योग विद्या का वैज्ञानिक विश्लेषण

January 1972

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चेतन मस्तिष्क के चमत्कार सर्वसाधारण को विदित हैं। विद्वान लेखक, कलाकार, वैज्ञानिक, दार्शनिक, व्यवसायी आदि अनेकों वर्ग के बुद्धिजीवी अपनी बौद्धिक चेतना के बल पर अपना तथा दूसरों का कितना हित साधन करते हैं यह किसी से छिपा नहीं है। बौद्धिक चेतना का महत्व समझते हुए ही विद्यालयों की स्थापना होती है और उस विद्या अनुष्ठान में अगणित छात्र एवं अध्यापक संलग्न रहते हैं। बौद्धिक सम्पदा को एक बहुत बड़ी उपलब्धि माना जाता है।

अचेतन मस्तिष्क इससे भी अधिक रहस्यपूर्ण है। उस क्रिया-कलाप का केवल सात प्रतिशत ही मनोविज्ञानी तथा नृतत्त्ववेत्ता जान सके हैं। शरीर यात्रा की स्वसंचालित गतिविधियों का संचालन, नियन्त्रण, परिवर्तन अचेतन मस्तिष्क द्वारा होता रहता है। हमारी अभिरुचि, प्रकृति और आदतें बहुत कर इसी अविकसित मस्तिष्क में जड़े जमायें रहती है मोटे तौर पर इतना ही जाना जा सकता है। पर अब इस संबंध में मैटाफिजिक्स, पैरासाइकोलॉजी अतीन्द्रिय विज्ञान आदि विज्ञान की कितनी ही धाराओं ने अचेतन मस्तिष्क के बारे में खोज शुरू की है और पाया है कि यह संसार का सबसे अधिक रहस्यमय, अद्भुत और शक्तिशाली तन्त्र है, यदि अचेतन मस्तिष्क में सन्निहित सम्भावनाओं को पूरी तरह समझा जा सके और उन्हें कार्यान्वित किया जा सके तो इतना बड़ा चमत्कार उत्पन्न हो सकता है जितना कि पदार्थ विज्ञान की अब तक की प्रगति से भी सम्भव नहीं हुआ है।

अप्रत्यक्ष और अतीन्द्रिय-इस मानव जीवन में और इस विश्व में बहुत कुछ है। विराट् ब्रह्माण्ड को खोज करके अब तक बहुत कुछ प्राप्त किया जा चुका है-जो प्राप्त किया जाता है कहीं उससे भी अधिक शेष है। लेकिन मानवीय शरीर अभी तक बहुत कम खोजा जा सका। एनाटॉमी और फिजियोलॉजी के आधार पर ज्ञान बहुत ही मोटा और भोंड़ा है। ऊतक, कोशिकाओं, जीन्स, हारमोन्स आदि कितने अतिसूक्ष्म किन्तु अति समर्थ अवयवों की विचित्र शक्ति का रहस्योद्घाटन होता चलता है कि रुग्णता-आरोग्यता के आधार आमाशय गुर्दे आदि नहीं वरन् उनके भीतर काम करने वाले यही छोटे तत्व हैं। मस्तिष्क विद्या न्यूरोलॉजी-साइकोलॉजी से आगे की अतीन्द्रिय विद्या है जो अचेतन मस्तिष्क से सम्बन्ध रखती है। यदि इस शक्ति केन्द्र को समझा सँभाला जा सके तो यहाँ सब कुछ देवताओं के अद्भुत वर्णन चित्रण जैसा दिखाई पड़ सकता है। अति महत्वपूर्ण यन्त्रों से हो सकने वाले क्रिया-कलाप तब मानवीय अचेतन क्षमता के माध्यम से ही सम्पन्न हो सकते हैं।

