गुरुदेव और उनकी दिव्य अनुभूतियाँ

January 1972

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माता-पिता और गुरु को तीन देवताओं की संज्ञा दी गई है। माता को ब्रह्मा, पिता को विष्णु और गुरु को शिव कहते हैं। इन तीनों का लाभ जिसे मिल गया-समझना चाहिए उसने तीनों लोकों की सम्पदा प्राप्त कर ली। भौतिक देहधारी प्रतीक-प्रतिमा वाले माता-पिता और गुरु का भी महत्व है फिर दिव्य सत्ता सम्पन्न इन त्रिदेवों का तो कहना ही क्या?

गुरुदेव के शरीरधारी पिता बारह वर्ष का छोड़कर स्वर्ग सिधार गये थे। माताजी गत वर्ष तक जीवित रहीं। साँसारिक गुरु उनके महामना मालवीय जी थे। यज्ञोपवीत और गायत्री मन्त्र इन्हीं ने दिया था। यों उनके शरीर पर यह तीनों ही यथा सम्भव अनुग्रह बनाये रहे-स्नेह देते रहे, पर जिनका अहर्निशि अजस्र अनुदान निरन्तर मिलता रहा वे तीनों ही दिव्य सत्ता सम्पन्न ही थे। इसे एक स्पृहणीय सौभाग्य ही कहना चाहिए जो उन्हें यह जीवन को धन्य बनाने वाली उपलब्धियाँ मिल सकीं अन्यथा आमतौर से आम लोग वासना, तृष्णा और अहंता की त्रिविधि आग में जलते झुलसते-नारकीय यातना-यन्त्रणा सहते रहते हैं। इस सुर-दुर्लभ मानव-जीवन को यों ही निरर्थक गँवा देते हैं।

तीन दिव्य उपास्य और उनके तीन महान् वरदान

गुरुदेव के माता-पिता ने स्वयंभू मनु और शतरूपा रानी की तरह तप-साधना की थी-ब्राह्मणोचित जीवन जिया था और भगवान से एक ही प्रार्थना की थी-वे एक ऐसा पौधा लगाना चाहते हैं - जो अपनी छाया और सुषमा से इस विष उपवन की शोभा बढ़ाने में समर्थ हो सके। अपने लोभ-मोह के लिये नहीं, उन्हें विश्व-मानव के चरणों में एक श्रद्धा श्रद्धाँजलि के रूप में किसी प्रतीक की कामना थी। सो भगवान ने पूरी करवा दी। एक संस्कारवान् आत्मा जो जन्म-जन्मान्तरों से अपने कषाय-कल्मषों को धोने में संलग्न थी लाकर उनकी गोदी में रख दी। आज से 61 वर्ष पूर्व आत्मा जन्मी कुलीन ब्राह्मण परिवार की उच्च परम्पराओं में लालन-पालन हुआ। खेल-कूद के दिन ही चल रहे थे कि एक दिन अनायास घर से निकल पड़े-भारी ढूँढ़, खोज हुई। गाँव से 5-6 मील दूर स्टेशन पर पकड़े गये। पूछा गया तो इतना ही कहा “हमारा घर तो हिमालय है-वहीं जाना है-यहाँ रहकर क्या करेंगे। आठ वर्ष के बालक के मुँह से निकली हुई यह बात उन दिनों महत्वहीन समझी गयी थी-उसे धमकाया भी गया था। तब किसी को पता न था कि यह कोई हिमालय का बिछुड़ा प्राणी है जो वहीं जाने की लौ लगाये हुये है और वहीं जाकर रहेगा।

तीन देवता-तीन संरक्षक उन पर छाया करने लगे और सहायता देने लगे। माता के रूप में उन्हें-गायत्री माता का-कामधेनु का पयपान करते रहने का अवसर मिला, पिता के रूप में हिमालय, गुरु के रूप में एक ऐसे सिद्ध पुरुष जिन्हें वे अतिमानव-देव सत्त्व और ब्रह्म प्रतीक मानते हैं। शब्दों में वे उन्हें ‘मार्गदर्शक’ कहते हैं-कभी मौज में आते हैं तो ‘मास्टर’ भी। यही हैं उनके तीन सहायक संरक्षक, प्रेरक, अभिभावक। उन्हें वे अमृत, पारस, और कल्पवृक्ष भी कहते हैं। गायत्री मन्त्र अमृत है जिसे पाकर उनकी सत्ता अजर-अमर और देव तुल्य हो गई। हिमालय का पारस स्पर्श करके वे उतने ही ऊँचे उठ सके। हिमाच्छादित धवल शीतलता से भरा-पूरा उनका व्यक्तित्व जिसने भी छुआ अपनी जलन को शान्ति में परिणत करता चला गया। कल्पवृक्ष हैं-उनके मार्गदर्शक। जिन्होंने अपनी शताब्दियों की साधना शक्ति का उपयोग करने की पूरी दे दी हुई है। उस कल्पवृक्ष की छाया में बैठ सकने के कारण ही वे ऐसा और इतना अद्भुत कुछ प्राप्त करते हैं जिसे देख, सुनकर अवाक् रह जाना पड़ता है। मोटे तौर से जो व्यक्तित्व और कर्त्तव्य गुरुदेव का दीखता है वह उनका अपना नहीं। वस्तुतः उपरोक्त तीन दिव्य सत्तायें इस कलेवर में आकर मिलती हैं और वह स्थल तीर्थराज जैसा पवित्र बन जाता है।

