हमारे आदर्शवादी उपदेष्टा एवं सद्गुरु ऐंजाइम

January 1972

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अन्तरंग जीवन की विचित्रताएं इतनी अधिक हैं जिन्हें देखने समझने में बुद्धि चकराती है। उसमें जो कुछ देखना ढूँढ़ना चाहें, सब कुछ मिल जायगा।

अपने इस शरीर में ऐसे सन्त और ऋषि भी विद्यमान हैं जो एक प्रकार से अपना सर्वस्व समर्पण करके ही इस काया को इस योग्य बनाये रख रहे हैं कि वह जीवित और समर्थ कहीं जा सके। पर बदले में कुछ भी लेने की न उनकी इच्छा होती है न लेते ही हैं।

उन ऋषियों का नाम रसायन शास्त्रियों की परिभाषा के अनुसार ‘ऐंजाइम’ है। यों मोटे तौर से समझा यह जाता है कि हृदय, फुफ्फुस, आमाशय, मस्तिष्क, वृक, यकृत आदि अवयवों के क्रिया-कलाप पर जीवन निर्भर है। महत्व और श्रेय इन्हें ही मिलता है। और इनकी खुराक जुटाने के लिए अन्न, जल, श्वास, विश्वास, आच्छादन आदि के साधन जुटाने पड़ते हैं। यह साधन न मिलें तो पारिश्रमिक न मिलने पर नौकरी छोड़ देने वाले मजदूरों की तरह वे भी हड़ताल कर सकते हैं और जिन्दगी का सरंजाम देखते-देखते बिखर सकता है।

दूसरी और वे ‘ऐंजाइम’ घटक हैं जो कभी किसी प्रकार की खुराक ग्रहण नहीं करते। दूसरों पर तनिक भी निर्भर नहीं है, आत्मबल से ही अपनी सत्ता टिकाये हुए हैं। इनकी जानकारी भी मोटे तौर पर सब शरीर रचना जानने वालों को नहीं होती। यश और श्रेय की न उन्हें आकाँक्षा है और न मिलता ही है। मात्र कर्त्तव्य ही इनके सामने सब कुछ है। थकने की आवश्यकता ही प्रतीत नहीं होती। जबकि जीवाणु, कोशिकाएं, ऊतक निरन्तर मरते-जाते रहते हैं तब यह मृत्युंजयी देवताओं की तरह अपने स्वरूप में अवस्थित रह कर बिना परिवर्तन की आवश्यकता अनुभव किये निरन्तर एकनिष्ठ भाव से अपने कर्तव्य की दीपशिखा यथावत् संजोये रहते हैं।

भौतिक विज्ञान की परिभाषा के अनुसार जीवन और कुछ नहीं शरीर की भीतरी रासायनिक प्रक्रियाओं का खेल मात्र है। यों देह के भीतर मुँह आमाशय, आंतें, हृदय, फुफ्फुस, वृक्क, यकृत आदि अवयव ही मोटे तौर पर काम करते दिखाई देते हैं। रक्त संचार, श्वास, प्रश्वास, आकुँचन, प्रकुँचन-तन्तु, चेतना, जैसे सूक्ष्म क्रिया-कलापों को भी देखा समझा जाता है। विभिन्न अवयवों से स्रवित होने वाले पाचक रस, हारमोन ग्रन्थियों से टपकने वाले स्राव, रक्त के सम्मिश्रित जीवाणु ऊतक कोशिकायें आदि भी अपना-अपना कार्य करके जीवन की स्थिरता में सहायता पहुँचाते हैं। इस सारे क्रिया-कलाप को शक्ति देने वाले एक और प्रकार के घटक काम करते हैं जिनके संबंध में अभी बहुत कम जानकारी उपलब्ध हो सकी है। इन घटकों के नाम है-ऐंजाइम।

इन्हें ब्रह्म की तरह कहा जा सकता है जो जीवन से परे होते हुए भी जीवन प्रदान करने में समर्थ है। हमारी रासायनिक क्रियाओं को सतेज रखने में इनका पूरा-पूरा सहयोग हस्तक्षेप रहता है। यदि इनकी गतिविधियाँ लड़खड़ाने लगें तो शरीर में सब कुछ रहने पर भी जीवन की स्थिरता नहीं रह सकती। कहते हैं कि सृष्टि के आदि में इस धरती पर केवल रासायनिक पदार्थ ही बिखरे पड़े थे। उन्हीं के सम्मिश्रण से जीवन उत्पन्न हुआ और जीवधारी हरकत में आये। वे मूल रासायनिक तत्व जो जीवन का सृजन करने में सफल रहे अभी भी हमारे भीतर ‘ऐंजाइमों’ के रूप में विद्यमान हैं। इन्हें जीवन के जनक कहना चाहिए। आश्चर्य इस बात का है इनमें स्वयं जीवन नहीं है। इन्हें निर्जीव कहा जा सकता है तो भी वह जीवन का सृजन ही नहीं संचालन भी करते हैं। न केवल मानव शरीर वरन् पशु-पक्षी कीड़े-मकोड़े यहाँ तक की वृक्ष वनस्पति भी इन्हीं घटकों की उपस्थिति से जीवन धारण करते हैं।

