भारतीय संस्कृति ही विश्व संस्कृति है।

January 1972

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

भारतीय संस्कृति एक ऐसी विश्व-संस्कृति है जो मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाने की क्षमता से ओत-प्रोत है। वह उच्चस्तरीय विचारणा जिससे व्यक्ति अपने आप में सन्तोष और उल्लास भरी अन्तः स्थिति पाकर सुख और शान्ति से भरा-पूरा जीवन जी सके भारतीय तत्व ज्ञान में कूट-कूट कर भरी है। वह आदर्शवादी क्रिया-पद्धति जो सामूहिक जीवन में आत्मीयता, उदारता, सेवा, स्नेह-भावना, सहिष्णुता और सहकारिता का वातावरण उत्पन्न करती है -भारतीय संस्कृति के शिक्षण की मूलधारा है। इस महान तत्व ज्ञान का अवगाहन भारतीय प्रजा चिरकाल तक करती रही और उसके फलितार्थ इस रूप में सामने आये कि यहाँ के नागरिकों को समस्त संसार में देव पुरुष कहा गया और जिस भूमि में ऐसे महामानव उत्पन्न होते हैं उसे स्वर्ग के नाम से संबोधित किया गया।

यहाँ के तैंतीस कोटि नागरिकों को विश्व में तैंतीस कोटि देवताओं के नाम से पुकारा जाता था और जब भी भारत भूमि का स्मरण किया जाता था उसे ‘स्वर्गादपि गरियसी’ ही कहा जाता था। यहाँ के निवासी प्रेम, सदाचरण, सुव्यवस्था और समृद्धि का सन्देश और मार्गदर्शन लेकर विश्व के कोने-कोने में पहुँचे तथा शान्ति और प्रगति के साधन जुटाने का नेतृत्व करते रहे। इतिहासकार इस तथ्य को भुला न सकेंगे कि भारत ने न केवल अपने देश को समुन्नत बनाया वरन् समस्त विश्व को शान्ति और प्रगति के लिए सहयोग एवं मार्गदर्शन प्रदान किया। इस देश के नागरिकों की यह उच्च भूमिका इसीलिए संभव हो सकी कि उन्होंने महान भारतीय संस्कृति को हृदयंगम किया था। उसका महत्व समझा था, और स्वीकार किया था कि यही दार्शनिक पथ प्रदर्शन मानव-जीवन के लिए श्रेष्ठतम है। इस आस्था को क्रियान्वित करने की सुदृढ़ निष्ठा ही हमारी ऐतिहासिक महिमा तथा गरिमा का एकमात्र कारण है।

भारतीय संस्कृति किसी वर्ग, सम्प्रदाय या देश, जाति की संकीर्ण परिधियों में बँधी हुई साम्प्रदायिक मान्यता नहीं है। न किसी व्यक्ति विशेष या शास्त्र विशेष को आधार मानकर उसकी रचना की गई है। सार्वभौम्य मानवीय आदर्शों के अनुरूप उसका सृजन हुआ है और देशकाल पात्र के अवरोध से उसमें हेर-फेर करना पड़े ऐसी त्रुटि नहीं रखी गई है। उसे निःसंकोच सार्वभौम, सर्वकालीन और शाश्वत कहा जा सकता है। दूसरे शब्दों में भारतीय संस्कृति को हम विश्व मानव के सदैव प्रयोग में आ सकने योग्य चिन्तन प्रक्रिया एवं कार्यपद्धति भी कह सकते है। इस स्वरूप के कारण ही उसे भूतकाल में समस्त संसार ने देखा, सराहा और स्वीकार किया था। भविष्य में भी जब इस अनैतिक भगदड़ से दुखी होकर मानव जाति को किसी असन्तुलित दर्शन की आवश्यकता पड़ेगी तो उस आवश्यकता की पूर्ति केवल भारतीय संस्कृति ही कर सकेगी।