इस जन्म में यह सौभाग्य सूर्योदय उस घड़ी हुआ जब वे पन्द्रह वर्ष पूरे करके सोलहवें वर्ष में पदार्पण कर रहे थे। अपने उपासना गृह में एक दिव्य प्रकाश उन्होंने प्रकाशवान् देखा जो बाहर से घनीभूत होता हुआ उनके शरीर, मन और अन्तःकरण में समा गया। उसे आत्मबोध, अन्तःस्फुरणा, दिव्य अनुग्रह, गुरु दर्शन, आन्तरिक या जो कुछ भी समझा जाय प्राप्त हुआ। यह प्रकाश ही उनका मार्ग दर्शक है। भौतिक रूप से वह चिनगारी उस प्रदेश से सम्बन्धित है जिसे गुरुदेव “चेतना का ध्रुव प्रदेश” या हिमालय का हृदय कहते हैं। यह स्थूल भी है, सूक्ष्म भी। इस प्रकाश का स्थूल प्रतीक एक ऐसे सिद्ध पुरुष का शरीर है जो चिरकाल से नग्न, मौन, एकाकी, निराहार रहकर अपने अग्नि अस्तित्व को अधिकाधिक प्रखर, प्रचण्ड बनाते चले जा रहे हैं।

उस महान् मार्गदर्शक का सर्वप्रथम और सर्वश्रेष्ठ अनुग्रह पहले ही दिन जो मिला वह एक आदेश के रूप में था जिसके अनुसार उन्हें गायत्री मन्त्र के माध्यम से चौबीस वर्ष तक तपश्चर्या करने को कहा गया था। भौतिक दृष्टि से इसे हानि माना जाना चाहिए क्योंकि उसमें प्रायः सभी सुविधाओं और हँसी-खुशी की परिस्थितियों का अपहरण कर लिया गया था। साँसारिक दृष्टि से गुरु कृपा, देव-कृपा वह है जिससे धन, पद, वैभव, यश, स्वास्थ्य, परिवार आदि की वृद्धि हो। आमतौर से वरदान, आशीर्वाद यही माँगे भी जाते हैं। बड़प्पन ही लक्ष्य होता है-महानता की बात सोचता कौन है? पर जिन्हें बारीकी से सोचना आता है वे जीवन का लक्ष्य, स्वरूप, महत्व और उपयोग समझते हैं। इस सार्थकता के लिये जिस साधन की आवश्यकता पड़ती है वह है - ‘आत्मबल’। इसी के साथ गुण, कर्म, स्वभाव की अनेक उत्कृष्टतायें जुड़ी रहती हैं। और जब यह तत्व विकसित होता है तो अनायास ही ऐसी अलौकिकतायें फूट पड़ती है जिन्हें ऋद्धि-सिद्धियों के नाम से पहचाना जाता है।

मार्गदर्शक ने यही उचित समझा। जीव का कल्याण और विश्व हित इसी में देखा। वे तप-साधना का आदर्श ही नहीं अटूट विश्वास और प्रचण्ड साहस भी देकर चले गये। परिवार, सम्बन्धी, शुभ चिन्तक सभी ने उस नई प्रक्रिया को अभिशाप समझा, कोसा भी, और रोका भी। जिसने सुना सनक, मूर्खता, बर्बादी आदि न जाने क्या-क्या कहा। ऐसा एक भी स्वजन, सम्बन्धी नहीं निकला जो उस आरम्भिक कष्ट को सहन कर किसान के कृषि कार्य और विद्यार्थी के पठन श्रम से तुलना करता और भावी परिणामों को सोचता। लोगों की दृष्टि बड़ी सीमित होती है वे सिर्फ आज की समझ, सोच, देख सकते हैं। उनमें इतनी समझ कहाँ जो कल की-पीछे की सम्भावना का आभास प्राप्त कर सकें।

नारद जी ने ध्रुव, प्रहलाद, वाल्मीकि को-पार्वती, सावित्री और सुकन्या को ऐसा ही उपदेश दिया था जो तत्काल उनके परिवार को, शुभचिन्तकों को बहुत बुरा लगा था। विश्वामित्र ने हरिश्चंद्र को भी ऐसी ही विचित्र परिस्थितियों में धकेल दिया था। समर्थगुरु रामदास ने शिवाजी को जिस राह पर चलाया था वह उनके घर वालों को तनिक पसन्द नहीं था। रामकृष्ण परमहंस द्वारा विवेकानन्द को जो सलाह दी गई सो उनके घर वालों को बुरी लगी। गुरु गोविन्द सिंह ने अपने शिष्यों को कौन सी जागीरें दी थी उन्हें लड़ने-मरने के त्रास ही दिये थे। भर्तृहरि ने अपने भानजे गोपीचन्द को वैरागी बना दिया और मदालसा ने अपने पुत्रों को तत्व ज्ञानी बनने की शिक्षा दी। बुद्ध का अनुग्रह, अम्बपाली पर, अशोक पर, राहुल पर, आनन्द पर बरसा तो वे ऐश्वर्य की ओर अभिवृद्धि तो दूर उलटे भिक्षुक ही बन गये। गान्धी ने, नेहरू, पटेल, राजेन्द्र बाबू आदि को बन्दीगृह में डलवा दिया। दिव्य सत्ताओं का प्यार, अनुदान भी विचित्र होता है। साधारण लोग उसे लेने का साहस तब करें जब उसका मूल्य महत्व समझने में समर्थ हों।

