कुण्डलिनी और गायत्री साधना परस्पर पूरक

January 1972

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गायत्री शक्ति और गायत्री विद्या को भारतीय धर्म में सर्वोपरि स्थान दिया गया है। उसे वेदमाता, भारतीय धर्म और संस्कृति की जननी-उद्गम गंगोत्री, कहा गया है। उस चौबीस अक्षर वाले छोटे से मन्त्र के शीर्ष समेत चार चरणों का व्याख्यान चार वेदों के रूप में हुआ। वेद भारतीय तत्व ज्ञान-धर्म और अध्यात्म के मूल हैं। गायत्री उपासना की भी विशाल परिधि है। पंचमुखी गायत्री के द्वारा पंच तत्वों के अधिपति पाँच देवताओं का-पंच कोषों का अनावरण किया जाता है और उसके द्वारा पंच रत्न जैसे पाँच दिव्य अनुदान प्राप्त किये जाते हैं। इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए गायत्री विद्या और उपासना का प्रशिक्षण अब तक दिया भी जाता रहा है?

अब कुण्डलिनी की शिक्षा किसलिए? यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है, इसका उत्तर हमें इस प्रकार प्राप्त करना होगा कि समग्र स्वास्थ्य की रक्षा के लिए आहार-विहार की उत्कृष्टता आवश्यक है। यह एक सामान्य और व्यापक नियम है पर यदि किसी का घूंसेबाज़ी की-लम्बी, ऊँची कूद की-वजन उठाने की विशेषता भी प्राप्त करनी हो तो उसे आहार-विहार की सुव्यवस्था रखते हुए भी उपयुक्त अंगों के लिए विशेष व्यायाम, विशेष अभ्यास भी आवश्यक होगा।

बिजली की फिटिंग, मीटर, मेन लाइन से सम्बन्ध, यह पहली आवश्यकता है। इतना काम बनने के बाद हीटर, कूलर, पंखा, रेडियो, रेफ्रिजरेटर आदि की सुविधायें आवश्यक हों तो उन यन्त्रों का खरीदना और प्रयुक्त करना भी जानना चाहिए। बिजली की फिटिंग करा देने और लाइन चालू करा देने भर से काम नहीं चलता। यह विशेष उपकरण भी काम में लाने पड़ेंगे।

इन दो उदाहरणों की समता गायत्री महाशक्ति की सर्वांगीणता के साथ कुण्डलिनी की एक अतिरिक्त विशेषता को समझना सुगम पड़ेगा। कहा जा चुका है कि इस बाह्य जगत में दो ध्रुव हैं। इसी प्रकार अंतर्जगत के भी दो ध्रुव हैं एक ज्ञान बीज एक काम-बीज। मस्तिष्क के अवस्थित ज्ञान-बीज से हमारी समस्त चेतना प्रभावित होती है। ब्रह्म और जीव का सम्बन्ध मिलाने का माध्यम वही केन्द्र है। चेतन सत्ता-परा प्रकृति-का सम्बन्ध ब्रह्मरंध्र से ही मिलता है। गायत्री को ब्राह्मी शक्ति कहा गया है। उसका सीधा सम्बन्ध-इसी ज्ञान चेतना से है। चेतना के अभाव में जीवन ही सम्भव नहीं। गायत्री ब्राह्मी चेतना की देवी है। उसे ब्रह्माणी-ब्रह्मा की पत्नी-ब्रह्म की दिव्य चेतना से है। इसकी उपयोगिता सर्वोपरि है। इसे आत्मा का आहार कहा जा सकता है। इसे बिजली की लाइन चालू होना कह सकते हैं। इसकी आवश्यकता और उपयोगिता सर्वोपरि है।

