साँस बोली मनुज से, कि सुन लो जरा!
“मैं सतत चल रही, चल रही यह धरा!!
है नियम सृष्टि का अनवरत घूमना।
ध्येय में प्राण अपने सतत फूँकना॥
फिर न क्यों तुम उभरते, मचलते मनुज?
यह तुम्हारा बदन क्यों उदासी भरा?” मैं सतत चल रही....
धीरता से उठाई अलस सृष्टि तब।
“मैं रुका, तो रुकी नित भ्रमित सृष्टि कब?”
“तुम रुके तो मनुज! रुक गई कर्मगति।”
अनवरत चल रही साँस से स्वर झरा॥ मैं सतत चल रही....
चल रही ये सरित, प्राणशत प्राण की।
चल रही वायु नित, वन सुरभि घ्राण की॥
चल रहे चाँद तारे-सतत-भानु भी।
दिव्य आलोक इनका जगत में भरा॥” मैं सतत चल रही....
चल रही बात का कुछ हुआ तो असर।
त्याग तन्द्रा उठा वह तभी चेत कर॥
था अभी तक पड़ा-अर्ध जागृत बना।
अब सुना साँस का वह सन्देशा जरा॥ मैं सतत चल रही....
साँस कहती रही “ओ उनींदे पुरुष!
प्राण देती तुम्हें नित्य मैं ही पुरुष!
अब न सोचो अधिक! कर्ण खोलो!! सुनो!!!
है व्यथित यह बहुत ही तुम्हारी धरा॥ मैं सतत चल रही....
ताप है, शाप है, अन्ध विश्वास है।
आज बस इस धरा पर अविश्वास है॥
मानवी शक्तियाँ रो रही हैं पड़ीं।
धर्म जाकर छिपा पुस्तकों में डरा॥ मैं सतत चल रही....
तब तड़पने लगी दिव्य मनुजात्मा।
मैं कहाँ खो गया था, ओ परमात्मा!
बन्दिनी है सुमाता सदृश संस्कृति।
प्राण में क्यों रहा आज तक मद घिरा? मैं सतत चल रही....
आज युग धर्म मेरा बनी गति स्वयं।
ज्योति बनकर अखण्डित जलेगा अहं॥
आज गति ही चरण-आज गति ही मरण।
मैं ज्वलित पिण्ड हूँ-सूर्य से जो झरा॥
मैं सतत चल रही, चल रही यह धरा!!
-माया वर्मा
*समाप्त*