अतीन्द्रिय विद्या के शोधकर्ताओं का कथन है कि चेतन मस्तिष्क की सक्रियता-अचेतन की क्षमता तरंगों को काटती है इसलिए उसे अविकसित स्थिति में पड़ा रहना पड़ता है। यदि बौद्धिक संस्थान की गतिविधियाँ मन्द से शिथिल की जा सकें तो उसी अनुपात से अचेतन केन्द्र जागृत हो सकता है और उसके माध्यम से अविज्ञान का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। योग विद्या के आचार्य बहुत पहले ही इस निष्कर्ष पर पहुँच चुके हैं और उन्होंने प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि जैसी साधनाओं के माध्यम से चेतन मस्तिष्क को शिथिल निष्क्रिय एवं शून्य स्थिति में ले जाने की सफलता प्राप्त की। यह सफलता की अनेक चमत्कारी सिद्धियों की जननी है। दूर-दर्शन, दूर-श्रवण, विचार-प्रेरणा, भविष्य ज्ञान, अदृश्य का प्रत्यक्ष आदि कितनी ही ऐसी विशेषतायें प्राप्त की जा सकती हैं जो साधारणतया मनुष्यों में होती नहीं।

बौद्धिक मस्तिष्क को शिथिल करके इच्छा शक्ति, प्राण शक्ति यदि अचेतन को विकसित करने में लगाई जा सके तो व्यक्ति अपने शरीर में कायाकल्प जैसे परिवर्तन कर सकता है-अति दीर्घजीवी हो सकता है-अदृश्य जगत का ज्ञान प्राप्त करके उसमें चल रही हलचलों को मन्द शिथिल एवं परिवर्तित कर सकता है। इन सम्भावनाओं को योग साधना द्वारा प्रत्यक्ष किया जाता रहा है। अब भी उनके प्रत्यक्ष और प्रमाणित किये जाने की पूरी गुंजाइश है।

योग-साधना का मूल सिद्धान्त ‘चित्त वृत्तियों का निरोध’ है। इसका तात्पर्य है मस्तिष्कीय अतिशय सक्रियता को नियन्त्रित करके चेतनात्मक शक्ति के अपव्यय को बचा लेना और उस बचे हुए प्राण-प्रवाह को अचेतन के विकसित करने में नियोजित कर देना। निःसंदेह यह एक पूर्ण विज्ञान सम्मत प्रक्रिया है। इसके लाभ अलौकिक उपलब्धियों के रूप में देखे जा सकते हैं। समाधि स्थिति तक पहुँचा हुआ व्यक्ति त्रिकालदर्शी और विश्व की जड़−चेतन सत्ता को प्रभावित कर सकने में समर्थ बन जाय तो इसमें कुछ भी अचम्भे की बात नहीं है।

विश्व के अगणित जीव-जंतुओं में विविध प्रकार की ऐसी अद्भुत क्षमतायें पाई जाती हैं जिनसे मनुष्य वंचित है। इसका एक ही कारण है मनुष्य के बौद्धिक संस्थान को अति सक्रिय होने से उसकी ऊष्मा अचेतन को दबा लेती है और उससे शरीर संचालन भर की गतिविधियाँ पूरी हो पाती हैं। अलौकिक और अद्भुत प्रयोजन पूरे कर सकने वाला माद्दा तो एक प्रकार से कुण्ठित हुआ ही पड़ा रहता है।

कीड़े-मकोड़े और जीव जन्तु बौद्धिक दृष्टि से पिछड़े होते हैं। उनका चिन्तन और चेतन शिथिल रहता है इसका लाभ उनके अचेतन को मिलता है और वे योगियों जैसे कितने ही अद्भुत कार्य कर सकते हैं। कुत्तों की घ्राण शक्ति अति सूक्ष्म होती है। वे व्यक्तियों की शारीरिक गंध में रहने वाली भिन्नता को पहचान लेते है और जन-संकुल भीड़ में उसी गंध के आधार पर खोजते हुए अपने मालिक को तलाश लेते हैं। चोरों का पता लगाने में प्रशिक्षित कुत्ते अब बहुत कारगर सिद्ध हो रहे हैं। वे जिस आधार पर चोरी का, चोरी के माल का पता लगाते हैं वह उनके अधिक विकसित अचेतन मस्तिष्क से संबंधित घ्राण शक्ति ही है। प्रयत्न करने से मनुष्य भी उस क्षमता को विकसित कर सकता है जो बुद्धिहीन कुत्ते करते हैं इस कार्य को मनुष्य और भी अच्छी तरह कर सकता है।

