प्रेम का अमरत्व और उसकी व्यापकता

January 1972

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प्रेम किसी पदार्थ या व्यक्ति से आरम्भ हो सकता है पर उस तक सीमित नहीं रह सकता। जब सीमाबद्ध हो जाय तो उसे मोह कहा जायगा। आरम्भ का मोह आगे चलकर प्रेम के रूप में विकसित हो यह उचित है, पर यदि उतने ही दायरे में सीमित रह गया तो उसे बौना या कुबड़ा कहा जायगा। बौने मनुष्य वे होते हैं जिनके हाथ-पैर बढ़ते नहीं, जिनकी शरीर स्थिति बड़े होने पर भी बालकों जितनी रह जाय उन्हें हास्यास्पद ही समझा जाता है। माँ के पेट से बालक छोटा सा उत्पन्न हुआ था, उस समय उसकी वह स्थिति ठीक थी पर सदा उतना ही वजन तथा आकार बना रहे तो यह ऐसा शिशु चिन्ता का कारण ही बनेगा। प्रेम के अंकुर व्यक्ति या पदार्थ के माध्यम से उत्पन्न हों सो ठीक है पर वे अंकुर उतने ही बड़े रह जायें, आगे न बढ़ें-वृक्ष रूप में परिणत न हों तो उनकी क्या सार्थकता रही?

परिवार बढ़ाने में विवाह से लेकर सन्तानोत्पादन तक में प्रेम भावना की अभिवृद्धि का सरल स्वाभाविक अभ्यास शुरू कराया जाता है, किशोर को अपने ही शौक-मौज की, खाने-खेलने की इच्छा रहती है। वह अपने लिए कई सुविधायें तथा वस्तुयें प्राप्त करने के लिए अभिभावकों से लड़ता-झगड़ता रहता है, तब उसके मन में पाने ही पाने की आकाँक्षा रहती है। पर जब थोड़ा बड़ा होता है और विवाह हो जाता है तो पत्नी के लिए उपहार देने या साधन जुटाने में मन मुड़ जाता है। अपनी शौक-मौज अपने शरीर में नहीं पत्नी के शरीर में पूरा होते देखना चाहता है और इस संदर्भ में वह जितना कर पाता है उतना ही प्रसन्न होता है। तब पत्नी की प्रसन्नता उसकी अपनी प्रसन्नता बन जाती है। आगे चलकर बच्चे होते हैं, तब पत्नी तक प्रेम की परिधि सीमित न रहकर बच्चों में फैल जाती है और बच्चों की प्रसन्नता तथा प्रगति के लिए निरन्तर चेष्टा की जाती रहती है। उस प्रयत्न में अपने आपे को क्रमशः खोया और भुलाया जाने लगता है। अपने को दूध न मिले कोई शिकायत नहीं, बच्चों को मिलना ही चाहिये। खुद सस्ते, फटे-पुराने कपड़े पहनकर काम चलालें बच्चों की फीस और पुस्तकों का खर्च जुटना ही चाहिए। बच्चों की आवश्यकता पूर्ण होने पर बड़ा सन्तोष मिलता है तब अपने अभावों की बात ध्यान में भी नहीं आती। परिवार को आत्म विस्तार की - प्रेम प्रशिक्षण की छोटी सी पाठशाला कहा जाय तो यह उपयुक्त ही होगा।

किन्तु कोई व्यक्ति जीवन भर प्राइमरी पाठशाला में ही पढ़ते रहने की जिद करे और अगले बड़े स्कूल में जाने के लिए तैयार न हो तो उसे बाल बुद्धि ही कहा जायगा। प्रेम का प्रशिक्षण घर परिवार में हो या किसी वस्तु अथवा व्यक्ति से आरम्भ हो उसकी स्वाभाविकता समझ में आती है पर जब कोई उतने तक ही सीमाबद्ध होकर रह जायगा आगे न बढ़ेगा तो रुके हुए पानी की तरह सड़न पैदा हुए बिना न रहेगी। जो प्यार सीमाबद्ध होकर रह जाता है उसे मोह कहते हैं, मोह में पक्षपात जुड़ जाता है। औचित्य का ध्यान नहीं रहता। प्रिय पात्र की त्रुटियों का परिमार्जन करने की इच्छा नहीं होती वरन् उन्हें भी प्रिय मानकर समर्थन किया जाने लगता है। इससे प्रेम की महत्ता ही नष्ट हो जाती है। प्रेम गंगा जल है जिसे जहाँ छिड़का जाय वहीं पवित्रता पैदा करे पर यदि वह गन्दे नाले में गिरकर अपनी पवित्रता खोदे तो इसे दुर्भाग्य ही कहा जायगा। प्रेम पात्र लगाव का नहीं है-और न पक्षपात के अथवा हर प्रकार के समर्थन सहयोग का। उसमें आदर्शों की अविच्छिन्नता जुड़ी रहती है। आदर्श विहीन प्यार को मोह कहेंगे। मोह अपने प्रिय पात्र के अनुचित कार्यों का भी समर्थन करने लगता है तब उसकी ऊँचा उठाने की क्षमता नष्ट हो जाती है और गंगाजल का गन्दे नाले में गिरकर अपनी महत्ता खो बैठने जैसा उदाहरण बन जाता है। मोह को प्रेम की विकृति ही कह सकते हैं इसलिए उसकी प्रशंसा नहीं की जा सकती है। प्रेम देवतत्व है उसका घुलन देवत्व के साथ ही हो सकता है। प्रेम एक उत्कृष्टता है जिसका आदर्शों के साथ ही तालमेल बैठ सकता है। आदर्शों का उल्लंघन करके जो मैत्री स्थापित होती है उसे हल्के दर्जे की दोस्ती भर कर सकते हैं। ऐसी दोस्ती किन्हीं भौतिक स्वार्थों या आकर्षणों पर टिकी होती है। अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए दूसरे का स्वार्थ पूरा करने के लिए रजामन्द रहना यह एक घटिया दर्जे का मानसिक व्यापार है। इसमें प्रेम की महानता कहाँ रही। जिसमें महानता के प्रति आस्था जुड़ी न हो वह कैसा प्रेम?

