तीसरी आँख लेकर परकाया प्रवेश तक

January 1972

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प्रस्तुत घटना एक ऐसे व्यक्ति से संबंधित है जिसको “तीसरी आँख” (आज्ञा चक्र) प्राप्त थी। तृतीय नेत्र शल्य-क्रिया (ऑपरेशन) से खुला था पहला शरीर जीर्ण-शीर्ण हो जाने पर उसने एक मृत अमेरिकन के शरीर में प्रवेश कर सारे अमरीका के तथाकथित विज्ञानवादियों के सम्मुख एक प्रश्न उपस्थित कर दिया कि स्थूल शरीर की कल्पना भ्रम या अन्धविश्वास नहीं है। प्राप्त विवरण इस बात के प्रमाण हैं कि शरीर नष्ट हो जाने पर भी सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व चिरकाल तक बना रहता है।

सन् 1909 में तिब्बत के एक धर्मनिष्ठ परिवार में एक बच्चे ने जन्म लिया। 1926 तक ल्हासा से विभिन्न विषयों का अध्ययन करने के बाद इस बालक ने चीन की यात्रा की और वहाँ के चुकिंग मेडिकल कॉलेज से सर्जन की डिग्री प्राप्त कर ली। डॉक्टर बनने के बावजूद युवक की रुचि सदैव हवा में उड़ने की हुआ करती सो उसने वायुसेना में कमीशन प्राप्त करने का प्रयास किया-उसमें सफलता भी मिली और वह “फ्लाइंग डॉक्टर” बन भी गया। 1937 के युद्ध में वह जापान द्वारा बन्दी बना लिया गया। बन्दी जीवन में उसने भरपूर यातनायें झेली पर निराश होना तो उसने सीखा ही नहीं था-एक दिन चुपचाप जापानियों की कैद से निकल भागा और यहीं से इस युवक के एक विचित्र जीवन की शुरुआत हो गई।

अनेक योरोपीय देशों का भ्रमण करने के बाद युवक पुनः तिब्बत लौट आया। साँसारिक यातनाओं से थके व्यक्ति को भगवान् की याद आती है और तब वह अपने आपको एक नये आध्यात्मिक वातावरण में अनुभव करता है, इससे उसकी सूक्ष्म एवं अदृश्य अतिमानसिक शक्तियों का विकास होता है। स्वामी नारायणनन्द ने कुण्डलिनी शक्ति के जागरण की साधनाओं का उल्लेख करते हुये लिखा है कि यदि व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में केवल सत्य बोलने का प्रण कर ले, गुरु में इतनी निष्ठा जम जाये कि वह अपना शरीर माँगे तो वह भी देते हुये हिचक न आये तो ऐसे व्यक्तियों की कुण्डलिनी शक्ति का अनायास जागरण हो जाता है। शक्ति संस्थान के जागरण के इन कारणों में अत्यधिक यातना से पीड़ित होना भी शामिल है सम्भवतः अध्यात्मवादी इसी कारण केवल दुःख की कामना करते हैं क्योंकि उससे आत्मा को ब्रह्म से जोड़ने वाली शक्ति रेखा का आचरण सम्भव हो जाता है। इस युवक के साथ प्रत्यक्षतः कुछ ऐसा ही हुआ। उसकी सुषुम्ना नाड़ी प्रायः दिनभर चलती रहती जिससे उसमें आध्यात्मिक विचारों की एक न टूटने वाली धारा बहने लगी। और इसी सतत् आध्यात्मिकता ने उसमें कठिन योग साधनाओं का साहस पैदा कर दिया।

तिब्बत योग साधनाओं, सिद्धि चमत्कारों का गढ़ माना जाता है। तिब्बत के ज्योतिषी और योगी विश्व विख्यात हैं। यह युवक जब बच्चा ही था अनेक ज्योतिषियों ने उसके बारे में घोषणा की कि वह लामा-अवतार है, एक दिन प्रसिद्ध योगी बनेगा और पश्चिम में जाकर वहाँ की छिन्न-भिन्न धार्मिक आस्थाओं को नया जीवन देगा और उन्हें पूर्वीय दर्शन की ओर मोड़ने में समर्थ होगा। तिब्बत लौटने पर जब उसने शक्ति जागरण की कठिन साधनायें प्रारम्भ की तभी से उसके संबंध में की गई भविष्यवाणियाँ सच होने लगीं। यह युवक और कोई नहीं सुप्रसिद्ध योगी और अतीन्द्रिय दृष्टा श्री टू जडे लोबसाँग रम्पा हैं जो इन दिनों मान्ट्रियल में निवास करते हैं और जहाँ उनके अनुयायियों की संख्या हजारों तक है।

शक्ति-साधनाओं के लिये जहाँ साधक का मनोबल आवश्यक होता है वहाँ उसकी शारीरिक क्षमताओं का भी प्रौढ़ एवं परिपुष्ट होना भी आवश्यक है आग के पास ठण्डे जल के अन्दर, तेज हवा के प्रवाह में अथवा जमीन के अन्दर गढ़कर शरीर एक निश्चित बर्दास्त की सीमा तक ही स्थिर रह सकता है फिर यदि शक्तियाँ शरीर के अन्दर जागृत हो रही हों-और उन्हें सीखने के लिये शरीर के सूक्ष्म कोश तैयार न हों तो वह महत्वपूर्ण शक्तियाँ अपने लिये ही घातक बन जाती हैं इसीलिये रोगी शरीर के लिये योग साधनायें निषिद्ध हैं। साधना के क्रम में यही अड़चन श्री रम्पा के सम्मुख भी आई। उनके साधना गुरु ने स्पष्ट कह दिया कि अब आपका शरीर उच्च स्तरीय योग साधनाओं के उपयुक्त नहीं रहा।

