रोगी न मारा जाय केवल रोग ही मरे

January 1972

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विज्ञान की प्रगति ने निस्सन्देह ऐसे तथ्यों को खोज निकाला है जो अब तक अविज्ञात थे। इन आविष्कारों ने मनुष्य के लिए अनेक सुविधायें प्रस्तुत की हैं और अनेक कठिनाइयों का हल निकाला है। इस दृष्टि से इन आविष्कारों-उनके आविष्कर्ताओं तथा व्यापक बनाने के प्रयत्नों की जितनी सराहना की जाय कम है।

पर इस वैज्ञानिक प्रगति के नाम पर कुछ ऐसे अवैज्ञानिक कार्य भी हुए हैं जिनका बाह्य स्वरूप ही विज्ञान की प्रक्रिया से ताल-मेल खाता है, गहराई से देखने पर प्रतीत होता है कि वे कार्य मूल प्रयोजन को भुलाकर किये गये हैं इसलिए उन प्रयत्नों से लाभ के स्थान पर हानि ही हुई है। ऐसे ही प्रयत्नों में एक ऐलोपैथिक चिकित्सा विज्ञान भी है।

चिकित्सा का मूल प्रयोजन केवल तात्कालिक कष्ट निवारण ही नहीं, वरन् रोग के मूल कारण को ढूँढ़ना और निराकरण होना चाहिए। प्राकृतिक चिकित्सा विधि तथा आयुर्वेद का आरम्भिक प्रयास इसी दिशा में चलता है। संसार के समस्त जीव-जन्तु जब अस्वस्थ होते हैं तब प्रकृति भी रोग निवारक शक्ति की सहायता करने वाले छुटपुट प्रयत्न करती है और तब जीव सरलता पूर्वक अपना कष्ट निवारण कर लेते हैं। मनुष्य के लिए भी वह राजमार्ग खुला हुआ है।

ऐलोपैथिक चिकित्सा पद्धति के मूल में ही कुछ दोष रह गया है और उस मूल दोष का निवारण किये बिना-गलत आधार पर चिकित्सा विज्ञान को अग्रसर किया जा रहा है। अन्य क्षेत्रों की तरह इस क्षेत्र में भी अन्वेषणों और आविष्कारों की धूम है। पर परिणाम प्रतिकूल ही सिद्ध होता चला जा रहा है। तत्काल कुछ समय के लिए कष्ट कम देना मात्र चिकित्सा विज्ञान की सफलता नहीं है, ऐसा तो कोई बेरोजगार, जादूगर भी कर सकता है। पीड़ित स्थान को सुन्न करके या दिमाग को पीड़ा अनुभव करने की क्षमता से वंचित करने वाले मादक पदार्थों के आधार पर तुरन्त कष्ट कम करने का प्रयोजन पूरा हो सकता है पर इससे लाभ क्या हुआ? बीमारी दूसरे रूप में फूट पड़ी और अधिक चिरस्थायी बन गई तो ऐसा इलाज किस काम का रहा?

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान रोग के मूल कारण असंयम को रोकने तथा स्वास्थ्य को सुरक्षित रखने की शिक्षा तथा व्यवस्था पर जोर देने की अपेक्षा ऐसी दवायें प्रस्तुत करने में लगा हुआ है जो बीमारी के कीटाणुओं को मारने के साथ-साथ जीवन रक्षक स्वस्थ कणों को भी समान रूप से मारती हैं। ऐसी विषाक्त औषधियाँ बन रही हैं जिनके कारण नया रोग उत्पन्न हो जाने से लगता है मानो पुराना रोग चला गया हो। भेड़िया भगाने के लिए शेर को लाकर बिठा देना यह क्या उपचार हुआ? इससे तो यह झूठी सान्त्वना ही मिली कि भेड़िया चला गया। शेर के उस स्थान पर आ धमकने से भयातुर को राहत कहाँ मिली।