बड़प्पन और महानता एक दूसरे से लगभग सर्वथा प्रतिकूल हैं। एक को खोकर ही दूसरे को पाया जा सकता है। सो सद्गुरु के मार्गदर्शन ने उन्हें विवेक दिया, विश्वास दिया और साहस दिया। इन तीन अवलम्बनों को पाकर वे अपनी राह पर चल पड़े। कौन क्या कहता है? यह उनने सुना ही नहीं। महानता की राह पर पैंतालीस वर्ष तक उँगली पकड़ कर छोटे बच्चे को चलाते आ रहे उनके मार्गदर्शक की कृपा को सराहा जाय या शिष्य की समर्पण भरी निष्ठा को।

गुरुदेव ने अपना तप, आत्मबल, शिष्य पर उड़ेल दिया और शिष्य ने अपना आपा, अस्तित्व ही उन्हें समर्पित कर दिया। तन तो तुच्छ है। अपनी कोई इच्छा तक शेष नहीं रहने दी। जो मार्गदर्शक की इच्छा वही अपनी। तर्क-वितर्क की कोई गुंजाइश ही नहीं। कप्तान का अनुशासन मानने में सैनिक हिचक सकता है-पर वे तो कठपुतली मात्र रह गये, इशारे पर नाचे। पोली वंशी वही अलापती है जो बजाने वाला तान-स्वर छोड़ता है। इस समर्पण ने उन्हें अपने मास्टर का सब कुछ प्राप्त कर सकने का अधिकार दे दिया-इसे आध्यात्मिक विवाह कह सकते हैं। सुना है जल में कृष्ण ने स्नान करती हुई गोपियों के चीर हरण किये। गुरुदेव के साथ भी यही बीती है। उनके ‘मास्टर’ ने उन्हें सच्चे अर्थों में नग्न, निर्वस्त्र कर दिया। अपना कहलाने जैसा उनके पास कोई पदार्थ तो क्या शरीर भी नहीं, मन भी नहीं, भावना भी नहीं, कामना भी नहीं। कुछ भी नहीं। इस अवधूत स्थिति में उन्हें वह मिला है जिसे अर्हता से संजोये रहने वाला हजार जन्म में भी प्राप्त न कर सकेगा।

दूसरा देवता है उनका हिमालय। यह ही है उनका पिता। देखने भर से ही वह निर्जीव जड़ मालूम पड़ता है। वस्तुतः उसकी चेतना और प्रेरणा अद्भुत है। सन् 1952 के अज्ञातवास से लौटने पर गुरुदेव ने अखण्ड ज्योति में विस्तार पूर्वक इस तथ्य का स्पष्टीकरण किया था कि पृथ्वी की भौतिक शक्तियों का शक्तिकेन्द्र ध्रुव प्रदेश में सन्निहित है। ब्रह्माण्ड को सूर्य की शक्तियाँ पृथ्वी में ध्रुव प्रदेश के माध्यम से आती हैं। ठीक उसी प्रकार दिव्य लोकों की चेतना शक्तियाँ पृथ्वी पर यहीं अवतरित होती हैं जहाँ हिमालय का हृदय अवस्थित है- यहीं से सर्वत्र बिखर जाती है। वे उसे चेतन ध्रुव केन्द्र कहते हैं-ऐतिहासिक दृष्टि से धरती का स्वर्ग उसी प्रदेश में सिद्ध होता है जिसे बद्रीनाथ और गंगाजी का मध्यवर्ती अधिक ऊँचाई का तिब्बत का समीपवर्ती भाग कहना चाहिये। देवताओं का निवास स्थान सुमेरु पर्वत यही है। पाण्डव स्वर्गारोहण के लिए यहीं गये थे। असली कैलाश मानसरोवर वे नहीं जो तिब्बत (चीन) में चले गये। वरन् वे है जो गंगा के उद्गम गोमुख से आगे शिवलिंग पर्वत और दुग्ध सरोवर के नाम से जाने जाते है। फूलों से लदा हुआ नन्दन वन यही है। देवता यहीं रहते हों तो आश्चर्य नहीं। ध्रुव प्रदेश में अगणित आश्चर्य दीख पड़ते हैं। इस हिमालय के हृदय में न केवल परिस्थितियाँ वरन् ऐसी शक्तियाँ और आत्मायें भी विद्यमान हैं जो संपर्क में आने वाले का आत्मिक अलौकिकता का भरपूर आभास करा सकें गुरुदेव के मार्गदर्शक का उन जैसे अन्य सूक्ष्म सत्ता सम्पन्न देवदूतों का भी क्रीड़ा केन्द्र यही है।

इस शक्ति केन्द्र तक पहुँच जाना और वहाँ ठहर सकना ध्रुव प्रदेशों से भी अधिक कठिन है। कभी न गलने वाली बर्फ और ऊँचाई में ऑक्सीजन की कमी, रास्ते का न होना, निर्वाह की सभी आवश्यकताओं का पूर्णतया अभाव यह सब अवरोध तो वहाँ जाने से रोकते ही हैं। चेतन दिव्य शक्तियों की तीखी ब्रह्माण्ड किरणें जो धरती पर फैलने के लिए बरसती हैं; वे भी सामान्य शरीर के लिये सहनीय नहीं। इसलिये वह प्रदेश न केवल प्रकृति ने-सरकार ने-आवागमन के लिए निषिद्ध ठहराया है वरन् दिव्य सत्ताओं ने क्रीड़ा स्थली के रूप में सुरक्षित रखा है। सामान्य शरीर लेकर न वहाँ जाया जा सकता है और न ठहरा जा सकता है।