‘संस्कृति का अर्थ है वह कृति-कार्य पद्धति जो संस्कार सम्पन्न हो, ऊबड़-खाबड़ पेड़-पौधों को जिस प्रकार काट-छाँट कर उन्हें सुरम्य और सुशोभित बनाया जाता है, वही कार्य-व्यक्ति की उच्छृंखल मनोवृत्तियों पर नियन्त्रण स्थापित करके संस्कृति द्वारा सम्पन्न किया जाता है। किसान जैसे भूमि को खाद, पानी, जुताई आदि से उर्वर बनाता है और बीज बोने से लेकर फसल तैयार होने तक उन पौधों को सींचने, सँभालने, निराने, रखाने की अनेक प्रक्रियाएं सम्पन्न करता है, वहीं कार्य संस्कृति द्वारा मानवीय मनोभूमि को उर्वर एवं फलित बनाने के लिए किया जाता है। अंग्रेजी में संस्कृति के लिए ‘कलचर’ शब्द आता है। उसका शब्दार्थ भी उसी ध्वनि को प्रकट करता है। अस्त-व्यस्तता के निराकरण और व्यवस्था के निर्माण के लिए-जो प्रयत्न किये जायें, उन्हें कलचर कहा जा सकता है। संस्कृति का भी यही प्रयोजन है।

‘संस्कृति’ के साथ ‘भारतीय’ शब्द जोड़ कर उसे भारतीय संस्कृति कहा जाता है। इसका अर्थ यह नहीं कि वह मात्र भारतीयों के लिए ही उपयोगी है। अन्वेषण का श्रेय देने के लिए कई बार नामकरण उसके कर्ताओं को दे दिया जाता है। कई ग्रह नक्षत्रों की अभी-अभी नई शोध हुई है। उनके नाम उन शोधकर्ताओं के नाम पर रख दिये गये हैं। पहाड़ों की जिन ऊँची चोटियों पर जो यात्री पहले पहुँचे इनके नाम भी उन साहसियों के नाम पर रख दिये गये। धर्म सम्प्रदायों के संबंध में ही ऐसा ही होता रहा है। उनके आचार्यों संस्थापकों का नाम स्मरण बना रहे इसलिए उनके नाम से भी वे सम्प्रदाय पुकारे जाते हैं। इसका अर्थ उन पदार्थों या मान्यताओं को उन्हीं की सम्पत्ति मान लेना नहीं है जिनका कि नाम जोड़ दिया गया है। हिन्दुस्तान में ‘वर्जीनिया’ तम्बाकू पैदा होती है। उसका आरम्भिक उत्पादन ‘वर्जीनिया’ में हुआ था इस लिए नामकरण उसी आधार पर हो गया। यह प्रतिबन्ध लगाने की बात कोई सोच भी नहीं सकता कि उस तम्बाकू का उपयोग या उत्पादन मात्र वर्जीनिया के लिए ही सीमित रखा जाय। भारतीय संस्कृति का उद्भव, विकास, प्रयोग, पोषण एवं विस्तार भारत से हुआ इसलिये उसे उस नाम से पुकारा जाता है तो यह उचित ही है पर इसका अर्थ यह नहीं माना जाना चाहिए कि उसका प्रयोग इसी देश में निवासियों तक सीमित था अथवा रहना चाहिए।

यजुर्वेद 4/14 में एक पद आता है-”सा प्रथमा संस्कृति विश्व धारा” अर्थात् यह प्रथम संस्कृति है जो विश्व व्यापी है। सृष्टि के आरम्भ से सम्भव है ऐसी छुटपुट संस्कृतियों का भी उदय हुआ हो जो वर्ग विशेष काल विशेष या क्षेत्र विशेष के लिये ही उपयोगी रही हों। उन सब को पीछे छोड़कर यह भारतीय संस्कृति ही प्रथम बार इस रूप में प्रस्तुत हुई कि उसे ‘विश्व संस्कृति’ कहा जा सके। हुआ भी यही-जब उसका स्वरूप सर्वसाधारण को विदित हुआ तो उसकी सर्वश्रेष्ठता को सर्वत्र स्वीकार ही किया जाता रहा और सर्वोच्च भी। फलस्वरूप वह विश्वव्यापी होती चली गई। इसी स्थिति का उपरोक्त मन्त्र भाग में संकेत है। इतिहास न भी माने तो भी तथ्य के रूप में स्वीकार करना ही होगा कि विश्व संस्कृति माने जाने योग्य समस्त विशेषताएं इस भारतीय संस्कृति में समग्र रूप से विद्यमान हैं।