औषधि अन्वेषण क्षेत्र में इन्हीं आधारों को लेकर नई-नई खोजें हो रही है और नित नये इन्जेक्शन, कैप्सूल निकलते चले आ रहे हैं। औषधि विक्रेताओं को गहरा नफा होता है और रोगी की तात्कालिक दिल जमई कराने में अपना धन्धा चमकता देखने वाले डॉक्टर भी उस प्रयत्न को प्रोत्साहित करते हैं। घाटे में बेचारा रोगी रहता है जिसका पैसा भी जाता है, शरीर भी खराब होता है और इलाज की आशा से नई व्यवस्थाओं के जंजाल में जकड़ जाता है। जादू की तरह कुछ समय को कष्ट हलका कर देने के लालच में उसे जो चिर स्थायी हानि उठानी पड़ती है, उसे दूरदर्शिता के साथ देखा, समझा जाय तो प्रतीत होता है कि यह क्या कुछ चिकित्सा रही? इससे स्वास्थ्य लाभ का मूल प्रयोजन कहाँ सिद्ध हुआ?

जहाँ अन्धाधुन्ध आविष्कार नित नई दवाओं के हो रहे हैं वहाँ उनके दुष्परिणाम भी सामने आ रहे हैं। समय आ गया है कि इस संदर्भ में फिर नये सिरे से विचार किया जाय। प्रस्तुत औषधियों से होने वाली हानियों को भी ध्यान में रखना ऐसे विचार के समय आवश्यक है।

तपेदिक के टीके वी.सी.जी. की इन दिनों बहुत धूम है। तपेदिक से बचने के लिए इसका अन्धाधुन्ध प्रयोग हो रहा है। पर अभी इस बात का निष्कर्ष नहीं निकल सका कि तपेदिक का टीका लगने के बाद उसका न होना निश्चित है। अँधेरे में टटोलने की तरह ही प्रयोग चल रहे हैं। सो भी इस प्रयोग को हानि रहित नहीं कहा जा सकता। इंग्लैण्ड के स्वास्थ्य मन्त्रालय के मेडीकल मेमोरेडण्म नं. 324 में यह स्पष्ट कहा गया है। वी.सी.जी. के टीके के हानि रहित होने की कोई गारन्टी नहीं है। इसी औषधि के विशेषज्ञ डॉक्टर के नोविल इरविन ने अपनी पुस्तक वी.सी.जी. वेक्सिनेशन थ्योरी एण्ड प्रेक्टिस पुस्तक में अनेक प्रयोगों का नतीजा लिखते हुए बताया है कि इसके फलस्वरूप कितनों को ही गाँठें उभर आना, घाव हो जाना, भीतरी फोड़ा निकलना जैसी दुखद प्रतिक्रियायें देखी गई। उनने चेचक के टीके के बारे में भी लिखा है कि इसे लगाने के बाद भी यह नहीं कहा जा सकता कि चेचक फिर न होगी।

एक जर्मन कम्पनी ने सुख-शान्ति की नींद सुलाने वाली दवा ‘थैलिडो माइल’ बनाई। उसका खूब विज्ञापन हुआ और यह भी कहा गया कि इसकी ज्यादा मात्रा खा लेने पर भी कोई नुकसान नहीं होता। दवा खूब चली। एक महीने में केवल जर्मनी में ही डेढ़ करोड़ गोलियाँ बिकने लगीं। देखते-देखते सारे संसार में लगभग 50 विभिन्न नाम और लेबलों से यह दवा बिकने लगी।