पौराणिक प्रतिपादन के अनुसार ब्रह्मा की दो पत्नियाँ हैं। एक का नाम गायत्री दूसरी का सावित्री। इस अलंकार से तत्व दर्शन के रूप में ये समझना चाहिए कि परब्रह्म की दो शक्तियाँ हैं एक भाव चेतना-परा प्रकृति। दूसरी पदार्थ चेतना-अपरा प्रकृति। परा प्रकृति के अंतर्गत व्यक्ति संपर्क से उसे मन, बुद्धि, चित्त, ऋतम्भरा, भूमा आदि के नाम से समझा जाता है। समष्टि रूप में वही ‘महत्तत्व’ के रूप में विराट् ब्रह्माण्ड में संव्याप्त है। दूसरी अपरा प्रकृति - पदार्थ चेतना - जड़ प्रकृति कहलाती है। पदार्थों की समस्त हलचलें, गतिविधियाँ उसी पर निर्भर है। परमाणुओं का अपनी धुरी पर घूमना, विविध विधि क्रिया-कलापों का संचालन होना उसी शक्ति पर निर्भर है। विद्युत, ताप, प्रकाश, चुम्बकत्व, रसायन, ईश्वर उसी के विभाग हैं। पदार्थ विज्ञान इन्हीं शक्तियों को काम में लाकर अगणित आविष्कार करने और यान्त्रिक सुविधा, साधन उत्पन्न करने में लगा हुआ है। इस अपरा प्रकृति को सावित्री कहा गया है। कुण्डलिनी इसी दूसरी शक्ति का नाम है।

मस्तिष्क की सिद्धियों का वारापार नहीं, विद्वान, विज्ञानी, कलाकार, आत्मवेत्ता, महामानव इसी शक्ति का उपयोग करके अपने वर्चस्व की प्रखर बनाते हैं। ज्ञान शक्ति के चमत्कारों से कौन अपरिचित है। मस्तिष्क का महत्व किसे मालूम नहीं? उसके विकास के लिये स्कूली प्रशिक्षण से लेकर स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन, मनन और साधना समाधि तक के अगणित प्रयोग किये जाते रहते हैं। इस व्यावहारिक क्षेत्र को गायत्री उपासना-परा प्रकृति की साधना ही कहना चाहिए।

दूसरी क्षमता है, क्रिया शक्ति। अपरा प्रकृति। शरीरगत अवयवों का सारा क्रिया-कलाप इसी से चलता है। श्वास-प्रश्वास, रक्त संचार, निद्रा, जागृति, मलों का विसर्जन, ऊष्मा, ज्ञान तत्व, विद्युत प्रवाह आदि अगणित प्रकार के क्रिया-कलाप शरीर में चलते रहते हैं। उन्हें अपरा प्रकृति का कर्तृत्व कहना चाहिए इसे जड़ पदार्थों को गतिशील रखने वाली ‘क्रिया शक्ति’ कहना चाहिए। व्यक्तिगत जीवन में इसका महत्व भी कम नहीं। आरोग्य, दीर्घ जीवन, बलिष्ठता, स्फूर्ति-साहसिकता, सौंदर्य आदि कितनी ही शरीरगत विशेषतायें इसी पर निर्भर हैं। इसे व्यावहारिक रूप से कुण्डलिनी शक्ति कहना चाहिए। आहार, व्यायाम, विश्राम आदि द्वारा साधारणतया इसी शक्ति की साधना, उपासना की जाती है।

यों प्रधान तो मस्तिष्क स्थित दिव्य चेतना ही है। वह बिखर जाय तो तत्काल मृत्यु आ खड़ी होगी। पर कम उपयोगिता शरीरगत पदार्थ चेतना की भी नहीं है। उसकी कमी होने से मनुष्य दुर्बल, रुग्ण, अकर्मण्य, निस्तेज कुरूप और कायर बनकर रह जायगा। निरर्थक, निरुपयोगी-भार भूत जिन्दगी की लाश ही ढोता रहेगा।

