समष्टिगत उत्कृष्टता ही धर्म का प्राण है।

December 1973

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समष्टि का देवता ही हमारा आराध्य होना चाहिए। लोकहित को हम सर्वोपरि रखें। सदुद्देश्यों को आश्रय दें। इसके लिए व्यक्तिगत क्षति उठानी पड़े तो सहें। धर्म का तत्व-दर्शन यही है। जब व्यक्तिगत स्वार्थ की वितृष्णा बढ़ जाती है और उसके लिए समष्टि के हित की उपेक्षा की जाती है तो पाप के लिए द्वार खुल जाता है और अनेकानेक अकरणीय कार्य होने लगते हैं। व्यक्ति अपने स्वार्थों को सँभाले तो सही, पर वे इतने प्रबल न हो उठें कि समष्टिगत स्वार्थों से टकराने लगें। यदि वह टकराये तो ऐसी दुष्प्रवृत्तियाँ उत्पन्न करेंगे, जिससे व्यक्ति और समाज दोनों का घोर अहित होगा।

विवेकशीलता और मनुष्यता की माँग यह है कि आदमी व्यक्तिगत महत्त्वाकाँक्षाओं के क्षेत्र में संयम बरतें, स्वल्प-संतोषी बने और अपरिग्रह व्रत का पालन करे। इस प्रथम भूमिका का सम्पादन करने के बाद ही मनुष्य उस द्वितीय भूमिका में प्रवेश कर सकता है, जिसे पुण्य, परमार्थ, महानता, धार्मिकता, आध्यात्मिकता, मनुष्यता आदि के गौरवशाली नामों से सम्बोधन किया जा सके।

व्यक्ति का गौरव-उसके कर्तव्यनिष्ठ और समाज परायण रहने में है। यदि इतना किया जा सके तो अभाव ग्रस्त स्थिति में रहते हुए भी यह अनुभव किया जाना चाहिए कि जीवनोद्देश्य को पूरा कर सकने वाली महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त कर ली। इसके विपरीत यदि कोई अपने अहंकार की पूर्ति और वैभव की वृद्धि में ही लगा रहे-अपने उत्पादनों का लाभ कुटुम्ब के दो-चार व्यक्तियों को ही उठाने देने की मोहग्रस्त संकीर्णता बरते तो समझना चाहिए कि उसके कष्टसाध्य प्रयास विश्वहित की दृष्टि से निरर्थक ही चले गये।

भौतिक सम्पदा से कुछ ऊंचे उठकर कुछ लोग व्यक्तिगत सम्मान के प्रश्न को प्रमुखता देने लगते हैं और वह अहंकारिता इतनी प्रबल हो उठती है कि यदि पूरी न हो सकी तो वह अपने प्रिय प्रतिपादन को ही तोड़ने में लग जाती है। नेता बनने की -पदाधिकारी होने की-लोगों की आँखों में सम्मानित समझे जाने की भूख भी धन-लोलुपता से कम भयंकर नहीं, वह भी कम अनर्थ नहीं करती। प्रशंसा और प्रतिष्ठा के भूखे मनुष्य भी लोभग्रसित कृपणों से कम अनर्थकारी नहीं होते। वे त्याग के नाम पर अर्थ-हानि उठा सकते हैं, पर प्रतिष्ठा की स्थिति हाथ से निकलते देखकर साँप की तरह फुफकारने लगते हैं। और कभी-कभी ऐसा विषैला दाँत मारते हैं कि वह पेड़ ही जल जाता है, जिस पर उनका अपना कोंचना बना हुआ था।