‘विश्ववारा’ शब्द का अर्थ होता है- ‘विश्ववंकृणो-तीति-विश्व वारा’ अर्थात् जो समस्त संसार द्वारा वरण की जा सके-स्वीकार की जा सके वह ‘विश्व बारा’ दूसरे शब्दों में इसे ‘सार्वभौम’ भी कह सकते हैं। संस्कृति के लिए दूसरा शब्द ब्राह्मण ग्रन्थों में ‘सोम’ आता है। सोम क्या है? अमृतम् वै सोमः (शतपथ) अर्थात् अमृत ही सोम है। अमृत क्या है-ज्ञान और तप से उत्पन्न हुआ आनन्द। इस प्रकार भारतीय संस्कृति का तात्पर्य उस श्रद्धा से है जो ज्ञान और तप की, विवेक युक्त सत्प्रयत्नों की-और हमारी भावना और क्रियाशीलता को अग्रसर करती है। इस संस्कृति को जब, जहाँ जितनी मात्रा में अपनाया गया है वहाँ उतना ही भौतिक समृद्धि और आत्मिक विभूति का अनुभव आस्वादन किया गया है।

आवश्यकता इस बात की थी कि राजनैतिक गुलामी से मुक्त होकर हम साँस्कृतिक दासता से भी मुक्त होने का प्रयत्न करते पर इस दिशा में कुछ किया ही नहीं जा सका इसे अपना दुर्भाग्य ही कहना चाहिए। विदेशी आक्रमण के दिनों में यह स्वाभाविक था कि शासक लोग अपने पराधीनता पाश को चिरस्थायी बनाये रहने के लिए राजनैतिक साम, दाम, दण्ड, भेद से अधिक प्रयत्न भावनात्मक दासता स्वीकार करने के लिए करते। ऐसा हुआ भी है। अपने तत्व-दर्शन को भ्रष्ट, विकृत और अनुपयोगी बनाने के लिए मुसलमानी समय में पण्डितों और साधुओं द्वारा अनेक प्रकार की ऐसी भ्रान्तियाँ जोड़ी गई जो व्यक्ति को दिशा भ्रम ही करा सकती थी। सोचा यह गया होगा कि अनाचार के विरुद्ध संगठित विद्रोह न उठ खड़ा हो-इसलिए भाग्यवाद, सन्तोष की महत्ता, ईश्वर इच्छा, पलायन वाद, मायावाद, कर्म संन्यास जैसे तथ्यों में मिला कर जनमानस को मूर्छित और कायर बना दिया जाय। इसी प्रकार अंग्रेजी शासन काल में भारतीयों को काले अंग्रेज बनाने के लिए अंग्रेजी शिक्षा के साथ-साथ अंग्रेजी संस्कृति को भी घुला दिया गया। ताकि भारतीय संस्कृति की महानता कहीं इन देशवासियों में फिर स्फुरणा पैदा न कर दे। और चंगुल में आई शिकार फिर पंजे से छूट कर न भाग जाय। लार्ड मेकाले का वह शिक्षा षड़यन्त्र सर्वविदित है जिसके अनुसार उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा का विस्तार करने में यही दृष्टि प्रधान रखी थी कि भारतीय प्रकारान्तर से अंग्रेजियत का वर्चस्व शिरोधार्य कर लें और अंग्रेजी शासन चले जाने पर भी यहाँ के निवासी अपने आदर्शों का उद्गम अंग्रेजी सभ्यता को ही मान कर उसके समर्थक तथा अनुयायी बने रहें। समय बीत गया अब हमें चेतना चाहिए था, पर उस जागृति की ओर ध्यान ही नहीं दिया जा रहा जो समस्त जागृतियों का मूलभूत स्त्रोत है।