दवा का प्रभाव यह हुआ कि सेवन करने वाली महिलाओं को विकलाँग सन्तानें पैदा होने लगी। इन बालकों में से अधिकाँश ‘फोकी भेलिया’ रोग के शिकार थे। इस रोग में हाथ या पैर बुरी तरह मुड़े जुड़े जन्म से ही पैदा होते थे। यह कुप्रभाव उस दवा में रहने वाले ग्लेटेनिक ऐसिड के कारण होता है। इसके व्यापक परिणाम जब बड़े पैमाने पर सामने आये तो जाँच पड़ताल की गई और इंग्लैण्ड तथा कनाडा में उसकी बिक्री को तुरन्त बन्द कर दिया गया। अमेरिकी प्रशासन को पहले से ही इस दवा के बारे में शक हो गया था सो उसने ‘केवाडोन’ नाम से इस दवा का लाइसेन्स प्राप्त करने वाली कम्पनी की अर्जी रोके रखी और खतरनाक प्रमाण सामने आने पर उस अर्जी को रद्द कर दिया। जर्मनी के अतिरिक्त आस्ट्रेलिया, स्काटलैण्ड, स्वीडन, बेल्जियम, स्विट्जरलैंड, लेबनान, इसराइल, रूस आदि अनेक देशों में इस दवा के कारण जो उत्पात खड़ा हुआ उससे औषधि जगत में एक तहलका ही मच गया।

अमेरिका में ‘डाइएथिलीन ग्लाइकोज’ नामक दवा ने 100 से भी अधिक आदमी मार डाले तब सरकार ने ‘फेडरल फूड ड्रग एण्ड कॉस्मेटिक एक्ट बनाया और इस तरह के नुस्खों पर रोक लगाई गई। फ्राँस में ‘डाइ आयडोएथिल’ नामक दवा के सेवन से - एकत्रित सबूतों के अनुसार 12 आदमी मरे तब उसे भी रोका गया। अमेरिका में केन्सर की दवा ‘कैविओ जेन’ को जब हानिकारक पाया गया तब उसका लाइसेन्स रद्द किया गया।

पिछली बार फ्लू का जब व्यापक फैलाव हुआ तब उसके लिए एक नये निरोधक टीके का आविष्कार हुआ और उसका तेजी से निर्माण भी हुआ और प्रयोग भी। इसकी प्रतिक्रिया जाँचने के लिए जो कोई बैठा उसके विशेषज्ञों की एक मीटिंग सेन्फ्रांसिस्को में हुई। बोर्ड के अधिकारी डॉक्टर रानज ने कहा कि ‘फ्लू’ से जितने लोग मरेंगे उससे ज्यादा इस टीके के कारण मर जायेंगे। संस्था के अध्यक्ष ने स्पष्ट शब्दों में कहा-इस टीके का अन्धाधुन्ध प्रयोग एक प्रकार से उन्मादियों जैसी करतूत है। इसी की पुष्टि में ‘जनरल ऑफ अमेरिकन मेडीकल ऐसोसिएशन’ ने भी डॉक्टरों को चेतावनी दी कि इसके अन्धाधुन्ध प्रयोग से जनता पर हानिकर प्रतिक्रिया की ही अधिक सम्भावना है।’

एस्पिरिन और पेन्सलिन का इन दिनों जो अन्धाधुन्ध व्यवहार किया जा रहा है उसके परिणामों से ब्रिटिश मेडीकल ऐसोसिएशन के सदस्यों ने चिन्ता व्यक्त की है। डॉक्टर हेचिन्स ने तो झल्लाकर यहाँ तक कहा है - नित नये नामों से निकलने वाली इस अवाँछनीय दवाओं को रोकने के लिए क्या कुछ नहीं किया जा सकता।

डॉक्टरी पत्रिका ‘लान्सेट’ में एक समाचार छपा है - किसी किसान ने अपनी गाय को रोग मुक्त रखने के लिए पेन्सलीन के इन्जेक्शन दो वर्ष देते रहने के फलस्वरूप उसका दूध पीने वालों को चर्म रोग हो गये।