इससे नीचे का उत्तराखण्ड के नाम से प्रसिद्ध यातायात सम्भावनाओं वाला सुलभ हिमालय प्रदेश भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। अपनी तप-साधना का केन्द्र बिन्दु गुरुदेव ने हिमालय को ही बनाया हुआ है। वह उनका आध्यात्मिक पिता है। चौबीस पुरश्चरणों के बीच भी वे समय-समय पर वहाँ जाते रहे हैं। जो भी जरा भी दुर्बलता उद्विग्नता अनुभव हुई कि वे सीधे हिमालय भागे। यह क्रम उनका अब का नहीं पुराना है। एक का सन् 58 का अज्ञातवास तो प्रसिद्ध भर है। उसे वे तपोभूमि के कार्यकर्त्ताओं की तथा संगठन परिवार की परीक्षा का अवसर बताकर चले गये थे। वैसे वे कितनी ही बार कई-कई महीनों के लिये उधर जाते रहे हैं और नई सामर्थ्य, स्फूर्ति लेकर लौटते रहे हैं-वे उत्तराखण्ड के उस क्षेत्र में अभी भी आत्म साधना के लिये उपयुक्त वातावरण मानते हैं। मोटरों की भरमार और सैलानी तीर्थ यात्रियों की भीड़-भाड़ के वातावरण में दूषित तत्व घुसे हैं। भीड़ के साथ चलने वाली धूर्त मण्डली ने भी धर्म की आड़ में तथा चोर उचक्कों के रूप में स्थिति को काफी बिगाड़ा है। इतने पर भी वह प्रदेश अपनी विशेषतायें अभी भी उतनी बनाये हुये हैं जितनी अन्यत्र देखने, सुनने को भी नहीं मिल सकती। चोरी, उठाईगीरी अभी भी उधर नहीं के बराबर है। आमतौर से लोग सूना घर, बिना ताला लगाये छोड़ जाते हैं। कुली गरीब होते हुए भी किसी का माल नहीं हड़पते। सुन्दरता और गरीबी बहुत बढ़ी-चढ़ी होने पर भी व्यभिचार नहीं है। कठोर परिश्रम सन्तोष और सज्जनता का ऐसा समन्वय अन्यत्र मिलना कठिन है। यह इस भूमि की, इस वातावरण की विशेषता है-जो वहाँ के निवासियों में इस गये-गुजरे जमाने में भी विद्यमान है।

सप्त ऋषियों की-अगणित तपस्वियों की तपोभूमि यह हिमालय ही है। व्यास जी ने अठारह पुराण, शंकराचार्य जी ने उपनिषद् यहीं लिखे। समस्त आर्य साहित्य यहीं सृजा गया है। महान् गुरुकुल चिकित्सा केन्द्र और शोध संस्थान यहीं थे। भारत की आध्यात्मिक परम्पराओं का सूत्र संचालन यहीं से हुआ है। शिव पार्वती का, देव सेना का निवास यहीं है यह प्राचीन मान्यता है। पुराणों के अनुसार राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघन जीवन के उत्तरार्ध में यहीं आकर तप निमग्न हो गये। श्रीकृष्ण जी रुक्मिणी सहित बारह वर्ष के लिये बद्रीनाथ स्थान पर तप करने आये थे। आध्यात्मिक और ऐतिहासिक स्तर पर उस भूमि की अपनी महत्ता है। अन्यत्र जो साधन देर में सफल होते हैं इस उर्वरा भूमि में जल्दी उगते और फलते-फूलते हैं।

हिमालय के हृदय में सूक्ष्म सम्बन्ध गुरुदेव का बना हुआ और स्थूल शरीर से उन्होंने उत्तराखण्ड में अपने साधनाकाल का बहुत-सा भाग लगाया है। अपने पूर्व जन्मों में अनेक स्थानों के साथ इस क्षेत्र में उनकी मधुर स्मृतियाँ संजोई हुई बताते हैं। सो यहाँ उन्हें अपना चिर-परिचित घर ही लगता है। जो रास्ते, घाटियाँ, परिस्थितियाँ स्थानीय लोगों तक को मालूम नहीं उन्हें वे बता देते हैं। आठ वर्ष की आयु में घर से भागकर हिमालय जाने की हूक सम्भवतः इसीलिए उठी हो।

जीवन के इस अन्तिम भाग में उनकी योजना इसी क्षेत्र में शक्ति सम्पादन की है। इसी से उन्होंने हरिद्वार को मध्यवर्ती केन्द्र बनाया है। तप में उनकी असाधारण रुचि है। गंगा और हिमालय के अञ्चल में वैसा ही सुख पाते हैं। जैसे कोई छोटा बालक माता-पिता की गोद में दुलार, सन्तोष पाता है। गुरुदेव का निर्धारित कार्य भी उन्हें जीवन भर करना ही है। मात्र धूमधाम में गले रहकर तप से विमुख होकर-अतिरिक्त भी नहीं होना चाहिए। इसलिए जिस स्थान से दोनों प्रयोजन पूरे करते रह सकें वह केन्द्र शान्तिकुँज, सप्त सरोवर है। सप्त ऋषियों की तप स्थली-गंगा की सात धाराओं का क्रीड़ा स्थल-मध्य केन्द्र के रूप में बनाने का उनका चुनाव दूरदर्शिता पूर्ण है। यहाँ से वे दोनों ही दिशायें सँभालते रहेंगे।