सामान्य जीवन में परा और अपरा प्रकृति का क्या उपयोग है। उसकी मोटी जानकारी और उनकी भिन्नता तथा परस्पर एक दूसरे के साथ सम्बद्धता की स्थिति का ज्ञान हो गया होगा। इन दोनों शक्तियों का हम सब बहुत ही सीमित और स्थूल प्रयोग कर पाते हैं और जितना कुछ अपने भीतर भरा पड़ा है उसका हजारवाँ हिस्सा ही कार्यान्वित करके उतना भर लाभ उठा पाते हैं। जो कुछ दबा छिपा-अज्ञात और प्रसुप्त पड़ा है उसे जगाने और उपयोग में लाने के विशेष प्रयत्न, पुरुषार्थ का नाम ही ‘साधना’ है। साधना के द्वारा हम वह अतिरिक्त शक्ति जागृत और उपार्जित करते हैं जिससे सामान्यतया सर्वसाधारण को वंचित ही रहना पड़ता है। संक्षेप में गायत्री साधना का उद्देश्य मानसिक चेतनाओं का जागरण और कुण्डलिनी साधना का प्रयोजन पदार्थगत सक्रियताओं का अभिवर्धन है। दोनों एक दूसरे की पूरक है। समर्थ शरीर और समर्थ मस्तिष्क परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं। इन्हें गाड़ी के दो पहिये कहना चाहिये। एक के बिना दूसरा निरर्थक रहता है। रुग्ण रहने वाला तत्व ज्ञानी और मूढ़ मति नर-पशु दोनों ही अधूरे हैं। आवश्यकता दोनों के समन्वय की है। यों वरिष्ठ और कनिष्ठ का चुनाव करना है तो प्राथमिकता मानसिक चेतना को ही मिलेगी।

गायत्री और कुण्डलिनी को अधिक स्पष्टता से समझना चाहिए और गायत्री की ज्ञान शक्ति एवं कुण्डलिनी की क्रिया शक्ति को समझ लेना चाहिए। गायत्री साधना चेतनात्मक रहस्यों का, दिव्य विभूतियों का अनुदान प्रस्तुत करती है और कुण्डलिनी भौतिक सिद्धियों के लिए आवश्यक पथ-प्रशस्त करती है। एकाँगी प्रगति अपर्याप्त है। उत्कर्ष उभय पक्षीय होना चाहिए। इसलिए प्रथम गायत्री साधना का शिक्षण प्रारम्भ कराने के उपरान्त यदि कुण्डलिनी साधना की उपयोगिता बताई, सिखाई जाने लगे तो इसे विरोधाभास की दृष्टि से नहीं वरन् पूरक प्रक्रिया का समारम्भ ही समझना चाहिए।

आहार को प्राथमिकता मिलनी चाहिए पर काम पानी के बिना भी नहीं चल सकता। पगड़ी की अपनी कान है पर काम जूते के बिना भी नहीं चलता। अक्षर ज्ञान साक्षरता की प्रथम आवश्यकता है पर सीखा तो अंक गणित भी जाना चाहिए। कागज के बिना लिखने-पढ़ने का काम नहीं चलता पर आवश्यकता तो कलम की भी है। नर की महत्ता भले ही हो पर नारी के बिना सृष्टि का क्रम कैसे चले? इन युग्मों को परस्पर पूरक कहा जाता है। प्राथमिकता और महत्ता की दृष्टि से किसी को प्रथम किसी को द्वितीय स्थान दिया जा सकता है। गायत्री और कुण्डलिनी का युग्म ऐसा ही है। ब्रह्मा की यह दोनों पत्नियाँ साथ-साथ रहें तभी पारिवारिक शान्ति रहे। एक रुष्ट दूसरी तुष्ट बैठी रहे तो लँगड़ा, काना, नकटा, टोंटा, शरीर कुरूप, दुर्बल और अपूर्ण बनकर ही रहेगा। स्वस्थ और सुन्दर शरीर में दोनों कान, दोनों आंखें, दोनों नथुने, दोनों जबड़े, दोनों गुर्दे, दोनों फेफड़े, दोनों हाथ, दोनों पैर आवश्यक हैं। साधना क्षेत्र में भी यह उभयपक्षी क्रिया-कलाप अनादि काल से चला आ रहा है।

