हज यात्रा पूरी करके एक दिन अब्दुल्ला बिन मबारिक काबा में सोये हुए थे।
सपने में उनने दो फरिश्तों को आपस में बातें करते देखा। एक ने दूसरे से पूछा-इस साल हज के लिए कितने आदमी आये और उनमें से कितनों की दुआ कबूल हुई?
जवाब में दूसरे फरिश्ते ने कहा-यों हज करने को 40 लाख आये थे। पर इनमें से दुआ किसी की कबूल नहीं हुई। एक साथ सिर्फ एक की कबूल हुई है-और वह भी ऐसा है जो यहाँ नहीं आया।
पहले फरिश्ते को बहुत अचम्भा हुआ। उसने पूछा-भला वह कौन खुशनसीब है जो यहाँ आया भी नहीं, पर उसकी हज कबूल हो गई?
दूसरे फरिश्ते ने पहले को बताया-वह है-दमिश्क का मोची-अली बिन मूफिक।
अब्दुल्ला की आंखें खुलीं। सपना उन्हें बेचैन कर रहा था। उस पाक हस्ती को देखा तो जाय, जिस अकेले की ही हज मंजूर हुई।
अब्दुल्ला बिन मुबारिक अगले ही दिन दमिश्क के लिए चल पड़े और वहाँ उन्होंने मोची मूफिक का घर ढूँढ़ निकाला।
पूछा-क्या तुम हज को गये थे?
मूफिक की आँखों में आँसू भर आये और सिर हिलाते हुए कहा-मेरा मुकद्दर ऐसा कहाँ जो हज जा पाता। जिन्दगी भर की मेहनत से 700 दिरम उस यात्रा के लिए जमा किये थे। पर एक दिन मैंने देखा पड़ौस के गरीब लोग पेट की ज्वाला बुझाने के लिए वह चीजें खा रहे हैं जिन्हें खाया नहीं जा सकता उनकी बेबसी ने मेरा दिल हिला दिया और हज के लिए जो रकम जमा की थी सो उन मुफलिसों को बाँट दी।
अब्दुल्ला की समझ में आ गया कि जिस्म से की जाने वाली हज और रहम दिली की कारगुजारी में कितना फर्क होता है।