प्रियदर्शी सम्राट अशोक के विशाल साम्राज्य की राजधानी पाटलीपुत्र। और गंगा का मनोरम तट, जहाँ सम्राट अपने मन्त्रियों, सेनापतियों तथा पुरोहितों सहित उसके जल के उतार-चढ़ाव को देख रहे थे। गंगा का जल खतरे के चिह्न से ऊपर बढ़ता जा रहा था विकराल वेग को देखकर सम्राट आशंकित थे। हो सकता है थोड़ी ही देर बार विपुल जल राशि किनारों की उपेक्षा कर राजधानी को अपने में समेटने के लिए उतावली हो जाये। सम्राट के चेहरे पर बनती-बिगड़ती रेखाओं को देखकर यह आसानी से अनुमान लगाया जा सकता था कि वह विनाश लीला की कल्पना मात्र से ही कितने चिंतित हैं।
बाढ़ के सनसनाते हुए जल को उन्होंने एक बार देखा और दूसरी बार उनकी दृष्टि पास में खड़े महामन्त्री के चेहरे से टकराई। उन्होंने मन्त्री की आँखों में आंखें डालकर अपनी चिन्ता व्यक्त करनी चाही और समस्या का समाधान भी। सम्राट ने बड़े दुःखी स्वर में कहा ‘क्या अपने साम्राज्य में ऐसी कोई पुण्य आत्मा नहीं जो इस भीषण बाढ़ पर काबू पा सके? मेरी अपेक्षा तुम्हारा जनता से अधिक और सीधा संपर्क रहता है। शायद तुम्हारी दृष्टि में ऐसी कोई आकृति हो।’
यह प्रश्न अकेले महामन्त्री से ही नहीं था वरन् साम्राज्य के लाखों नागरिकों के लिए चुनौती भरा कथन था। सम्राट के दाँये-बाँये सहस्रों नगर और गाँव वासियों का जमघट था। सभी इस समस्या से अपने-अपने ढंग से लड़ने के लिये सोच रहे थे, तैयारी कर रहे थे।
तभी भीड़ को चीरते हुए एक महिला आगे बढ़ी सभी की दृष्टि उस ओर जम गयी। उसे देखकर आशा के स्थान पर निराशा ही हाथ लगने वाली थी। कितने ही व्यक्तियों ने उसकी शकल देखकर नाक भी सिकोड़ने शुरू कर दिये। यह सब कुछ स्वाभाविक था आखिर वह बिन्दुमती नामक वैश्या जो थी। एक वैश्या साम्राज्य की समस्या के लिए कुछ हल प्रस्तुत कर सकेगी, ऐसा किसी को विश्वास ही नहीं था।
बिन्दुमती बोल पड़ी ‘मैं हूँ अपना रूप, सौंदर्य और यौवन बेचकर जीविका चलाने वाली एक वेश्या। मेरा पेशा घृणित है इसमें कोई दो मत नहीं हो सकते पर मैं आज अपने को पाटलिपुत्र की वीराँगना समझती हूँ।’
‘वीराँगना’ शब्द पर लोगों को विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने और ध्यान देकर उसकी बात को सुनने का यत्न किया।
भयंकर गर्जना के स्वर में नदी की ओर हाथ उठाते हुए बिन्दुमती ने कहा ‘यदि मेरे पाप कर्मों के बीच पुण्य कर्मों के तनिक भी संस्कार रहे हों, यदि मैं अपने जीवन में सत्यनिष्ठ रही हूँ तो गंगा का यह उफनता हुआ जल शान्त हो जाये।’
अरे उसके मुख से इस ललकार का निकलना था कि जैसे गंगा की भीषण बाढ़ भी उस गर्जना से सहमकर इधर-उधर बगलें झाँकने लगी हो, जैसे वह अपनी भूल पर पश्चाताप करने को आतुर हो उठी हो और कुछ क्षण बाद ही पीछे से आने वाले जल की मात्रा कम होने लगी, उसका उफान शान्त होने लगा।
सम्राट को आश्चर्य हुआ और उसके साथ वहाँ खड़े हजारों नर-नारियों को भी। सबके मन में एक ही प्रश्न उठ रहा था, क्या वैश्या की शक्ति से भी गंगा की बाढ़ का जल थम सकता है? क्या उसके घृणित जीवन में सत्कार्यों के लिये भी कहीं स्थान हो सकता है?
सम्राट ने बिन्दुमती को अपने पास बुलाना उचित न समझा वह अपनी जिज्ञासा का समाधान करने स्वयं उसके पास जा खड़े हुये और अपने अन्तर में उमड़ते हुए कई प्रश्न एक ही साथ उपस्थित कर दिये। ‘भद्रे! तू वैश्या है, तेरा कार्य घृणित है, लोगों को बिगाड़ने वाला है, तू कामान्ध व्यक्तियों को गुमराह करती है, उनकी जेब से पैसे निकाल कर अपने पेट की भूख और ग्राहकों की वासना की भूख तेरे द्वारा शान्त होती है। तू नगण्य सी ओछी औरत तेरे प्रभाव में गंगा की यह बाढ़ कैसे शान्त हो गयी?’
‘राजन! आपकी प्रत्येक बात सत्य है। पर मैं धन, जाति, शिक्षा, कुल और रूप के आधार पर तनिक भी पक्षपात नहीं करती। मैं आने वाले प्रत्येक ब्राह्मण, क्षत्रिय और शुद्र, धनी और निर्धन, शिक्षित और अशिक्षित, छोटे और बड़े में किसी प्रकार का भेद न कर अपना ग्राहक समझ, अतिथि समझ बड़े सम्मान के साथ आवभगत करती हूँ मेरे मन में किसी के प्रति अवज्ञा या उपेक्षा का भाव नहीं आता। प्रत्येक ग्राहक मेरे द्वार से सन्तुष्ट होकर जाये इस बात के लिये मेरा प्रयत्न रहता है। इसे ही आप मेरी सत्यनिष्ठा, धर्मनिष्ठा, कर्त्तव्यपालन और ईमानदारी कह सकते हैं। और मेरे इसी आचरण ने गंगा को रुकने के लिये विवश किया है।
सम्राट ने कहा ‘तुम भले ही किसी के लिये वैश्या हो पर आज मेरे लिए देवी के समान हो और तुम्हारा कथन सत्य के बिल्कुल निकट है। मेरी समझ में निष्ठा के साथ अपने कर्त्तव्य का पालन करने वाला प्रत्येक व्यक्ति धर्मात्मा होता है और संकट के क्षणों में कर्त्तव्य के प्रति ईमानदार रहने वाले व्यक्ति ही देश के काम आते हैं।’