अध्यात्म क्षेत्र में ज्ञान भाग को दक्षिण मार्ग कहते हैं और इस विद्या को निगम-राजयोग-वेद के अंतर्गत समाविष्ट करते हैं। क्रिया भाग को वाम मार्ग आगम-तन्त्र, हठ योग की परिधि से ले जाते हैं। दोनों को यदि एक दूसरे से पृथक कर दिया जायगा तो अभीष्ट लाभ न मिल सकेगा वरन् निरन्तर विग्रह ही उत्पन्न होता रहेगा और एकाँगी अपूर्णता असमंजस ही उत्पन्न करेगी। देव और दानव सत्ता एक दूसरे से सर्वथा पृथक और असम्बद्ध रहे तो विग्रह ही खड़ा होगा। देवासुर संग्राम ही बनेगा। दोनों को इकट्ठा कर दिया जाय तो वह स्वल्प कालीन सहयोग का समुद्र मंथन का दृश्य उपस्थित करेगा और दोनों के सहयोग से देखते-देखते 14 अनुपम रत्न उपलब्ध होने वाली पौराणिक गाथा के अनुरूप अपने जीवन क्रम में भी चौदह नहीं-उससे अनेक गुने-महत्वपूर्ण रत्न उपलब्ध हो सकेंगे।

समन्वयात्मक साधना का जितना महत्व है उतना एकाँगी का-असम्बद्ध का नहीं। प्रायः साधना क्षेत्र में इन दिनों यही भूल होती रही है। ज्ञान मार्गी - राजयोगी - भक्ति परक साधना तक सीमित रह जाते हैं और हठयोगी, कर्मकाण्डी-तप साधनाओं में निमग्न रहते हैं। उपयोगिता दोनों की है। महत्ता किसी की भी कम नहीं (पर उनका एकाँगीपन उचित नहीं) दोनों का जोड़ा और मिलाया जाना चाहिए। यह शिव पार्वती विवाह की गणेश जैसा भावनात्मक वरदान और कार्तिकेय जैसे पदार्थात्मक अनुदानों की भूमिका प्रस्तुत कर सकता है।

समन्वयात्मक साधना की उपयोगिता मानते रहे हैं और उसी का प्रयोग अपने लिए करते हुए दूसरों का मार्गदर्शन करते रहे हैं। वैदिक योग साधना के साथ-साथ तान्त्रिक प्रयोगों को भी महत्व दिया है। गायत्री साधना को प्रमुखता देते हुए भी कुण्डलिनी जागरण की उपयोगिता को माना है। यही कारण है कि प्रथम पाठ पढ़ाने के बाद अब दूसरे पाठ की भी पृष्ठभूमि तैयार की जा रही है। इसे प्रकारान्तर न समझा जाय - इसमें विरोधाभास न ढूँढ़ा जाय। यह इकलौती सन्तान के बड़े होने पर उसका जोड़ा मिलाने-विवाह करने का प्रयत्न मात्र है। यों गायत्री के देवता सविता को विष्णु या शिव मानते हैं और उनकी पत्नी अग्नि-लक्ष्मी काली को कुण्डलिनी का प्रतीक माना गया है इस प्रकार यह सुगम युग्म - एक प्रकार से नर नारी का - शिव पार्वती का विवाह ही हुआ। धनुष तोड़ने की प्रक्रिया पूरी करने इसे सिया स्वयंवर-राम जानकी का विवाह सम्पन्न करना कहा जा सकता है। पर यदि कोई कुण्डलिनी और गायत्री में भाषा की दृष्टि से-एक ही लिंग देखता हो तो भी उसे कुछ अचम्भा नहीं करना चाहिए। अभी पिछले ही दिनों में दो नारियों ने परस्पर कानूनी विवाह किया है। कुछ दिन पूर्व में दो पुरुष भी ये समलिंगी विवाह कर चुके हैं।