अभी उनके प्रायः सभी काम अधूरे पड़े हैं। नवनिर्माण के लिए जो वातावरण बनाया जाना चाहिये उससे गर्मी लाने के लिये निस्सन्देह प्रचण्ड आत्मबल और ज्वलन्त तपः शक्ति की आवश्यकता है सो वे अपनी साधनाओं से मार्गदर्शक के सहयोग से पूरी करते रहेंगे। अदृश्य रूप से तो अनेक सिद्ध पुरुष और देवदूत ईश्वरीय इच्छा की पूर्ति से संलग्न हैं। गुरुदेव को तो स्थूल एवं प्रत्यक्ष क्रिया-कलाप के लिए ही वरण किया गया था। सो उन्हें उससे छुटकारा नहीं मिल सकता। वे कब लौटेंगे यह दूसरी बात है पर उनका क्रिया-कलाप उभयपक्षी ही रहेगा। आर्थिक शक्ति प्राप्त करने के लिए अधिक समय, अधिक कहीं जाया करें यह हो सकता है पर जब जन-संपर्क को सर्वथा तोड़ देना न उनके मार्ग-दर्शक को अभीष्ट है और न परिस्थितियाँ ही वैसा करने देंगी। अस्तु उन्हें हरिद्वार का मध्य केन्द्र विनिर्मित करना पड़ा जिससे दोनों दिशाओं में अपनी गतिविधियाँ सक्रिय रख सकें।

साधारणतया उनका हिमालय प्रवास कष्ट और कठिनाइयों से ही भरा होता है आहार की व्यवस्था, असह्य शीत, एकाकी निर्वाह, हिंसक जीवों की भरमार, मनोरंजन की शून्यता जैसी कितनी ही कठिनाइयाँ हैं। कपड़े धोना, हजामत जैसे छोटे साधन भी दुर्लभ होते हैं। हिमालय पिता उन्हें कठिनाई ही देता है। इस सुनसान नीरवता में भौतिक दृष्टि से आकर्षण ही क्या है? मार्गदर्शक गुरु की तरह लगता है यह पिता भी कम निष्ठुर नहीं। दुनिया की आँखें यही कह सकती हैं। और गुरुदेव को दयनीय स्थिति में पड़ा हुआ, फँसा हुआ मान सकती हैं पर जिन्हें दिव्य नेत्र वाली दिव्य दृष्टि प्राप्त है वे देखें कि इस दिव्य भण्डार में से वे कितनी सम्पदा लाद कर लाते हैं। जब भी वापिस आये हैं उनकी जेबें बहुमूल्य उपलब्धियों से भरपूर ही निकली हैं।

तीसरा उनका अभिभावक है गायत्री मन्त्र। इसे वे अपनी माँ कहते हैं। श्रुतियों ने उसे वेदमाता कहा है। पुराण उसे कामधेनु कहते हैं। तन्त्र में उसका महाकाली, कुण्डलिनी, शक्ति, ज्वाला आदि नामों से विवेचन किया है और अग्नि विद्या के नाम से उसके अवतरण की प्रक्रिया समझा है। ब्रह्मवेत्ता उसे ब्रह्मविद्या, भूयाँ, ऋतम्भरा आदि कहते हैं। जो भी कहा जाय कम है। वस्तुतः उसकी गरिमा और महत्ता इतनी अधिक है कि मनुष्य की वाणी तो क्या कल्पना भी उसके समान स्वरूप तक नहीं पहुँच सकती। इस महाशक्ति की प्रचण्ड गरिमा को मनुष्य अपने भाव चुम्बक से आकर्षित कर सकता है और अपनी पात्रता के अनुरूप इसी दिव्य सत्ता का अभीष्ट अंग अपने में धारण कर सकता है। गायत्री वह अग्नि है जिससे मनुष्य के समस्त कषाय-कल्मष जल सकते हैं और वह शुद्ध स्वर्ण की तरह अपना गौरव एवं वर्चस्व प्रतिपादन करने में भी समर्थ हो सकता है।

लोग उपासना का एक अंश की सीखे हैं-कर्मकाण्ड। जप, हवन, स्तवन, पूजन आदि शरीर एवं पदार्थों से सम्पन्न हो सकने वाली विधि-व्यवस्था तो कर लेते हैं पर उस साधना को प्राणवान सजीव बनाने वाली भावना के समन्वय की बात सोचते तक नहीं। सोचें तो तब जब भावना नाम की कोई चीज उनके पास हो। बड़ी मछली छोटी को निगल जाती है और कामना-भावना को; कामनाओं की नदी में आमतौर से लोगों की भाव कोमलता जल-भुनकर खाक होती रहती है। तथ्य यह है कि भावना पर श्रद्धा, विश्वास पर-आन्तरिक उत्कृष्टता पर ही अध्यात्म की साधना की-सिद्धियों की आधारशिला रखी हुई है। यह मूल तत्व ही न रहे तो साधनात्मक कर्म-काण्ड, मात्र धार्मिक क्रिया-कलाप बनकर रह जाते हैं, उनका थोड़ा सा मनोवैज्ञानिक प्रभाव ही उत्पन्न होता है। साधना के चमत्कार श्रद्धा पर अवलम्बित हैं। मीरा, सूर, कबीर, तुलसी, नरसी आदि भक्त, सन्तों की-शंकराचार्य, ज्ञानेश्वर बुद्ध, अरविन्द, रमण, विवेकानन्द, रामतीर्थ आदि सन्तों की, ऋषियों और तत्व ज्ञानियों की जो साधन सफलता देखी, सुनी जाती है-उसमें उनकी भाव गम्भीरता ही प्रधान कारण थी।