प्राणायाम के विभिन्न प्रकार के अभ्यास द्वारा श्री रम्पा अब तक प्राणों पर नियन्त्रण करना सीख चुके थे। ठीक उसी समय उनके लामा गुरु ने उनकी तीसरी आँख का आपरेशन किया मस्तिष्क के अग्रभाग में जहाँ दो हड्डियाँ मिलकर आट्टिक कैजमा बनाती हैं उसके ठीक सामने दोनों भौंहों के मध्य एक विशेष प्रकार का द्विदल चक्र होता है इसके जाग जाने पर योगी संसार के किसी भी भूभाग की हलचल को ऐसे ही देख, सुन सकता है जैसे वह किसी सिनेमा के पर्दे पर चित्र देख रहा हो। लामा मिंग्यार डोंडुप की कृपा से प्राप्त इस दिव्य दृष्टि ने उन्हें टूटे-फूट शरीर द्वारा शक्तियों को धारण किये रहने की कठिनाई से दूर कर दिया। वे अपने भौतिक शरीर से निकल कर सूक्ष्म जगत में विचरण करने वाले और अतीन्द्रिय ज्ञान अर्जित करने में निष्णात हो गये। अपनी इन दिव्य शक्तियों का वैज्ञानिक विश्लेषण उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक- “तीसरी आँख” (ञ्जद्धद्बह्स्रस्त्र श्वब्द्ग) और “अमर आत्मा” (ब्शह्व स्नशह्द्गक्द्गह्) में विस्तार से किया है। दोनों पुस्तकें कोर्गी बुक्स, ट्राँस-वर्ल्ड पब्लिशर्स लिमिटेड, बैशले रोड, लन्दन एन डब्ल्यू 90 - ने प्रकाशित की हैं-कोर्गी बुक्स ने इनकी कुल मिलाकर 10 पुस्तकें छापी है जिनकी कई लाख प्रतियाँ सारे संसार में प्रसारित हो चुकी हैं।

एक दिन की बात है श्री लोबसाँग रम्पा अपने सूक्ष्म शरीर से आकाश में परिभ्रमण कर रहे थे। इंग्लैण्ड के टेक्स डिटन नगर का एक अंगरेज कलाकार उस दिन एक पेड़ की डाल पर बैठा कागज पर सीनरी उतार रहा था। उसका नाम था “साइरिन होस्किंस”। होस्किंस बेखबर चित्र बना रहा था तभी पेड़ की शाखा फट गई और वह धड़ाम से नीचे जमीन पर जा गिरा। जमीन पर गिरते ही उसके प्राण-पखेरू शरीर छोड़कर चलते बने। हृदय में आकस्मिक धक्का लगने से प्राणों ने क्षुब्ध होकर अपना स्थान छोड़ अवश्य दिया पर होस्किंस के शरीर में कोई विशेष खराबी नहीं आई। योगी लोबसाँग रम्पा ने इस स्थिति का लाभ उठाया। योग-बल से अपने जीर्ण-शीर्ण शरीर से उन्होंने प्राणों को निकाल लिया और उन्हें होस्किंस के शरीर में प्रवेश करा दिया। 6 घण्टे के बाद “होस्किंस” का शव फिर हिलने-डुलने लगा जबकि पहले के लोबसाँग रम्पा का शरीर ठण्डा पड़ गया। कुछ समय बाद उसकी दाह क्रिया कर दी गई।

होस्किंस के मृतक शरीर में जीवन का एकाएक संचार हो जाने से घर वाले विस्मित रह गये। मुहल्ले वाले बहुत घबड़ाये पर जब उस शरीर वाले मुख ने अपने आपको होस्किंस के स्थान पर लोबसाँग रम्पा बताना प्रारम्भ कर दिया तो लोगों का भय गहरे कौतूहल में बदल गया। कुछ दिन तक तो लोगों का अनुमान यह बना रहा कि होस्किंस चोट खाकर मरने के बाद जिया है इसी से उसका मस्तिष्क विकृत हो गया है पर जब रम्पा ने अपने विगत जीवन का शृंखलाबद्ध इतिहास बताना शुरू किया और खोज करने पर न केवल पिछली बातें सच पाई गई वरन् उसका पिछला शव भी मिल गया तो लोगों का अविश्वास विश्वास में बदलने लगा। इसका एक कारण और भी था वह श्री लोबसाँग रम्पा का ‘तृतीय नेत्र’। अपने सूक्ष्म ज्ञान द्वारा जब उन्होंने कितने ही लोगों का भविष्य अक्षरशः सत्य पढ़ दिया तो लोगों को विश्वास हो गया कि प्राण-परिवर्तन और शरीर में दिव्य यौगिक शक्तियों जैसी मान्यताओं का कुछ न कुछ वैज्ञानिक आधार है ही। भले ही विज्ञान अभी तक उन बारीकियों तक पहुँच न पाया हो। विज्ञान की खोजों का जो क्रम चल रहा है वह भी उसकी अपूर्णता और अज्ञात में छिपे किसी न किसी रहस्य का ही प्रतिपादन करता है प्राण विद्या और आत्म विद्या के यह रहस्य ही मानव-जीवन को सही दिशायें दे पाते हैं इसी कारण भारतीय तत्व वेत्ताओं ने जितना जोर तत्व दर्शन पर दिया उतना भौतिकवाद पर नहीं। अब श्री रम्पा अतीन्द्रिय विज्ञान पर शोध कर अपने अनुभवों से जिज्ञासुओं को लाभान्वित कर रहे हैं।


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