जीव और ब्रह्म दो पुल्लिंग होते हुए भी परस्पर विवाह करते हैं। साक्षी दृष्टा ब्रह्म निष्क्रिय है उसकी परा-अपरा प्रकृतियाँ - दोनों परस्पर मिलजुलकर ही अपने संयोग-संभोग से इस समस्त सृष्टि का सृजन कर संचालन कर रही है। यह कथन अलंकार भर है। वस्तुतः नर-नारी जैसा लिंग भेद सूक्ष्म जगत में कहीं है ही नहीं। गायत्री या कुण्डलिनी को स्त्री और ब्रह्म, शिव को पुरुष मानना अपनी बात चेतना को उदाहरण देकर समझाना भर है। तत्वतः इस उच्च शक्ति क्षेत्र में नर-नारी जैसा कोई भेद है ही नहीं। इस जगत में भी जिन ब्रह्म वादियों को तत्व ज्ञान हो जाता है वे नर-नारी के शरीर भेदों के अन्तर को भी सर्वथा भुला ही देते हैं। उन्हें सभी में एक लिंग एक तत्व दिखाई पड़ता है। उनकी दृष्टि में न कोई नर है न नारी। अद्वैत ज्ञान में भेद बुद्धि समाप्त होते ही नर-नारी की भिन्नता भी समाप्त हो जाती है। कुण्डलिनी और गायत्री विद्याओं के संबंध में यदि विवाह, संयोग, समन्वय जैसी चर्चा आलंकारिक रूप से आ पड़े तो उसमें कुछ विस्मय न किया जाय इसीलिए यह पंक्तियाँ लिखी गई हैं।

तत्व-दर्शियों ने गायत्री और कुण्डलिनी को परस्पर पूरक माना है और एकात्म भाव में देखा है। इसके कुछ प्रकरण आगे देखिये - कुण्डलिनी साधना के अंतर्गत षट्चक्र वेधन प्रक्रिया मुख्य है। यही इस साधना का प्रधान आधार है। गायत्री शक्ति भी वही प्रयोजन पूरा करती है। इस प्रकार मूलतः वे दोनों एक ही छड़ के दो सिरों की तरह अभिन्न ही हैं। षट्चक्र जागरण में कुण्डलिनी शक्ति को गायत्री का सहकार प्राप्त हो जाता है।

“गायत्री-मन्त्र का ‘भूःकार’ भू-तत्व या पृथ्वी-तत्व है। साधना के मार्ग में वह मूलाधार चक्र है। फिर जगन्माता के निम्नतर ब्राह्मी या इच्छाशक्ति-महायोनि-पीठ में सृष्टि-तत्व है। ‘भुवः’ भुवर्लोक या अन्तरिक्ष-तत्व। साधना की दृष्टि से यह विशुद्ध-चक्र है और महाशक्ति के मध्य स्तर में, पीनोन्नत पयोधर में, वैष्णवी या क्रिया-शक्ति पालन या सृष्टि तत्व है। ‘स्वःकार’ सुरलोक या स्वर्ग तत्व। साधना के पथ में सहस्रार निर्दिष्ट चक्र एवं आद्यशक्ति के ऊर्ध्व या उच्चस्तर में गौरी या ज्ञान-शक्ति, संहार या लय तत्व है। यहीं वेदमाता गायत्री का स्वरूप तथा स्थान रहस्य है।”

यों ज्ञान चेतना समस्त शरीर में संव्याप्त है पर इसका केन्द्र मस्तिष्क माना गया है। यों क्रिया शक्ति सम्पूर्ण शरीर में फैली पड़ी है। पर उसका केन्द्र स्थल जननेन्द्रिय है। नपुँसक व्यक्ति प्रायः सभी उच्च गुणों के आयवर्धन और साहस भरे पुरुषार्थों के सम्पादन में असमर्थ रहते हैं। किसी को नपुँसक क्लीव कहना उसकी अन्तः क्षमता हो अपमानित करने वाली गाली है। शरीर के अन्य अंग दुर्बल हों तो उसके बिना प्रगति रुकेगी नहीं पर नपुँसक से कुछ महत्वपूर्ण कार्य बन पड़ना कठिन है। सरकारी नौकरियों में भर्ती करते समय डॉक्टरी जाँच में यह भी परीक्षा की जाती है कि वह व्यक्ति नपुँसक तो नहीं है। शारीरिक विशेषताओं और क्षमताओं का केन्द्र इसीलिए जननेन्द्रिय गह्वर के मर्म स्थल योनि कंद को माना गया है।

