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January 1972

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आध्यात्मिक महत्वाकाँक्षा की, आत्म गौरव की भूख, शारीरिक भूख की अपेक्षा कई गुनी तीव्र, आवश्यक एवं महत्वपूर्ण है। -अज्ञात

हो सकती है जिसके माध्यम से लोक-लोकान्तरों की-भूगर्भ की-पञ्च भौतिक परिस्थितियों को देखा और समझा जा सके। इतना ही नहीं इस तीसरे नेत्र में वह शक्ति भी है कि जीवित प्राणियों की मनःस्थिति, भावना, कल्पना, योजना, इच्छा, आस्था एवं प्रकृति को भी समझा जा सके। इस आज्ञाचक्र को विकसित करने की साधना हमें दृष्टि की प्रखरता और व्यापकता का अनुपम उपहार दे सकती है। यह उपहार न केवल वर्तमान का ही परिचय प्राप्त करने में समर्थ है वरन् चिर अतीत में जो घटित हो चुका और निकट भविष्य में जो होने जा रहा है उसका पूर्वाभास भी जाना जा सकता है।

भौतिक उपलब्धियों के लिए जितना प्रयत्न किया जाता है उतना ही यदि आत्मिक विभूतियों के लिए किया जा सके और उनका महत्व समझा जा सके तो हम वर्तमान ससीमता के घेरे को लाँघकर अपना कार्यक्षेत्र असीम तक - विराट् तक-विस्तृत कर सकते हैं।


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