‘ब्रिटिश मेडीकल जनरल’ में एक अनुभवी वैज्ञानिक का अनुभव छपा है कि टेट्रासाइक्लीन वर्ग को एंटीबायोटिक दवाओं के प्रयोग से एक बार कुछ रोगियों की जीभ पर बाल उग आये। उनने लिखा है इस प्रकार के और भी कुछ उपद्रव इन दवाओं से खड़े हो सकते हैं।

फिलाडेल्फिया के डॉक्टर राबर्ट वाइज इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि सल्फाड्रग और एण्टी बायोटिक दवाओं से केवल साधारण श्रेणी के कीटाणु नष्ट होते हैं। उनके प्रयोग से स्टेफिलीकोक्स जाति के खतरनाक कीटाणु उत्तेजित होकर और अधिक बलवान बन जाते हैं और पहले से भी अधिक हानि पहुँचाते हैं।

पोलियो का इंजेक्शन बनाने के लिए टोरोन्टो (कनाडा) यूनिवर्सिटी की प्रयोगशाला में लगभग 18 हजार बन्दरों का प्रयोग किया गया। उनके मूत्र पिण्डों से डॉ. साल्फ द्वारा अनेक रासायनिक क्रियाओं द्वारा जो आविष्कार किया जाना था उसका विज्ञापन तो बहुत हुआ पर काम की चीज कुछ हाथ न लगी। इससे पहले डॉ. लेण्डस्टीनर और पोपर भी रक्त जल - सीरम द्वारा ऐसे ही प्रयोग कर चुके थे। इसके बाद घोड़े चिंपैंजी और मुर्गी के बच्चे पर प्रयोग करके ऐसी चेष्टा की गई कि पोलियो का कोई कारगर इंजेक्शन निकल आवे। फल तो कुछ न निकला, बेचारे निरीह जीवों की निरीह हत्याओं से मनुष्यता कलंकित जरूर होती रही।

डॉक्टर मेलविल कीथ की पुस्तक ‘नरक जाने का सीधा रास्ता’ पुस्तक में प्रमाणों सहित इस सम्भावना का प्रतिपादन किया है कि पीढ़ी दर पीढ़ी हम अधिक अविकसित, पंगु, अन्धी-गूँगी, बहरी, नपुँसक और विकृत मस्तिष्क सन्तानें पैदा करते चले जायेंगे। सौ वर्ष बाद हमारे वंशजों की आकृति, प्रकृति और शारीरिक, मानसिक स्थिति कितनी भयावह होगी आज हम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। क्योंकि आज हम जो खाते, पीते हैं तथा जिस वायु में साँस लेते हैं वह क्रमशः अधिकाधिक विषाक्त होती चली जा रही है।

बाजार में बिकने वाले अन्न, फल, शक, दूध, चीनी आदि पदार्थों को कीटाणु रहित बनाने के लिए उन पर भी दवायें छिड़की जाती हैं। इस विषाक्त छिड़काव की मात्रा थोड़ी होने पर भी धीरे-धीरे वे मनुष्य शरीर में अनेक विकृतियां उत्पन्न करती हैं और इन्हें बिना छिड़के जो हानि हो सकती थी उससे भी अधिक हानिकर परिणाम उत्पन्न करती हैं।

न्यूज क्रानिकल के सम्पादकीय स्तम्भों में इस बात की विस्तृत चर्चा की गई है कि खाद्य पदार्थों को सुरक्षित रखने के उन्माद में उन्हें विषाक्त बनाने का जो उपक्रम चल रहा है उसे रोका जाय। जर्मनी (म्यूनिख) की फेडरल फूड लेबोरेटरी के अध्यक्ष प्रो. वाल्टर ससी तथा अन्य डाक्टरों का कथन है कि इस रासायनिक सम्मिश्रण का परिणाम ऐसी अद्भुत बीमारियाँ उत्पन्न होने के रूप में सामने आ सकता है जिनका निदान और कारण समझ सकना ही असम्भव हो जाय। माँस वृद्धि के लिए पशुओं के शरीर में जो इन्जेक्शन लगाये जाते हैं उस


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