गुरुदेव की गायत्री उपासना असामान्य है। वे मात्र जप, ध्यान ही नहीं करते पूजा-पाठ का कर्मकाण्ड सम्पन्न करके ही सन्तुष्ट नहीं होते वरन् उसके साथ अपने अन्तःकरण की समस्त कोमलता को माता के चरणों में उड़ेल कर रखते हैं। कोई समीप से उनके उपासना क्रम को देखे तो पाये कि मीरा की, रामकृष्ण परमहंस की विह्वलता भरी श्रद्धा उनके रोम-रोम से फूटी पड़ रही है, आँखें प्रायः डबडबाई रहती हैं। अखण्ड-दीपक के प्रकाश में उनका चेहरा तपे हुए सोने की तरह रक्त वर्ण दीखता है। लगता है सविता देवता का भर्ग स्वर्ग से धरती पर उतरता चला आ रहा है।

भौतिक नेत्रों से देखा जाय तो गायत्री माता ने भी उन्हें क्या दिया? बालकपन और युवावस्था हँसने, खेलने में बिताने वाले भाग्यवान माने जाते हैं-वह समय उन्होंने कैदियों से भी बुरी तरह बिताया। स्वार्थ क्या होता है जाना ही नहीं। पाँच छटाँक जौ का आटा, सवासेर छाछ बस न नमक, न मसाला, न शक्कर, न शाक, न पकवान, न मिठाई। भला यह भी कोई जिन्दगी है। शरीर को, मन को भौतिक इच्छाओं, आवश्यकताओं को कसने, मारने में कितना कष्ट और क्षोभ होता है-इसे वही जान सकता है जिसने तितीक्षा की, शमदम की कठोर साधना की हो वह व्रत-उपवास, शीत, धूप सहने की साधना से हजार गुनी कठिन है। यदि यही गायत्री देती है तो फिर उस लेने से क्या लाभ?

पैतृक सम्पत्ति लाखों की थी। मेरे पास भी जेवर, स्त्री धन भी हजारों का था उसका बढ़ना तो दूर उलटे जो कुछ था सब छिन गया और खाली हाथ असहाय, दरिद्रों जैसी स्थिति में रहना पड़ा भला यह भी कोई सिद्धि हुई?

दुनिया वाले आरम्भ में भी हँसते थे और उनकी कसौटी पर हम लोग अभी भी हँसी, उपहास के पात्र हैं। जहाँ तृष्णा, वासना और अर्हता की पूर्ति ही लाभ-सौभाग्य वरदान माना जाता हो वहाँ गुरुदेव की ही तरह सच्चे अध्यात्मवादी को उपहासास्पद ही बनना पड़ेगा। यहाँ हर चीज मूल्य देकर खरीदी जाती है। बड़ी उपलब्धियाँ प्राप्त करने के लिए शार्टकट सीधी पगडण्डी नहीं है। राजमार्ग पर चलकर ही जीवन-लक्ष्य की मंजिल पूरी करनी पड़ती है। भौतिक सम्पदाओं की कीमत पर ही आत्मिक विभूतियाँ खरीदी जाती हैं। एक को छोड़ने से ही दूसरे को पाया जाना सम्भव है। दोनों प्राप्त करने के लिये लालायित लोग तथ्य को समझते नहीं मन्त्रों को जादू की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं और देवताओं को भी फूल-फलों के-रोली, चावल के प्रलोभन में फँसा फुसला कर उनकी जेब काटना चाहते हैं। इसे बाल-क्रीड़ा ही कहना चाहिये। बच्चों के बनाये हुए बालू के महल कहीं निवास आवास का प्रयोजन पूरा करते हैं? उथली मनोभूमि पर पूजापाठ की विडम्बनाओं में उलझे रहने वाले कहाँ सफल मनोरथ होते हैं?

गुरुदेव की तीन समर्थ अभिभावक थे और उन्होंने तीनों की भरपूर सेवा करके उचित मूल्य पर तीनों से उपयुक्त वरदान पाये।

हिमालय पिता ने उनका व्यक्तित्व विनिर्मित किया। गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता उसी की देन है। शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक सन्तुलन उन्हें पिता का दिया हुआ है। दृष्टिकोण में उत्कृष्टता, लक्ष्य की ऊँचाई, सर्वतोमुखी प्रतिभा, अविचल साहस और अटूट धैर्य जैसी दिव्य सम्पदाओं को लेकर ही वे ऊँचे उठे हैं और महामानव के स्तर पर पहुँचे हैं। यह उपलब्धियाँ उनके पिता हिमालय की दी हुई हैं। यदि ऊपर से यह अनुग्रह न मिला होता तो अपने बलबूते इतना उपार्जन करना तो दूर इतनी सफलता मिलना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य था।