संसार में जितने अनर्थ और अपराध धन-ऐश्वर्य लूटने के लिए हुए हैं, उससे हजारों गुने अनाचार अहंकार और दर्प ने कराये हैं। द्रौपदी के कुछ कटु शब्दों से मर्माहत होकर दुर्योधन ने वह रुख अपनाया, जिसने महाभारत काल में हुआ नर-संहार अनिवार्य कर दिया। यह अहंकार के दैत्य का निर्भय अनुदान था, जिसने इस देश को सहस्रों वर्षों तक दुर्गति सहने वाले गर्त में धकेल दिया। जयचंद ने अपने व्यक्तिगत अपमान और स्वार्थ हानि की बात को प्रमुखता दी और भारत-भूमि को आक्रमणकारियों द्वारा पैरों-तले रौंद दिये जाने का पथ प्रशस्त कर दिया।

राज-सत्ता हथियाने के लिए लड़े जाने वाले शीतयुद्धों और रक्तयुद्धों में जितना धन लिप्सा का हाथ होता है, उससे हजारों गुना विजय-श्री का वरण करने की उद्धत आकांक्षा काम करती है। सिकन्दर और नैपोलियन पड़ोसी देशों की निरीह-प्रजा को रक्त-स्नान कराने के लिए विजेता कहलाने की उद्धत लालसा से ही ओत-प्रात हो रहे थे।

उद्धत ठाट-बाट और वैभव प्रदर्शन के लिए कितना अपव्यय होता है। इसका प्रभाव विवाह-शादियों की धूम-धाम में कहीं भी देखा जा सकता है। धर्मात्मा कहलाने की सनक में लोग न जाने जनता को किन-किन भ्रमों में उलझाते हैं और न जाने उन भोले भावुकों का कितना धन कितना श्रम नष्ट करते हैं? लोभ और मोह के कुचक्र में फँसे व्यक्ति जितने अनाचार करते हैं, उससे अधिक वे लोग करते हैं, जिनकी दर्प भरी तथाकथित प्रतिष्ठा उफनती रहती है। आन-वान शान पर न जाने कितनों को फिदा और फना होना पड़ता है।

चोर भी धनी बनते हैं, अनाचारी भी मौज उड़ाते हैं, अहंकारी भी विजेता बनते हैं, विदूषकों की हरकतें भी लोक-रञ्जन करती हैं, पैर ऊपर और हाथ नीचे करके चलने वालों को देखकर भी दर्शक तालियाँ बजाते हैं। यदि इतनी ही छोटी उपलब्धियों के लिए मनुष्य समष्टि का अहित करने वाले कार्य करने लगे तो इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए।

सदाशयता इसमें है कि मनुष्य व्यक्तिगत घाटा ही नहीं, अपयश सहकर ही समष्टिगत हित-साधन को ही प्रधानता दे। महानता इसमें है कि धन नहीं मान खोकर भी मनुष्य वह करे-जिससे लोक-हित साधना हो। दूर-दर्शिता इसमें है कि उच्च आदर्शों की समाज में विजयी बनाने के लिए व्यक्तिगत आदर्शवादिता की उपेक्षा भी कर दी जाय। साधन और साध्य दोनों उत्तम हों तो उसे स्वर्ण सुयोग कहा जा सकता है, पर जब आपत्ति-धर्म सामने आ खड़ा हो तो साध्य की गरिमा को विजयी बनाने के लिए साधनों की आदर्शवादिता को घटाया या गिराया भी जा सकता है।

महाभारत की अनेकों घटनाएँ इस तथ्य पर प्रकाश डालती हैं कि धर्म को विजयी बनाने के लिए उन आचरणों का भी आश्रय लिया गया, जिन्हें व्यक्तिगत दृष्टि से अधर्म ही ठहराया जाएगा। तत्त्वदर्शी और योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने केवल ऐसे कार्यों का समर्थन ही किया, वरन् मूलतः वे ही उनके सूत्र संचालक भी थे। सत्य की रक्षा के लिए असत्य आचरणों को उन्होंने प्रोत्साहन देते हुए यही ध्यान रखा कि इसमें भले ही प्रयोक्ता को निन्दा का अथवा पाप का ही शिकार क्यों न बनना पड़, समष्टि-हित का लक्ष्य पूरा होना चाहिए। धर्म परम्परा को विनयी होना चाहिए।