साधना के यही दो मर्म स्थल हैं। इन्हें ही कायपिण्ड के दो ध्रुव कहते हैं। यों विद्युत-शक्ति एक ही है पर उसे दो भागों में विभाजित किया गया है एक धन (पाजेटिव) दूसरे ऋण (नेगेटिव) मानवीय चेतना की धन विद्युत ज्ञान केन्द्र मस्तिष्क के मध्य में केन्द्रित है-इस स्थल को अध्यात्म की भाषा में ‘सहस्रार’ कहते हैं। दूसरी ऋण विद्युतकाय केन्द्र जननेन्द्रिय मूल में है - जिसे ‘मूलाधार’ कहते हैं। इन दो केन्द्रों में से ज्ञान केन्द्र को गायत्री का और काम केन्द्र को कुण्डलिनी का उद्गम केन्द्र कहा गया है। भौतिक क्षमताएं, समृद्धियाँ, सिद्धियाँ, कुण्डलिनी में प्रादुर्भूत होती हैं और आध्यात्मिक दिव्य विभूतियाँ, ऋद्धियाँ गायत्री के द्वारा विकसित होती हैं। दोनों का सम्मिश्रण साधक को समृद्धियों और विभूतियों से ऋद्धियों और सिद्धियों से ज्ञान और क्रिया से सुसम्पन्न बनाता है। इसलिए दोनों की सम्मिश्रित साधना का अवलम्बन करना ही समन्वयात्मक प्रवृत्ति के साधकों के लिए उपयुक्त हैं।

सहस्रार कमल को ब्रह्म केन्द्र के रूप में गायत्री के ज्ञान गह्वर के रूप में-विष्णु के क्षीर सागर या शिव के कैलाश के रूप में चित्रित किया गया है। इसके प्रमाण इस प्रकार मिलते हैं।

ब्रह्मरन्ध्रसरसीरुहोदरे नित्यलग्नमवदात्मद्भुतम्।

कुण्डली विवरकाण्ड मंडितं द्वादशार्ण सरसीरुहं भजे।

-पादुका पेचक्र

मस्तक के मध्य अधोमुख सहस्र दल कमल है। उसके उदर में अद्भुत पथ गामिनी नाड़ी है। उसे कुण्डलिनी कहते हैं।

इदं स्थानं ज्ञात्वा नियतनिजचित्तो नरवरो,

न भूयात् संसारे पुनरपि न बद्धस्त्रिभुवने।

समग्रा शक्तिः स्यान्नियतमनसस्तस्य कृतिनः,

सदा कर्तुं हर्तुं खगतिरपि वाणी सुविमला॥

-षट्चक्र निरुपणम् 46

इस सहस्रार कमल की साधना से योगी चित्त को स्थिर कर आत्मभाव में लीन हो जाता है। भवबन्धन से छूट जाता है। समग्र शक्तियों से सम्पन्न होता है। स्वच्छन्द विचरता है और उसकी वाणी विमल हो जाती ॥46॥

शिरःकपालविवरे ध्यायेद्दुग्धमहोदधिम्।

तत्र स्थित्वा सहस्रारे पद्मे चन्द्रं विचिन्तयेत्॥49॥

शिव संहिता 5/179

कपाल की गुफा में क्षीर सागर समुद्र का तथा सहस्र दल कमल में चन्द्रमा जैसे प्रकाश का ध्यान करें।