दूसरा अनुदान उनके मार्गदर्शक का-मास्टर का है। सार्वजनिक जीवन में लोक-मंगल की दिशा में जो कुछ भी वे कर सके हैं उसके पीछे काम करने वाली शक्ति एक प्रकार से उन्हें उधार अनुदान में मिलती है। साधनों की दृष्टि से उन्हें असमर्थ और असहाय ही कहना चाहिये। पैसे की दृष्टि से अपने हाथ खाली माँगने में इतना संकोच जिससे किसी को आवश्यकता का पता भी न चले। भरपूर विज्ञापन न करने के कारण धनी लोगों की उपेक्षा आदि अनेक बाधक कारणों के रहते भी उनकी योजनायें धन के अभाव में रुकी नहीं। इसे उनके मार्गदर्शक की प्रत्यक्ष अनुकम्पा ही कहनी चाहिये। बोलने में उन्हें रुकावट होती है पर जब भाषण देने खड़े होते हैं तो जिह्वा पर सरस्वती नाचती है और एक-एक शब्द सुनने वालों के मस्तिष्क और हृदय में जगह बनाता चला जाता है। नासमझ बच्चे भी शोरगुल बन्द करके इतनी तन्मयता से उनका भाषण सुनते हैं मानो उनकी समझ का कोई आकर्षक मनोरंजक प्रसंग चल रहा हो। लेखनी का जादू भरा सम्पादन रहता। वह मस्ती पैदा करती और उसमें स्फुरणा, जान होती है और उनका लिखा जिसने पढ़ा सो प्रभावित हुए बिना न रहा। छोटी विज्ञप्तियों से लेकर विशालकाय ग्रन्थों तक उनने बहुत कुछ लिखा है। पत्रिकाओं में कलम दूसरों की भी चलती है पर बिजली वे ही भरते हैं। इस लेखनी का ही चमत्कार-जिसने करोड़ों को उनके प्रवाह में बहने और साथ उड़ने के लिए विवश कर दिया। वैज्ञानिक अध्यात्मवाद के नये प्रतिपादन ने वैसे तो संसार भर में हलचल पैदा कर दी है और नास्तिकता का मजबूत किला कपड़े के खेमे की तरह उखड़ने खड़खड़ाने लगा है। संगठन की क्षमता-रचनात्मक कार्यक्रमों की योजना-भावी महाभारत की व्यूह रचना जिस दूरदर्शिता के साथ की जाती है और सफलता की प्रतिक्रिया तत्काल परिलक्षित होती है उसके पीछे गुरुदेव की अपनी प्रतिभा नहीं वरन् निश्चित रूप से उनके महान् मार्गदर्शक का अनुदान मूल कारण है। इस तथ्य को दूसरे न जानते हों-न जानें श्रेय उन्हें ही देते हैं-दें। पर जो तथ्य उनके संपर्क में रहने के कारण विदित है उन्हें देखते हुए यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं लगता कि उनके सार्वजनिक जीवन की लोक-मंगल की-युग-निर्माण अभियान की जो कुछ भी सफलता दृष्टिगोचर होती है उन्हें उनके मार्गदर्शक का अनुदान माना जाय। यह अनुदान उनने कीमत चुका कर पाया है। पात्रता सिद्ध करने पर मिला है, इतनी प्रशंसा तो की भी जा सकती है। की भी जानी चाहिए।

तीसरी संरक्षक है उनकी माँ जिसे वे छोटे बालक द्वारा शरीरधारी माँ से भी अधिक प्यार करते हैं। उसका पयपान करके ही उनका भावनात्मक शरीर परिपुष्ट होता है। ब्रह्मवर्चस, आत्मबल, ऋषि तत्व जो कुछ भी दीख पड़ता है वह उन्हें इस गायत्री माता से ही प्यार उपहार में मिलता है। गाय जिस तरह अपने छोटे बछड़े को चाहती है-उसे अपना दूध पिलाते हुए सन्तोष अनुभव करती है, वही स्थिति उनके और उनकी दिव्य सत्ता के बीच बन गई है।

धनी वे नहीं है पर उनकी दिव्य सम्पदा का वारापार नहीं। वृक्ष अपने समीप आने वाले का छाया, सुगन्ध, फूल-फल से स्वागत करते हैं। सरोवर के समीप हर किसी को प्यास बुझाने का अवसर मिलता है, पुष्प उद्यान में हर कोई सुगन्ध का लाभ लेता है। सूर्य से हर किसी को गर्मी व रोशनी मिलती है। चन्द्रमा की चाँदनी हर संपर्क में आने वाले पर बरसती है। समर्थ संत भी अपने निकट आने वाले किसी को खाली नहीं जाने देते।