चमगादड़ के ज्ञानतन्तु राडार क्षमता से सम्पन्न होते हैं। उसका अचेतन मस्तिष्क अपने साधारण से शरीर के आधार पर विभिन्न वस्तुओं से निकलने वाली रेडियो तरंगों को भलीभाँति पहचान लेता है और घोर अन्धेरे में भी अपने आस-पास की वस्तुओं का स्वरूप एवं स्थान को समझ कर अपने उड़ने का क्रम बिना किसी से टकराये हुए जारी रख सकता है।

समुद्री मछली ‘डाल्फिन’ अपने शरीर से एक प्रकार की रेडियो तरंगें निकालती है। पानी के भीतर ही वे दूर तक फैलती हैं और उस क्षेत्र के जीव-जन्तुओं से टकरा कर उसी के पास वापिस लौट आती है। अचेतन मस्तिष्क क्षणभर में यह जान लेता है कि कौन जीव किस आकृति-प्रकृति का कितनी दूर है। उसी आधार पर वह अपने बचाव तथा आक्रमण की योजनाबद्ध तैयारी करती है।

बहुत से जीव जन्तुओं के अचेतन मन ने अपनी इच्छा और आवश्यकतानुसार शरीरों में ऐसी विशेषताएं उत्पन्न कर ली हैं जो आरम्भ में नहीं थी। गोताखोरों की तरह मेढ़क ने जल में प्रवेश करने पर आँखों पर चढ़ाया जा सकने वाला एक विशेष प्रकार का चश्मा विकसित कर लिया है जो चिर अतीत में नहीं था। रावन प्लान्ट और ग्रेट मुलर पौधों ने पशुओं द्वारा चरे जाने से आत्मरक्षा के लिए नोकदार काँटे विकसित किये हैं। तितलियों के बच्चे और रेशम के कीड़े अपने शरीर से रस निकाल कर उस पर पत्तियाँ चिपका लेते हैं और आत्म-रक्षा की सुविधा उत्पन्न करते हैं। कछुए ने मगरमच्छों से अपने स्वादिष्ट माँस को बचाने के लिए चमड़ी को मोटा किया है। व्हेल मछली ने पनडुब्बियों की सारी खास-खास विशेषतायें अपने शरीर में उपस्थित कर रखी हैं। लगता है मनुष्य ने शायद व्हेल की शरीर रचना देखकर ही पनडुब्बियों का विकास किया हो। मगरमच्छ अपने दाँत साफ कराने के लिए मुँह खोल कर धूप में पड़े रहते हैं। चिड़ियाँ निर्भय होकर उसके मुँह में भीतर तक अपनी गर्दन प्रवेश करती है सफाई में लगी रहती हैं। वे जानती है कि माँसाहारी होने पर भी इस समय मगर की इच्छा क्या है और उसे पूरा करते समय उनके जीवन को संकट उत्पन्न होने की आशंका नहीं। गिलहरी ने अपने गालों में दो जेबें विकसित की है ताकि वह उनमें उपलब्ध खाद्य सामग्री जल्दी से जमा कर सके। बन्दर के गले में भी ऐसी ही थैलियाँ होती हैं। कंगारू के पेट में भी एक ऐसी ही जेब होती है ताकि वह उसमें अपने बच्चे रख सके।