स्पष्ट है कि भगवान का हर अवतार धर्म की रक्षा और अधर्म का उन्मूलन करने के लिए ही होता है। यह भी स्पष्ट है कि अहिंसा की धर्माधिकरण की प्रथम पंक्ति में गणना है। फिर भी प्रायः प्रत्येक अवतार को शस्त्र-पाणि होकर अधार्मिक तत्वों का दमन हिंसा से करना पड़ता है। बलि और वामन उपाख्यान में वामन भावना द्वारा बलि के साथ छल करने की बात स्पष्ट है। बुद्ध का भरी जवानी में स्त्री-पुरुष का त्याग धर्म-मर्यादाओं के अंतर्गत नहीं आता। राम सीता-त्याग भी सामान्य न्याय की कसौटी पर खरा कहाँ उतरता है , समष्टि हित-साधन को दृष्टि में रखकर किये गये अनुचित कार्यों की सूची यदि तैयार की जाय तो उस लपेट में अवतार, देवता, ऋषि भी आये बिना न रहेंगे। पाण्डु, धृतराष्ट्र और विदुर को जन्म देने वाले महर्षि व्यास का अवैध सन्तानोत्पादन धर्म-मर्यादाओं से सम्मत कहाँ था? द्रौपदी के पतिव्रत-धर्म की पुष्टि किस संहिता के आधार पर की जाय? युधिष्ठिर द्वारा नरों वा कुँजरोवा’ का भ्रम उत्पन्न करने के उपरान्त भी उनका धर्मराज-पद छिना नहीं और वे स्वर्ग के अधिकारी यथावत बने रहे। कारण स्पष्ट था -उन्होंने व्यक्तिगत अपयश को सहन करते हुए भी धर्म-पक्ष को विजयी बनाने के लिए पाप-दण्ड और अपयश को बिना खेद अनुभव किये प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार किया।

भगवान कृष्ण ने प्रतिज्ञा की थी कि वे महाभारत में शस्त्र नहीं उठायेंगे, पर धर्म-पक्ष के सम्मुख अनर्थ प्रस्तुत होते देखकर उन्होंने भीष्म के विरुद्ध शस्त्र उठाये और अपनी व्यक्तिगत प्रतिज्ञा टूटने की परवाह न की। अर्जुन द्वारा जयचंद-वध किये जाने का समूचा प्रकरण प्रतिज्ञा-भंग और छल-छलावा से भरा पड़ा है। भीष्म, द्रोण, कर्ण, दुर्योधन आदि कौरवों के सभी सेनानी प्रत्यक्ष लड़ाई में नहीं हारे, इन सबको युद्ध मर्यादाओं का उल्लंघन करते हुए भी पाण्डवों द्वारा मारा गया था।

कुन्ती ने कर्ण के पास जाकर अपनी कलंक-गाथा का रहस्योद्घाटन किया कि वह उसके कौमार्य-काल में जन्मा पुत्र है। इस रहस्योद्घाटन से कुन्ती की कीर्ति को कलुषित होना पड़ा। यदि वह रहस्य छिपा ही बना रहता तो उस समय के लोग और पीछे के इतिहासकार उस पर कोई उँगली न उठा पाते। इस तथ्य को कुन्ती भी जानती थी, पर उसने धर्म-पक्ष को विजयी बनाने के लिए उथली निन्दा-प्रशंसा के चक्र से ऊपर उठने का निश्चय कर लिया। कीर्ति की दृष्टि से यह एक प्रकार की मृत्यु ही थी, जिसे संभ्रान्त लोग प्रायः स्वीकार करने का तैयार नहीं होते। कुन्ती ने वैसा साहस किया। कर्ण को समझाया। पूर्ण मनोरथ तो नहीं पाया, पर आधा लाभ तो उसने उठा ही लिया। अर्जुन के अतिरिक्त अन्य सब पाण्डवों के लिए कर्ण का अभय वचन तो वह ले ही आई।