सूक्ष्म-दर्शक यन्त्र से ही दीख पड़ने वाले जीवाणु, बैक्टीरिया-भी इन एन्जाइमों के बलबूते ही जीवित रह रहे हैं। इन घटकों के अतिरिक्त शरीर का हर पदार्थ घटता-बढ़ता रहता है पर यह अपनी स्थिरता अक्षुण्य ही बनाये रहते हैं। कोशिकाओं को ऑक्सीजन न मिले तो वे जीवित नहीं रह सकतीं। पर एक यह, संत ऐंजाइम हैं कि निरन्तर सेवा संलग्न रहते हुए भी आहार तो दूर इस काय कलेवर में साँस तक का एक कण भी स्वीकार नहीं करते। यह कई जाति के होते हैं। हर जाति अपनी निर्धारित कार्य-पद्धति में ही संलग्न रहती है। कोई वर्ग किसी दूसरे के काम पर हाथ नहीं डालता। वर्ण धर्म की तरह इन्हें अपना निर्धारित कार्य ही प्रिय है। जहाँ अन्य जीवाणुओं में परिवर्तन प्रत्यावर्तन होता रहता है वहाँ इनकी सीमा-मर्यादा में कभी राई-रत्ती अन्तर नहीं आता।

जो भोजन पेट में जाता है उसे वर्गीकृत करके पाचन-योग्य यह ऐंजाइम ही बनाते हैं। यदि यह न होते तो रोटी और पत्थर के टुकड़े में कोई अन्तर न रहता। तब हम पत्थर की तरह रोटी भी हजम नहीं कर सकते थे। जो अवयव इन घटकों की प्रेरणा से पाचन रस उत्पन्न करते हैं उन्हें पैंक्रियाज-जठराग्नि कहते हैं-अध्यात्म भाषा में इन्हें वैश्वानर कहा जाता है। मुख की लार में ‘टायलिन’ आमाशय में ‘पेप्सिन’ और ‘रेनिन’ जैसे पाचक-तत्वों के रूप में इन ऐंजाइमों का अस्तित्व देखा जा सकता है। खाद्य-पदार्थों को शरीर में घुल मिल जाने योग्य बनाने का कार्य इन्हीं का है। आमाशय में तीन ऐंजाइम होते हैं (1) ट्रिप्सिन (2) अमाइलीप्सिन (3) लाइपेस। इनके द्वारा किया गया परिवर्तन अन्न को रस रक्त में बदलने की क्रिया को यदि कोई बारीकी से देख समझ सके तो उसे आश्चर्यचकित रह जाना पड़े।

सस्ते वाले अन्न का बहुमूल्य रक्त में बदल जाना कितना अद्भुत है। लाल रंग का पानी रक्त विकसित होते-होते ‘ओजस्’ के मेधा और प्रज्ञा का रूप धारण कर लेता है यह प्रक्रिया आश्चर्यचकित करने वाली है। पर उसे सम्पन्न कौन करता है। इस परिवर्तन के आधार कहाँ है? यह ढूँढ़ने के लिए हमें इन ‘ऐंजाइमों’ के सामने ही नतमस्तक होना पड़ेगा, जिनके अनुग्रह से तुच्छ वस्तुयें महान बनती चली जाती हैं, वे पूर्णता प्राप्त तत्वदर्शियों की तरह अपनी प्रगति की बात नहीं सोचते वरन् दूसरों का उन्नयन, अभिवर्धन ही उनका लक्ष्य है और उस प्रक्रिया को सम्पन्न करते हुए-दूसरों को विकसित देखते हुए-वे इतने ही सन्तुष्ट रहते हैं मानो सब कुछ उन्हें ही मिल रहा हो, उपनिषदों में वर्णित ब्रह्म की तरह यह साक्षी, दृष्टा निर्विकार रहते हुए भी लोक-मंगल के कर्त्तव्य का अथक परिश्रम के साथ निर्वाह करते हैं।

इस घटकों की सक्रियता चेहरे पर तेजस्विता होकर चमकती है। यह शिथिल पड़ते हैं तो सारा शरीर शिथिल तेजहीन व हारा थका-सा दीखता है। भीतरी और बाहरी अंग अवयव अपना काम ठीक तरह नहीं कर पाते और पग-पग पर लड़खड़ाते दीखते हैं। इनकी कमी माँसपेशियों में ऐसी ऐंठन उत्पन्न करती है जिसका अभी कोई इलाज नहीं निकल सका।

इन घटकों के सहायक सेक्रेटरी भी होते हैं। जिन्हें ‘फास्फेट योगिक’ कहते हैं। विटामिनों को इसी वर्ग में रखा जा सकता है। त्रस्त और मौलिव्द्रीनम का सहारा मिल जाय तो ये अधिक समर्थ हो जाते हैं और पारा साइनाइड जैसे विष इनका हनन भी कर देते हैं। इनकी अनुपस्थिति में जीवन रक्षा की कल्पना भी नहीं की जा सकती। मानव जीवन जैसे अद्भुत संस्थान की जितना महत्ता है उससे भी अधिक इन ऐंजाइम घटकों की है स्वयं निर्जीव होते हुए भी ये प्रभावी जीवन संचार कर सकने में समर्थ हैं।

शिक्षा, उपदेश, मार्गदर्शन, करने के लिए बाहर जाने की जरूरत नहीं। सद्गुरु कितने ही रूप में हमारे काय कलेवर में विराजमान हैं और अपना प्रशिक्षण निरन्तर जारी रख रहे हैं। उचित और अनुचित का भेद करने वाला परमार्थ अपना अन्तरात्मा निरन्तर देता रहता है। सत्कर्म करते हुए आत्म-सन्तोष, दुष्कर्म करते हुए आत्मधिक्कार की जो भावना उठती रहती है उसे ईश्वर प्रशिक्षण अन्तरात्मा का उपदेश कहा जा सकता है। काश, हम कुछ सुनने सीखने की-ग्रहण करने-अपनाने की स्थिति में रहे होते तो हेय जीवन न जीते तब महानता ही हमारी गतिविधियों से ओत-प्रोत होती और नर नारायण जैसी स्थिति में रह रहे होते।


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