गर्मी-सर्दी का सही पता हमें थर्मामीटर के आधार पर लगता है पर छोटे कीड़ों का अचेतन उन्हें स्थिति का ज्ञान उसी सामान्य शरीर से करा देता है। 40 डिग्री फारेनहाइट पर सभी कीटाणु अपना काम बन्द कर देते। 50 डिग्री ताप पर मक्खी अपने लिए सुरक्षित स्थान ढूँढ़ कर वहाँ छिप जाती है। 55 डिग्री पर चींटियां और मधुमक्खियाँ अपने घरों में घुस जाती हैं। शहद की मक्खियाँ तभी काम पर निकलती है जब 85 डिग्री तापमान हो जाता है। 95 डिग्री पर टिड्डों का संगीत शुरू होता है। आहार उपलब्धि की दृष्टि से असुविधा का समय समीप आते ही चींटियां तथा दूसरे कीड़े अपने लिए आहार जमा करने लग जाते हैं। उनका भविष्य ज्ञान बिल्कुल सही होता है। दीमक और चींटियों के झुण्डों की लड़ाई देखने ही योग्य है। उनकी मोर्चेबन्दी, आक्रमण तथा बचाव की प्रक्रिया से मनुष्य योद्धाओं के लिए बहुत कुछ सीखने को मिल सकता है।

अफ्रीका का ‘काटन रेल’ जाति का खरगोश हिंसक जन्तुओं का खतरा देखकर अपनी पिछली टाँगें एक खास तरीके से जमीन में मारता है, उससे एक विद्युतधारा पैदा होती है व उस भूमि के ऊपर वाले परत पर दूर तक फैल जाती है। दूसरे खरगोश उस टेलीफोन को तुरन्त सुन लेते हैं और सजग होकर अपने बचाव की तैयारी करने लगते हैं। खरगोश ही नहीं दूसरे छोटे जानवर भी इस टेलीफोन से लाभ उठाते और बचने की व्यवस्था बना लेते हैं। जेट विमान की हूबहू प्रणाली के आधार पर समुद्री झींगे ‘सीएरे’ का शरीर रचना है। द्रुतगति से दौड़ने की यह प्रणाली उसके अद्भुत अचेतन की अनोखी देन है।

उत्तरी अमेरिका की नदियों में पाई जाने वाली ‘ईल’ मछली अपने आप में एक अच्छा खासा डायनेमो है। घरों की बत्तियाँ 22 वोल्ट पर जलती हैं पर उसके शरीर से 500 से भी अधिक वोल्ट की बिजली उत्पन्न होती देखी गई है। एन्टीना तितली के सींग रेडियो और टेलीविजन की जरूरत पूरी करते हैं। नर झींगुर अपनी काम तृप्ति के लिए एक विशेष प्रकार की तान छेड़ता है और उसके आकर्षण से मादाएं उसके समीप एकत्रित होती हैं। ‘निर्गर’ मछली के गले में एक छुरी छिपी रहती है जिससे वह अपनी शिकार को हलाल करती है और कोई बड़ा जानवर उसे निगल ले तो इसी छुरी से उसका पेट चीर कर बाहर निकल आती है।

वर्षा की सम्भावना निकट आते ही मकड़ी अपना जाला खुली जगहों में से समेट कर बचाव की जगह पर चली जाती है। गिरने वाले मकान में से बिल्ली अपने बच्चों को लेकर कुछ ही समय पूर्व सुरक्षा के लिए प्रयाण करती देखी गई है। कछुआ अण्डे बालू में देता और अपनी मानसिक चेतना से उन्हें सेता पकाता है। अनुकूल ऋतु की तलाश में पक्षी हजारों मील उड़ कर समुद्र और पर्वतों को लाँघते हुए कहीं से कहीं चले जाते हैं और फिर सुविधा की ऋतु आने पर फिर इतनी लम्बी यात्रा बिना भूले भटके पार करके वापिस आ जाते है। कई मछलियाँ अण्डे देने के लिए अपनी पूर्व जानकारी के उपयुक्त स्थान पर पहुँचने के लिए हजारों मील की यात्रा करती हैं और फिर वापिस आती हैं। बया पक्षी का घोंसला कितना मजबूत होता है। रेशम के कीड़े अपने लिए कैसा अच्छा खोल बनाते हैं।