महाभारत की घटनाओं का धर्म-अधर्म की दृष्टि से यदि विश्लेषण किया जाय तो पाण्डव-पक्ष द्वारा अपनाई गई गति विधियों में से अधिकाँश को अधार्मिक ठहराया जा सकेगा। कृष्ण-चरित्र पर भी पग-पग पर उँगली उठाई जा सकेगी। इसके विपरीत कौरव-अधिक धर्म परायण दिखाई पड़ेंगे। परन्तु यह धार्मिकता उनके व्यक्तिगत अहंकार एवं सम्मान की रक्षा भर के लिए थी। जिस पक्ष के लिए वे लड़ रहे थे, उसकी वफादारी का स्पष्ट उल्लंघन होता था।

‘शिखण्डी से युद्ध नहीं करूंगा’ की प्रतिज्ञा को भीष्म ने अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा बना लिया था। वे यह नहीं सोच सके कि सेनापति के लिए व्यक्तिगत प्रतिज्ञा का महत्व क्यों होना चाहिए। उसे तो पद के अनुरूप कर्तव्य ही पालन करने का ध्यान रखना चाहिए।

सेनापति द्रोणाचार्य का पुत्र मारा गया तो वे शोक ग्रस्त होकर शस्त्र पटक बैठे। सेनापति के लिए व्यक्तिगत पुत्र-शोक के लिए क्या स्थान हो सकता है? युद्ध-क्षेत्र में प्रवेश करने वाले को जीवन और मृत्यु से ऊपर उठना पड़ता है और ‘अपना बेटा या पराया बेटा’ वाला अन्तर हटाना पड़ता है। द्रोणाचार्य का व्यक्तिगत उभरा रहा , फलतः वे स्वयं भी मरे और अपने पक्षधरों को भी ले डूबे।

कर्ण अपनी दान-वीरता का यश कुण्ठित नहीं करना चाहते थे। माँगने वाले से मना करके अपयश क्यों ओढ़े? इसी व्यक्तिवाद ने कवच और कुण्डल दान करा दिये। उनके रहते अपराजय बनकर वे अपने पक्ष का कितना हित-साधन कर सकते थे-इस दूरगामी चिन्तन को वे भुला बैठे। सूर्य ने यों तो इस के छल की सम्भावना से पहले ही सचेत कर दिया था, पर उन्हें तो अपनी दान-वीरता द्वारा उपलब्ध होने वाली ख्याति की ही चिन्ता थी। सेनापति का कर्तव्य क्या कहता है-इसे तो उनने झुठला ही दिया।

कौरव-पक्ष चूँकि समष्टि दृष्टि से अधर्म-पोषक था, इसके लिए उसके पक्षधर प्रत्यक्षतः धार्मिक आचरण करते हुए दीखते हुए भी अधार्मिक ही कहे जाते हैं। इसके विपरीत धर्म-पक्ष को विजयी बनाने के लिए लड़ने वाले पाण्डव धर्मजीवी के रूप में ही प्रशंसा-पात्र होते हैं, यद्यपि युद्ध-काल में उनके द्वारा बरते गये क्रियाकलापों में प्रत्यक्ष अधार्मिकता की भी कमी नहीं थी।

वस्तुतः समष्टि का हित-साध नहीं धर्म है। आदर्श वादी परम्पराओं और नीति-न्याय का संरक्षण ही धर्म है। शाश्वत-धर्म की रक्षा के लिए प्रचण्ड प्रयत्न होने ही चाहिए। इसमें यदि व्यक्ति को अनुचित कार्य करने का अप्रिय उत्तरदायित्व संभालना पड़े तो भी साहस पूर्वक स्वीकार करना चाहिए। व्यक्तिगत रूप में यश-हानि करने वाले इस प्रयास में जिसे व्यक्तित्व और अधिक क्षति-ग्रस्त करना पड़ा है, उसके त्याग को धर्म-तत्व की गहन दृष्टि से देखा जाय तो सराहा ही जाएगा।


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