले नव-युग का अवतरण नहीं हो सकेगा। हमें हनुमान् आदि की तरह-पाण्डवों की तरह धर्म की स्थापना कर सकने वाले अधर्म-विरोधी अभियान में अपने आप को झोंकना चाहिए। गोवर्धन उठाने में योगदान देने वाले ग्वाल-बालों की तरह अपनी भूमिका उत्साह पूर्वक सम्पन्न करनी चाहिए। भले ही वह देखने में कितनी ही नगण्य क्यों न हो।

युग-निमार्ण योजना का तीसरा चरण समाज-निमार्ण का है। आत्म-निमार्ण और परिवार-निमार्ण के समान ही उसकी भी महत्ता उपयोगिता है। संगठनात्मक, प्रचारात्मक, रचनात्मक और संघर्षात्मक कार्यक्रमों के अंतर्गत समाज-निमार्ण की जो सुव्यवस्थित क्रिया-प्रक्रिया प्रस्तुत की गई है, उसमें उन सभी तत्वों का समावेश है- जो आज की स्थिति में समाज उत्थान के सुनिश्चित आधार बन सकते हैं। विचार-विस्तार जैसा व्यापक और महान् प्रयोजन संगठित संस्थान ही कर सकते हैं। वह मिल-जुल कर करने का काम है। एक व्यक्ति चाहे कितना ही प्रतिभाशाली क्यों न हो, जन-संपर्क का कार्य बड़े पैमाने पर नहीं कर सकता। इस युग की सबसे बड़ी सामर्थ्य संघ-शक्ति ही है। जहाँ भी युग-निमार्ण विचारधारा से परिचित प्रभावित लोग हों, वहाँ उन्हें संघबद्ध होना चाहिए। प्रतिदिन 10 पैसा और एक घण्टा समय नव-निर्माण आन्दोलन के लिए नियमित रूप से देते रहने वाला कोई भी व्यक्ति इस शाखा-संगठन का सदस्य बन सकता है। पदाधिकारी एक ही होता है, जिसे कार्य-वाहक कहते हैं।

संगठन का प्रथम और प्रमुख कार्य विचार-क्रान्ति की भूमिका प्रस्तुत करना है। इसके लिए झोला-पुस्तकालय ज्ञान-रथ विज्ञप्ति-वितरण पोस्टर चिपकाना, दीवार लेखन आदि कार्य हाथ में लेने होते हैं। साप्ताहिक -सत्संग कथा, कीर्तन, विचार-गोष्ठियाँ युग-निमार्ण सम्मेलन, कविता-सम्मेलन संगीत-सम्मेलन गायत्री-यज्ञ जन्म-दिन विवाह-दिवस संस्कार, पर्व-आयोजन आदि के माध्यम से जन-सम्मेलनों के प्रचार अभियान को आगे बढ़ाया जाता है। पढ़े-लिखों को साहित्य पढ़ाकर और बिना पढ़ों को प्रतिपादनों को सुनाकर विचार-परिष्कार का प्रयास किया जाता है। ‘मस्तिष्कीय धुलाई’ का नाम ही ज्ञान-यज्ञ है। पिछले अज्ञानान्धकार-युग की अनैतिकताएं, कुरीतियाँ, मूढ़ताएँ, अन्ध-मान्यताएँ संकीर्णताएँ अभी भी हमारे मस्तिष्कों में कूट-कूट कर भरी है। मनुष्य बेतरह व्यक्तिवादी और स्वार्थान्ध बना हुआ है। लोक-मंगल परमार्थ प्रयोजन एवं समाज-उत्थान में हमारा क्या योगदान होना चाहिए? यह बात एक तरह से भुला ही दी गई है। अध्यात्म दर्शन तक सिद्धि-चमत्कार स्वर्ग, मुक्ति मनोकामना पूर्ति की सड़ी दुर्गन्ध में फँसकर रह गया है। लोक-मंगल के उद्देश्य से यहाँ ढाँचा खड़ा किया गया था, यह किसी को ध्यान नहीं नहीं प्रातः-स्नान करके पाप-फल बचाव और सस्ते कर्मकाण्ड करके स्वर्ग का अक्षय पुण्य प्राप्त करने के लालच में जैसे-तैसे लोग कुछ धार्मिक टण्ट-घण्ट करते हैं। संयम-सेवा की कर्तव्य-निष्ठा तो एक प्रकार से धर्म-प्रयोजनों में से हटा ही दी गई है। जब धर्म-अध्यात्म का यह हाल है, तो अन्य क्षेत्रों में अनाचार की सड़ान जितनी कुछ पनपे-कम है। इस स्थिति को बदलने के लिए क्रान्तिकारी विचारधारा का लोक-मानस में प्रवेश कराया जाना आवश्यक है। उखाड़ने के साथ-साथ उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श-कृत्य की प्रेरणा भरने वाले तत्त्वज्ञान की स्थापना भी आवश्यक है। युग-निमार्ण साहित्य द्वारा इन्हीं प्रयोजनों की पूर्ति की जा रही है। लेखनी और वाणी के दोनों माध्यमों के ज्ञान-यज्ञ को ज्योतिर्मय बनाने के लिए प्रयुक्त किया जा रहा है। हम में से प्रत्येक को इस संगठनात्मक और प्रचारात्मक कार्यक्रमों में उत्साह पूर्वक अपना भाव भरा योगदान देना चाहिए।