सहस्रार चन्द्र की कैलाश पर्वत से तुलना करते हुए वहाँ की दिव्य परिस्थितियों का मत्स्य पुराण में वर्णन किया गया है। यह वर्णन तिब्बत स्थित कैलाश पहाड़ का नहीं वरन् विशुद्ध रूप से ब्रह्मरन्ध्र में अवस्थित सहस्रार ज्ञान केन्द्र का ही है। संवर्तक बड़वानल विद्युत का वहीं निवास है। महासर्पों का सरोवर उसी केन्द्र में है। साधना की सिद्धि इसी केन्द्र में तीव्रगति से होती है। यह तथ्य कैलाश पहाड़ पर लागू नहीं हो सकते।

परस्परेण द्विगुणा धर्म्मतः कामतोऽर्थतः।

हेमकूटस्य पृष्ठे तु सर्पाणाँ तत्सरःस्मृतम॥

सरस्वतीं प्रभवति तस्माज ज्योतिष्यती तु या।

इत्येते पर्वताविष्टाश्चत्वारो लवणोदधिम्।

छिद्यमानेषु पक्षेषु पुरा इन्द्रस्य वै भयात्॥

-मत्स्य पुराण

कैलाश पर्वत पर की हुई साधना से दूनी सिद्धि होती है। धर्म, अर्थ, काम तीनों ही प्राप्त होते हैं। वह हेम कूट पर्वत का सरोवर सर्पों का बनाया हुआ है। ज्योतिर्मयी प्रज्ञा वहीं उत्पन्न होती है।

वहाँ संवर्तक नामक महा भयानक अग्नि जलता रहता है। वह उस सरोवर के जल को पी जाता है। यह अग्नि समुद्र को भी सुखा देने वाला बड़वा मुख है।

मूलाधार को शक्ति का केन्द्र माना गया है। इसे अग्नि कुण्ड-शक्ति उद्गम-काली पीठ तथा क्रिया शक्ति को अधिष्ठात्री कुण्डलिनी के रूप में चित्रित किया गया है। इसका संकेत आध्यात्म शास्त्र में इस प्रकार मिलता है-

आदेहमध्यकट्यन्तमग्निस्थानमुदाहृतम्।

तत्र सिन्दूरवर्णाऽग्निर्ज्वलनं दशपञ्च च ॥137

-त्रिशिखा

कटि से निम्न भाग में अग्नि स्थान है। वह सिन्दूर के रंग का है। उसमें पन्द्रह घड़ी प्राण को रोक कर अग्नि की साधना करनी चाहिए।

नाभेस्तिर्यगधोर्ध्वं कुण्डलिनीस्थानम्। अष्टप्रकृति रुपाऽष्टधा कुण्डलीकृता कुण्डलिनी शक्तिर्भवति। यथावद्वायुसंचारं जलान्नादीनि पंरितः स्कन्धपाश्वषु निरुध्यैनं मुखेनैषसमोवष्ट्य ब्रह्मरन्ध्रं योगकालेऽपानेनाग्निना च स्फुरित।

शांडिल्योपनिषद् 7/6

नाभि से नीचे कुण्डलिनी का निवास है। यह आठ प्रकृति वाली है। इसके आठ कुण्डल हैं। यह प्राण वायु को यथावत करती है। अन्न और जल को व्यवस्थित करती है। मुख तथा ब्रह्मरन्ध्र की अग्नि को प्रकाशित करती है।

तडिल्लेखा तन्वी तपन शशि वैश्वानर मयी।

तडिल्लता समरुचिर्बिद्युल्लेखेन भास्वती॥

बिजली की बेल के समान, तपते हुए चन्द्रमा के समान, अग्निमयी वह शक्ति दृष्टिगोचर होती है।

इस सब तथ्यों पर दृष्टिपात करते हुए इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि गायत्री ज्ञान शक्ति का और कुण्डलिनी क्रिया शक्ति का परस्पर अन्योन्याश्रय संबंध है। दोनों के मिलने से ही परिपूर्ण एवं समग्र उत्कर्ष


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