यह सब क्रियाकलाप इन छोटे जीव-जन्तुओं का अचेतन मन कराता है। यदि अचेतन मन की सामान्य शक्ति को चेतन मस्तिष्क की उत्तेजित ऊष्मा नष्ट न किया करे तो अन्य जीवों की तुलना में हजारों गुना अधिक विकसित मानवीय मस्तिष्क इतने अधिक दिव्य कर्तव्य सम्पन्न कर सकता है कि जितने में समस्त जीव-जन्तुओं की सम्मिलित अचेतन सत्ता से भी सम्भव नहीं हो सके।

योग-साधना इसी प्रयोजन को पूरा करती है। वह विद्या विलास या बौद्धिक विकास पर प्रतिबन्ध नहीं लगाती। मानसिक उत्कर्ष, विद्याध्ययन, कला-कौशल और व्यवस्थापक शिक्षा की उसमें पूरी छूट है। प्रतिबन्ध केवल इस बात का है कि मनः क्षेत्र को उत्तेजित, विक्षुब्ध एवं अशान्त न होने दिया जाय। गीता, योगवशिष्ठ तथा दूसरे अध्यात्म ग्रन्थों में शम, दम, तितीक्षा आदि का उपदेश दिया है। अनासक्ति और स्थित प्रज्ञता पर जोर दिया है। समत्व का प्रतिपादन किया है। इसका तात्पर्य यह है कि अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियाँ आती ही रहने वाली हैं। उत्तेजना पैदा करने वाली स्थिति घटित होते रहना स्वाभाविक है। संस्थाओं समाज और व्यक्ति का निर्माण ही कुछ ऐसे ढंग से हुआ है कि पारस्परिक मिलन से प्रिय-अप्रिय संवेदनाएँ उत्पन्न हों और मन को प्रसन्नता या अप्रसन्नता के ज्वार-भाटे की तरह आन्दोलित करें। प्रकृति का क्रम भी सदा मनुष्य की इच्छानुकूल नहीं रहता। ऋतु प्रभाव की तीव्रता, सुभिक्ष, दुर्भिक्ष, ईति-भीति, जरा-मरण जैसे परिवर्तनशील घटनाक्रम आये दिन उलटते-पलटते रहते हैं। इनसे क्षुब्ध न होने और चित्त को अनुग्रहित बनाये रहने के लिए यदि मन को साध लिया जाय तो वह समत्व की स्थिति जहाँ अधिक बुद्धिमत्ता पूर्वक प्रगति पथ पर चलने का द्वार खोलती है वहाँ अचेतन मस्तिष्क की दिव्यता की काट करने वाली उथल-पुथल भरी मानसिक ऊष्मा को भी बढ़ने नहीं देती। फलतः व्यक्ति इस सन्तुलन के कारण बौद्धिक क्षमता को भी अधिकाधिक विकसित करने का लाभ उठाता है और अचेतन मन को भी अस्त-व्यस्त एवं दुर्बल नहीं होने देता।