समाज -निर्माण का आधार बनाने वाले संगठनात्मक और प्रचारात्मक पूर्वार्ध की जहाँ जड़ जमने लगे, वहाँ अभियान का उत्तरार्ध कार्यान्वित किया जाना चाहिए। युग-निमार्ण पाठशाला, शिल्पशाला, प्रौढ़-शिक्षा पुस्तकालय, व्यायामशाला आदि की स्थापना और संचालन व्यवस्था बनाई जानी चाहिए। शाखाओं की समर्थता सिद्ध करने वाले ज्ञान-रथ लाउडस्पीकर, स्लाइड प्रोजेक्टर, टेप-रिकार्डर यज्ञ-आच्छादन आदि उपकरण एकत्रित करने चाहिए और उनके माध्यम से जन-जागरण का अभियान तीव्र करना चाहिए। सामूहिक श्रमदान की परम्परा जहाँ भी चल पड़ेगी, वहाँ अनेकों रचनात्मक कार्य सहज ही बढ़ने लगेंगे। सहकारी आन्दोलन को प्रोत्साहित किया जा सके तो सृजन की असंख्य प्रवृत्तियाँ सहज ही सामने खड़ी हो सकती है।

संघर्षात्मक आन्दोलनों में कुरीतियों और अनैतिकताओं के दुहरे मोर्चे पर लड़ा जाना आवश्यक है। विवाहोन्माद में होने वाला अपव्यय दहेज-प्रचलन रोकने के लिए हमें युद्ध स्तर पर तीव्र आन्दोलन खड़ा करना चाहिए और देश को निरन्तर खोखला, अनैतिक ओर दरिद्र बनाते जाने वाले इस अनाचार का हर सम्भव उपाय से डटकर विरोध करना चाहिए। मृतक-भोज भिक्षा-व्यवसाय धर्म-क्षेत्र पर छाया हुआ पुरोहितवाद, भूत-पलीत भाग्यवाद, धर्म के नाम पर पशुबलि, बाल-विवाह अनमेल-विवाह जन्म-जाति के नाम पर ऊँच-नीच की मान्यता, के प्रति अमानवीय प्रतिबन्ध ऐसे हैं, जिन्हें अविलम्ब हटाया जाना चाहिए। नैतिक क्षेत्र में माँसाहार, नशेबाजी, आलस्य, श्रम की अप्रतिष्ठा, पशुओं के साथ बरती जाने वली निर्दयता, भ्रष्टाचार, चोरी, बेईमानी, रिश्वत, जमाखोरी, मुनाफाखोरी, सन्तान की अवांछनीय अभिवृद्धि, गंदगी फिजूलखर्ची, नागरिक-कर्तव्यों की उपेक्षा, समय की बरबादी, उद्दण्ड उच्छृंखलता आदि अनेकों दुष्प्रवृत्तियाँ प्रचलित हैं, जिन्हें सहन किया जाता रहा तो इस नासूर से सारा समाज शरीर ही सड़ जाएगा।

अनाचार प्रायः हर क्षेत्र में अपनी जड़ें गहरी करता चला जा रहा है। इसके खतरों से जनसाधारण को सचेत किया जाना चाहिए। लोक-मानस में अवांछनीयता के प्रति विरोध असहयोग एवं विद्रोह की भावनाएँ जगाई जानी चाहिए। कुड़कुड़ाते रहने की अपेक्षा अनीति से जूझने की संघर्षात्मक चेतना उभारी जानी चाहिए और उसका सजीव मार्ग-दर्शन हमें आगे बढ़कर करना चाहिए। ऐसे संघर्षों को आगे बढ़ाने वाले प्रतिनिधियों का आक्रमण सहना पड़ता है और तरह-तरह की क्षति उठानी पड़ती है। इसके सहने के लिए जिनमें धैर्य, शौर्य, सन्तुलन और साहस हो, उन्हें आगे बढ़कर संघर्ष का मोर्चे पर हम में से हर किसी को करना चाहिए कि अनीति एवं अनौचित्य के साथ कोई सम्बन्ध न रखें-समर्थन न करें-सहयोग न दें। उससे पूरी तरह अलग रहें और समय-समय पर अपने असहयोग एवं विरोध को व्यक्त करते रहें। दुर्बल और असंगठित स्थित में इस ‘असहयोग’ से भी काम चल सकता है। आगे बढ़ना हो तो विरोध व्यक्त करने के लिए लेखनी, वाणी और प्रदर्शन जैसे साधनों का उपयोग किया जा सकता है। सत्याग्रह, घिराव, भर्त्सना, धिक्कार और दूसरे प्रतिरोधात्मक उपाय भी काम में लाये जा सकते हैं। कहाँ, किस अनीति के विरुद्ध, क्या कदम उठाया जाय? इसका निर्णय अपने पक्ष के साहस और संगठन पर निर्भर करता है। जहाँ जो सम्भव हो-अनीति के विरुद्ध मोर्चा बनाया ही जाना चाहिए। ताकि आततायी, अनाचारियों को निर्भय होकर कुछ भी करते रहने की छूट न मिले।