भारतीय संस्कृति की अपनी अनोखी विशेषताएं है। सच तो यह है कि ‘संस्कृति’ शब्द के साथ जुड़ी हुई विशेषताओं को पूरा कर सकने में-समस्त कसौटियों पर कसे जाने पर, खरी सिद्ध होने में एक भारतीय संस्कृति ही समर्थ है। अन्य संस्कृतियाँ तो मात्र ‘सभ्यता’ है। सभ्यता किसी देश, काल एवं परिस्थितियों को ध्यान में रखकर विनिर्मित की जाती हैं, और उसकी सीमा उतने ही दायरे में सीमित रहती है। हर परिस्थिति और देश काल के लिए समान रूप से उसका उपयोग नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें सैद्धान्तिक कम और व्यावहारिक तथ्य अधिक होते हैं। व्यवहार तो ऋतुओं के परिवर्तन के साथ ही बदल जाता है, आयु का हेर-फेर भी व्यवहार बदलने को विवश कर देता है। ऐसी दशा में व्यवहार व्यवस्थाओं की प्रधानता के आधार पर बनी हुई ‘सभ्यताएं’ सार्वदेशिक अथवा सर्वकालीन हो ही कैसे सकती हैं। अंग्रेजी सभ्यता भारत के लिए उपयुक्त बैठ सकती है इसमें पूरा सन्देह है।

भारतीय संस्कृति महान ही नहीं वरन् वह बेजोड़ भी है। उसके आचरण व्यवहारों के विशुद्ध रूप को देखें - मध्यकालीन विकृतियों की घुसपैठ को उसमें से हटा दें तो निस्सन्देह वह व्यवहार व्यवस्था भी उतनी उच्च कोटि की सिद्ध होगी कि वैयक्तिक व्यवहार और सामाजिक संगठन की परिष्कृत शैली सामने आ जाय। और हम उन जंजालों से बच जायें जो व्यष्टि और समष्टि को उद्विग्न-उन्मत्त बनाकर विनाश की ओर धकेलती चली जा रही है। संस्कृति की उत्कृष्टता का तो कहना ही क्या-उसे मानवीय ही नहीं दैवी संस्कृति कह सकते हैं। नर-पशु को नर-नारायण के रूप में विकसित कर सकने की सारी संभावनाएं इस दार्शनिक ढाँचे के अंतर्गत विद्यमान हैं जिन्हें किसी समय भारतीय संस्कृति के नाम से पुकारा जाता था - और अब यदि वह शब्द किसी को अरुचि कर हो तो उसका नाम ‘विश्व-संस्कृति’ भी दिया जा सकता है।

धर्म, अध्यात्म, ईश्वर, जीव, प्रकृति, परलोक पुनर्जन्म, स्वर्ग, नरक, कर्म, अकर्म, प्रारब्ध, पुरुषार्थ, नीति, सदाचरण, प्रथा, परम्परा, शास्त्र, दर्शन आदि मान्यताओं के माध्यम से भारतीय संस्कृति मनुष्य को चरित्रवान संयमी कर्तव्य परायण, सज्जन, विवेकवान्, उदार और न्यायशील बनने की प्रेरणा करती है। सबमें अपनी आत्मा समाया देखकर सब के साथ अपनी पसन्दगी जैसा सौम्य सज्जनता भरा व्यवहार करना सिखाती है और बताती है कि भौतिक सफलताएं तथा उपलब्धियाँ न मिलने पर भी विचार एवं कर्म की उत्कृष्टता के साथ जुड़ी हुई दिव्य अनुभूति मात्र का अवलम्बन करके अभावग्रस्त परिस्थितियों में भी आनन्दित रहा जा सकता है। अधिकार की अपेक्षा कर्तव्य की प्राथमिकता - आलस्य और अवसाद का अन्त और प्रचण्ड पुरुषार्थ में निष्ठा - अपने लिए कम दूसरों के लिए ज्यादा, यही तो भारतीय संस्कृति के मूल आधार हैं जिन्हें शास्त्र और पुराणों के विभिन्न कथोपकथनों द्वारा अनेक पृष्ठ-भूमियों में प्रतिपादित किया गया है। यह मनुष्य को पूर्ण मनुष्य बनाने की एक नेतृत्व विज्ञान, मनोविज्ञान, नीति शास्त्र और समाज विज्ञान की एक परिष्कृत एवं समन्वित चिन्तन प्रक्रिया है जिसे भारतीय संस्कृति के नाम से जाना पहचाना जाता है।

व्यक्ति और समाज की विश्वव्यापी समस्याओं का समाधान करने के लिए उस संस्कृति का आश्रय लिए बिना और कोई मार्ग नहीं, जिसे भारतीय संस्कृति कहा जाता रहा है और दूसरे शब्दों में उसे विश्व संस्कृति भी कह सकते हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118