योग का प्रथम चरण यही ‘मानसिक सन्तुलन’ है। दूसरा चरण है कुछ समय के लिए चेतन मस्तिष्क की गतिविधियों को रोककर उस संस्थान में काम करने वाली विद्युत शक्ति को-अचेतन मस्तिष्क को विकसित करने के लिए नियोजित करने की क्षमता प्राप्त करना। इस साधना में एकाग्रता के लिए प्रयत्न करना पड़ता है। मन में उठने वाले विभिन्न संकल्पों को रोककर उसे एक केन्द्र पर स्थिर रहने के लिए साधना सिखानी पड़ती है। बहुमुखी चिन्तन की अपेक्षा एक सीमित परिधि में चिन्तन है तो अस्त-व्यस्तता में बिखरती रहने वाली चेतना केन्द्रित होने लगती है। छोटे से आतिशी शीशे पर पड़ने वाली सूर्य किरणें जब एक बिन्दु पर एकत्रित करली जाती हैं तो वहाँ आग जला सकने वाला ताप उत्पन्न हो जाता है। विचारों का एकत्रीकरण भी ऐसी ही मानसिक क्षमता उत्पन्न करता है। एकाग्रता एक अद्भुत मानसिक समर्थता है। मैस्मरेजम, हिप्नोटिज्म इसी एकाग्रता इच्छा शक्ति और चक्षु तेजस सम्मेलन का छोटा किन्तु प्रत्यक्ष चमत्कार है।

एकाग्रता को आगे बढ़ाते हुए चित्त को जागृत अवस्था में ही संकल्पपूर्वक लय कर देना समाधि है। इसके लिए प्रत्याहार, धारणा, ध्यान की भूमिकाएँ पार करनी पड़ती हैं। इन साधनाओं के द्वारा, सचेतन बुद्धि संस्थान की चिन्तन और संकल्प क्षमता को शिथिल करके वहाँ लगे हुए तेजस् को जब अचेतन के साथ जोड़ दिया जाता है तो उसकी वे दिव्यताएं जो अद्भुत और अनुपम हैं सजग और सक्षम होना शुरू कर देती हैं। इस दिशा में जो जितनी सफलता प्राप्त करता चलता है उसे उतना ही समर्थ सिद्ध पुरुष कहा जाता है।

हठ योगियों ने इस दिशा में कुछ पगडंडियां दूसरी भी निकाली हैं। किन्हीं वनस्पतियों की सहायता से सचेतन केन्द्र को प्रसुप्त करना ऐसी ही एक पगडंडी है। कहते हैं कि चिर अतीत में योगी लोग सोमपान करते थे और मध्यकाल में गाँजा जैसी वनस्पतियों का प्रयोग किया जाता था सम्भवतः यह इसलिये किया गया होगा कि मन को विवेकपूर्वक अभ्यास और वैराग्य के द्वारा साधने में देर लगती थी, परिश्रम पड़ता था और दृष्टिकोण तथा क्रिया कलाप में हेर-फेर करना पड़ता था। यह कष्ट साध्य, श्रम साध्य और समय साध्य प्रक्रिया अपनाने की अपेक्षा लोग सरल मार्ग ढूँढ़ने लगे होंगे। हो सकता है कि तात्कालिक कुछ लाभ भी इस प्रकार होता हो और चेतन मस्तिष्क को शून्य करके उसे चेतना को बचाने और उसे अचेतन में लगाने की सफलता किसी अंश में मिल जाती हो। पर यह रास्ता पूर्णतया गलत है। नशे द्वारा चेतन मस्तिष्क को यदि तन्द्राग्रस्त कर भी लिया जाय तो उस अनिश्चित स्थिति में ऐसा संकल्प बल संजोये रखना कठिन है जिससे उस बची हुई चेतना को विधिवत् अचेतन में लगाया जा सके वह अस्त-व्यस्त भी हो सकती है। साथ ही नशेबाजों से शारीरिक, मानसिक क्षतियों का होना तो स्वयंसिद्ध है।

योग का सर्वमान्य सिद्धान्त यही है कि बौद्धिक चेतना पर नियन्त्रण स्थापित करके अचेतन को दबाने से रोकना और सहायता के रूप में नियुक्त करना। इन प्रयोगों को यदि व्यवस्थित और वैज्ञानिक ढंग से किया जा सके तो निःसंदेह मनुष्य साधारण न रह कर असाधारण ही बन सकता है।


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