समाज-निमार्ण के लिए हमें सृजन-सेना का सैनिक बनकर संगठनात्मक, प्रचारात्मक, रचनात्मक और संघर्षात्मक मोर्चे संभालने चाहिए। इसके लिए अपने समय और साधनों का अधिकाधिक अनुदान विश्व-मानव के चरणों पर समर्पित करना चाहिए। साधारणतया आठ घण्टे आजीविका उपार्जन के लिए, सात घण्टा शयन-विश्राम के लिए, पाँच घण्टा घरेलू और शारीरिक कामों के लिए, कुल मिलाकर 20 घण्टे निजी कामों में खर्च करने चाहिए और 4 घण्टे समाज-निमार्ण की उपरोक्त चार क्रिया-प्रक्रियाओं में लगाने चाहिए। एक घण्टा ओर दस पैसा प्रतिदिन विचार-क्रान्ति के लिए लगाना तो आरम्भिक सदस्यता शर्त है। कर्मठ कार्यकर्ताओं को एक न्यूनतम अनुदान तक सीमित न रहकर बढ़-चढ़ कर त्याग, बलिदान का आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए। महीने में एक दिन की आजीविका समाज-निमार्ण के लिए हर उदार व्यक्ति आसानी से खर्च कर सकता है। यों यदि हृदय में विशालता हो तो घर-परिवार के एक सदस्य के रूप में युग-परिवर्तन के देवता को महाकाल को गिना जा सकता है। समझा जा सकता है कि यदि एक सन्तान और होती तो उसका भी किसी प्रकार भरण-पोषण करना ही पड़ता। वैसा मानकर चला जाय तो निर्धन व्यक्ति भी इस महान प्रयोजन के लिए अपना अनुकरणीय अनुदान आर्थिक स्तर पर भी प्रस्तुत कर सकता है। समय, श्रम, प्रभाव, मनोयोग एवं धन जैसे समस्त साधनों की बढ़ी-चढ़ी मात्रा हमें युग-देवता के सम्मुख प्रस्तुत करनी चाहिए। पेट और प्रजनन के लिए, लोभ और मोह के लिए सारी शक्तियाँ लगी रहें तो यह किसी आदर्शवादी और विचारशील व्यक्ति के लिए लज्जा की बात ही समझी जा सकती है।

जिनकी पारिवारिक उत्तरदायित्व हलके हो गये हैं। बड़े बच्चे कमाऊ हो गये हैं और अपने छोटे बहन-भाइयों को सम्भालने की स्थिति में आ गये हैं अथवा पूर्व संचित सम्पत्ति के सहारे वे स्वावलम्बी बनने तक अपना निर्वाह कर सकते हैं, उन्हें अपना पूरा समय लोक-मंगल के लिए समर्पित करना चाहिए। रिटायर लोग पेन्शन, फण्ड आदि इतना पा लेते हैं कि उनके पीछे यदि पत्नी आदि की जिम्मेदारी रह गई है तो उसकी पूर्ति होती रहे। जिनके बच्चे नहीं हैं, वे तो मानो भगवान ने इसी प्रयोजन के लिए आरम्भ से ही परोपकारी, पुण्यात्मा के रूप में पैदा किये हैं। उन्हें अपने को ऐसा सौभाग्यशाली मानना चाहिए कि जिनके सामने परमार्थी-जीवन जीने का द्वार खुला पड़ा है। जिन्हें केवल कन्याएँ दी हैं वे भी कम सौभाग्यवान् नहीं है। बच्चियों का विवाह करके वे समाज-निर्माण के मोर्चे पर निरन्तर जुटे रह सकते हैं। साधु और ब्राह्मणों की प्राचीन परम्परा को पुनर्जीवित करने के लिए हम में से प्रत्येक को जीवन का उत्तरार्ध-वानप्रस्थ प्रयोजन के लिए समर्पित करने की तैयारी करनी चाहिए। समाज-निमार्ण का व्यापक और महान् प्रयोजन ऐसा दुस्साहस कर गुजरने वाले ही सम्पन्न करते हैं। जिनकी अन्तरात्मा और आदर्शवादी विचारधाराएँ उमड़ती हों-लोक मंगल के लिए कुछ अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत की महत्त्वाकाँक्षा जागती हो-उन्हें युग की पुकार सुननी चाहिए और स्वार्थपरता को परमार्थ-परायणता परिवर्तित करके अपनी महत्त्वाकाँक्षा का परिचय देना चाहिए।

आत्म-निमार्ण परिवार-निमार्ण और समाज-निमार्ण की त्रिविधि क्रिया-प्रक्रिया सम्पन्न करते हुए युग-निमार्ण की समग्र आवश्यकता पूरी की जाय-उसके लिए बढ़-चढ़कर शौर्य, साहस दिखाया जाय-इसी में अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्यों का गौरव है।


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