अवाँछनीयता के साथ मोह समझौता कर सकता है, प्रेम नहीं। प्रेम तो पवित्रता की गंगा है उसके संपर्क में जो भी आवेगा उसे पवित्रता, शीतलता और शाँति ही प्रदान करेगी। जो मलीनता को धोने की शक्ति से रहित हो वह कैसा गंगाजल? यदि हम किसी वस्तु से प्रेम करते हैं तो स्वभावतः उसे स्वच्छ, सुन्दर एवं सुरक्षित रखने का प्रयत्न करते हैं यों ही अस्त-व्यस्त या मलीन स्थिति में नहीं पड़ा रहने देते। फिर जिस व्यक्ति से प्रेम किया जाय उसकी श्रेष्ठता को अक्षुण्य रखने या बढ़ाने का प्रयत्न क्यों नहीं किया जाना चाहिए? मैत्री आत्मा से की जाती है, व्यक्ति की महानता, उत्कृष्टता, सद्भावना एवं प्रगति से की जाती है, न कि उसकी मलीनताओं और निकृष्टताओं से।

प्रेम आगे बढ़ाता है और जो आगे बढ़ाता है, वह प्रगतिशील है प्रतिगामी नहीं। सूर्य पूर्व से उदय होता है पर उसका प्रकाश समस्त दिशाओं को उपलब्ध होता है। बादल समुद्र में से निकलते हैं पर बरसते सब जगह हैं। प्रेम का आरम्भ देव प्रतिमा से लेकर अपने मित्र परिवार से आरम्भ किया जा सकता है पर उसे उतने तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए वरन् नगर, राष्ट्र, विश्व की सीमाओं में विकसित होना चाहिए और देश, धर्म, समाज संस्कृति की श्रेष्ठता अभिवर्धन करने वाले क्षेत्रों में अग्रसर होते हुए विश्व मानव की-समस्त संसार की सेवा साधना में निरत होना चाहिए। आदर्शों के अभिवर्धन में ही प्रेम की सार्थकता है। ऐसी मैत्री तो प्रेम तत्व को कलंकित ही कर सकती है जो पतन के गर्त से प्रेमी को न निकाल सके और न स्वयं ही उससे निकल सके। सघन मित्रता एवं सद्भाव रखते हुए प्रेमी की अवाँछनीयता को स्वीकार करने और उसमें सहयोग देने से इनकार किया जा सकता है और यदि इतने भर से मित्रता टूटती हो तो उस कच्चे आधार पर टिकी हुई मानकर टूटने का खतरा भी उठाया जा सकता है। आदर्श तो प्रेम का प्राण है यदि आदर्श ही चला गया तो प्रेम की सड़ी हुई लाश को छाती से बाँधे फिरने से क्या लाभ?

प्रेम कभी असफल नहीं होता क्योंकि उसकी सफलता सामने वाले के प्रतिदान पर टिकी नहीं रहती। देव प्रतिमायें कुछ भी प्रतिदान नहीं देती। हमारी नित्य की पूजा अर्चा, शृंगार, सज्जा के बदले कभी धन्यवाद तक नहीं कहती। हमारे बिलखने पर भी उनकी आंखें सजल नहीं होती फिर भी हमारी आराधना चलती ही रहती है और प्रतिदान के अभाव में भी आस्था ज्यों की त्यों बनी रहती है। प्रेमी ने हमारे प्रेम का प्रत्युत्तर क्या दिया, इसे देखने की फुरसत ही कहाँ होती है? न इसकी आवश्यकता ही अनुभव होती है। प्रेम अपने आप में पूर्ण है, वह एकाँगी एक पक्षी होकर भी यथा स्थान पर अपने पैरों पर खड़ा रह सकता है। दूरवासी प्रेमी को चित्र की निकटता जैसा आनन्द प्रदान कर सकता है। जहाँ कुछ पाने की लालसा नहीं वहाँ असंतोष या असफलता का कोई कारण ही शेष नहीं रह जाता। ईश्वर कि यदि निष्काम भक्ति की जाय और प्रतिदान की आशा न की रखी जाय तो वह भक्ति भावना शाश्वत बनी रह सकती है। उनमें न चढ़ाव-उतार आता है और न असन्तोष का कोई अवसर प्रस्तुत होता है।

जहाँ देना ही देना है, लेने की इच्छा ही नहीं वहाँ असफलता क्या होनी है? प्रेमी की जीत उसकी मुट्ठी में सुरक्षित रहती है। क्योंकि उसे प्रेम के साथ सेवा और सहायता ही करनी है। जहाँ कुछ पाना हो वहाँ खीज और दुःख हो सकते हैं पर जहाँ देना ही देना रहा वहाँ उस प्रयास को कौन रोक सकेगा? इसमें व्यवधान वह निर्धारित प्रेमपात्र भी नहीं कर सकता। वह विमुखता या रुखाई दिखाये तो भी प्रेम के प्रवाह में कुछ अन्तर नहीं आता क्योंकि वह अपने आपमें पूर्ण है और आदर्शों पर टिका हुआ है। आदर्शों से प्रेम ही-प्रेम की परिणति है और उस स्तर पर पहुँचा हुआ प्रेम ही ईश्वर का प्रतीक बनकर सर्वत्र सुख-शाँति की वर्षा करता है।


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