सार्वजनिक जीवन के साथ-साथ उनका जनसंपर्क बढ़ा। यों यह लोक मंगल और नवनिर्माण का ढाँचा मार्गदर्शक के आदेशानुसार खड़ा किया गया था और संपर्क साधकर उसी प्रयोजन की पूर्ति करना लक्ष्य था; पर जो भी समीप आया माता जैसी उदार अन्तरात्मा में पहले उसकी व्यक्तिगत व्यथा, चिन्ता और कठिनाई को समझने की कोशिश की और जितना अपनी सामर्थ्य में था उतनी सहायता करने में कोई कंजूसी कभी भी नहीं की। किसी पर एहसान करने के लिये नहीं। चमत्कार दिखाकर आकर्षित करना और फिर उससे कुछ काम निकालने की बात कभी स्वप्न में भी नहीं सूझी। सहज करुणा और स्वाभाविक ममता ने दूसरों में अपनी ही आत्मा देखी और जिस प्रकार मनुष्य स्वयं दुःखी होता है उसी प्रकार उनकी परदुःख कातरता ने, हर व्यक्ति की वेदना ने उन्हें रुलाया। आत्मीयता जितनी बढ़ी उतनी परदुःख कातरता भा। सुखी तो इस दुनिया में केवल सन्त और सज्जन होते हैं-घिरी हुई भीड़ में तो भव बन्धनों के जाल-जंजाल में कसे हुये-छटपटाते और तड़फड़ाते रुदन-क्रन्दन करते हुये प्राणी हो सकते थे। सो उन्हें उपदेश देकर टाल देने से कैसे काम चलता। तात्कालिक सहायता की माँग तो न अनदेखी की जा सकती थी न अनसुनी। सो उन्होंने कोटि-कोटि मनुष्यों को प्रकाश ही नहीं अनुदान भी दिये हैं। भले ही वे उस उपलब्धि से अपरिचित ही रहे हों।

संबंधित भौतिक कष्ट पीड़ितों को उनकी सहायता निरन्तर मिली है। रोते हुये आने वाले हंसते हुये लौटे हैं। शारीरिक अस्वस्थता, आर्थिक कठिनाई, गृह-कलह, शत्रुओं का आक्रमण, मानसिक असन्तुलन, प्रगति में अवरोध, सन्तान संकट जैसी कठिनाइयों में ही भौतिक जीवन उलझा रहता है। इन भारों को हलका करने के लिये उन्होंने अपना सहयोग निरन्तर दिया है। कर्म-भोग अमिट है। भगवान राम के पिता दशरथ भी श्रवणकुमार के तीर मारने के कर्म फल से बिलख-बिलख कर मरे थे। भगवान कृष्ण को बहेलिये का तीर का निशाना बनकर अपने प्राण गँवाने पड़े थे, कर्मफल पूर्णतया नष्ट-भ्रष्ट नहीं हो सकते पर एक दूसरे को सहायता देकर परस्पर बोझ और संकट को बाँटा जा सकता है। अपना कोट देकर दूसरों की शीत व्यथा में सहायता हो सकती है। अपना पुण्य और तप भी दूसरों को दिया जा सकता है।

यही पूँजी उनकी कमाई की थी सौ दोनों हाथों से लुटाने में ही उसकी सार्थकता समझते रहे। उनका तप और पुण्य उनके अपने लाभ के लिये, स्वर्ग-मुक्ति या सिद्धि के लिये एक रत्ती भर भी नहीं लगा। इस उपार्जन का शत-प्रतिशत भौतिक एवं आत्मिक सहायता करके दूसरों को सुखी और समुन्नत बनाने के लिये नियोजित होता रहा। सच तो यह है कि यह खर्च आमदनी से बहुत अधिक हो चुका है। रामकृष्ण परमहंस को गले का केन्सर इसलिये हुआ था कि उनने तप से अधिक वरदान दिये। कर्मफल तो भोगना ही ठहरा। सो परमहंस जी को भी भुगतना पड़ा हम लोगों की स्थिति भी ऐसी ही है। जीवन के अन्तिम दिनों में गुरुदेव को या मुझे ऐसी ही कष्ट-ग्रस्त स्थिति में मरना पड़े तो किसी को कुछ भी आश्चर्य नहीं करना चाहिये वरन् नियति क्रम की व्यवस्था ही समझना चाहिये।

भौतिक अनुदान कर्मफल से व्यथित, कष्ट पीड़ितों को जिनकी आत्मा में प्रकाश और संस्कार के बीज मौजूद थे उन्हें खाद-पानी के रूप में वे अनुदान दिये गये और वे श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम बनते चले गये। जो और भी ऊँचे थे-पुष्प की तरह खिल रहे थे, उन्हें तोड़कर देवता के चरणों में चढ़ा देने का उपक्रम किया गया। पुण्य धन्य हो गये। सज्जन और संस्कारी आत्माओं को महामानव के रूप में विकसित करने के लिये इतने कम परिश्रम नहीं किये हैं, जिनमें आत्मा चेतना जाग गयी थी उन्हें त्याग और बलिदान के मार्ग पर चलने के लिए अपने साथ ही ले लिया। गायत्री तपोभूमि में वे ऐसे ही त्याग और बलिदान की हिम्मत करने वालों को अपना उत्तराधिकारी छोड़कर आये हैं। पारस लोहे को ही सोना बना पाता है। एक गुरुदेव हैं जो दूध और पानी के मिलन का उदाहरण प्रस्तुत करते चले जाते हैं वे अपनी प्रति कृतियाँ अपने पीछे छोड़ जाने के लिये क्या आतुर नहीं हैं। ढूँढ़ते रहते हैं-जिसमें तनिक भी उपयुक्तता दीख पड़ती है उसी पर वैसे ही लद पड़ते हैं जैसे अनिच्छुक विवेकानन्द पर रामकृष्ण परमहंस लद पड़े थे और अन्ततः उसे महामानव बनाकर ही चैन लिया। ऐसे अनुदानों की मात्रा भी कम नहीं है।

यह भौतिक, मानसिक, आत्मिक अनुदान जो बादलों की तरह वे निरन्तर बरसाते रहते हैं; आखिर कहाँ से आते हैं? यह अनुदान उनकी माता का-वेद माता का है। ब्रह्मवर्चस अनऋषि तत्व की सारी सम्पदा उ


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