सभ्यता और फैशन के नाम पर विषाक्त भोजन

January 1972

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अमेरिका में अधिकतर खाद्य पदार्थ पैक बन्द डिब्बों या एयर टाइट बोतलों में मिलते हैं। अधिक देर तक खराब न होने और धूलि आदि का प्रभाव न पड़ने तथा लाने ले जाने में सुविधा की दृष्टि से ऐसा किया जाता है। सुन्दर और सुसज्जित कलेवर का भोजन शायद आँखों को अच्छा लगने से मन को भी भाता हो, जो हो, अमेरिका में अधिकाँश खाद्य पदार्थ सुन्दर पैकिंग किये हुए बन्द कलेवरों में ही मिलते हैं।

इन पदार्थों में बहुत से मिठाई मिश्रित भी होते हैं। शक्कर का वजन घटाने और मिठास बढ़ाने की दृष्टि से वहाँ चीनी का सत समझे जाने वाले सैक्रीन जैसे पदार्थ मिलाये जाने का रिवाज है। कैमिस्टों की भाषा में उन्हें ‘साइक्लेमेट्स’ कहते है। आम लोग भले ही उसे चीनी का सत समझें वस्तुतः वह एक विषैला पदार्थ होता है जो थोड़ा-थोड़ा पेट में पहुँचते रहने पर भी अन्ततः स्वास्थ्य के लिए संकट उत्पन्न करने का कारण बनता है। अमरीकी सरकार ने खोज-बीन के बाद ऐसे 172 प्रकार के खाद्य पदार्थों पर कानूनी बन्दिश लगाई है जिनमें यह नकली मिठास-साइक्लेमेट्स मिले रहते थे। इन प्रतिबन्धित पदार्थों में दो करोड़ पौण्ड मीठा विष मिलाया जाता है। इसे 15 करोड़ व्यक्ति खाते थे और इन्हें बनाने वाली कम्पनियाँ साबडडडडड अरब डालर का मुनाफा कमाती थी। इतनी बड़ी कमाई के कारण वे उस नकली मिठास का गुणगान खूब करती थी। असली शक्कर से भी इसे अच्छा बताती थी और विज्ञापनबाजी का ऐसा जाल फैलाती थी, जिससे आम जनता इसे ही वरदान समझे और इसके मुकाबले असली शक्कर का छूना भी अपनी बेइज्जती समझे। इतना मुनाफा जिन्हें होता हो, वे यदि जनता को भ्रम-जंजाल में फँसाने के लिए विज्ञापनबाजी द्वारा मिल को पहाड़ बना दे तो इसमें आश्चर्य ही क्या?

यह कानूनी बन्दिश की पकड़ में आया हुआ नकली मिठास - साइक्लेमेट्स आखिर है क्या? यह जानना मजेदार है। आरम्भ में कारखाने के गरमी उत्पन्न करने वाले बायलरों में उनके जल्दी खराब न होने की सुरक्षा के लिए इस रसायन को पोतने के काम में लाया जाता था। सन् 1937 में शिकागो विश्वविद्यालय के एक छात्र ने संयोगवश इसे चख लिया। उससे पूर्व यह गन्दा और विषैला पदार्थ चखने की किसी की भी इच्छा भी नहीं हुई थी। छात्र की जीभ से यह पदार्थ जरा सा छुआ था कि उसकी तेज मिठास दिन भर मुँह में बनी रही। इसके बाद लोग इस पर टूट पड़े और पिछले बीस वर्षों से अमेरिका ही नहीं अन्य देशों में भी इसका भरपूर प्रयोग होता रहा।

इसके सेवन से उत्पन्न होने वाली शिकायतों की ओर डॉक्टरों का ध्यान गया तो इसकी जाँच-पड़ताल आरम्भ हुई। ‘साइन्स न्यूज’ पत्रिका में एक शोध पूर्ण लेख में सिद्ध किया कि इस मीठे जहर से पेट का सत्यानाश होता है और रक्त इतना विषैला हो जाता है कि उस पर तेज ‘एंटीबायोटिक’ दवाओं तक का कोई असर नहीं होता। कृषि विभाग की शोध रिपोर्ट में छपा है कि इसकी एक प्रतिशत शरीर में उपस्थित होने से केन्सर होने की आशंका उत्पन्न हो जाती है। चूहे, मुर्गी, खरगोश आदि छोटे जीवों पर लगातार प्रयोग करने के बाद जो निष्कर्ष निकले उन्हें देखते हुए स्वास्थ्य विज्ञानियों ने इसे ‘अखाद्य’ घोषित करने की प्रबल माँग की। फलस्वरूप कानून बना और प्रतिबन्ध लगाया गया। अब ‘साइक्लेमेट्स’ को रासायनिक शब्द कोश में विषैला पदार्थ छापा जाने लगा है। इससे पूर्व वह साधारण खाद्य पदार्थ था।

मीठा जहर तो दुर्भाग्यवश पकड़ और चपेट में आ गया। ऐसे-ऐसे ढेरों पदार्थ अभी और इसी स्तर की हानि पहुँचा रहे हैं जिन्हें सभ्यता के नाम पर - सुन्दर संगठित मजेदार बनाने के नाम पर धड़ल्ले के साथ प्रयोग किया जा रहा है। डबल रोटी, बिस्कुट, केक आदि का प्रचलन दिन-दिन बढ़ रहा है। चौके, चूल्हे के झंझट से बचने के लिए लोग सुन्दर पैकिंगों में मिलने वाले इन्हीं पदार्थों से दैनिक भूख बुझाने के लिए निर्भर होते जा रहे हैं। इनमें खमीर पैदा करने के लिए सोडा बाई कार्ब सरीखे रासायनिक तत्व मिलाये जाते हैं। इनमें अण्डा, मक्खन, दूध के स्थान पर प्रयुक्त होने वाले सस्ते रासायनिक पदार्थ भी खूब प्रयोग हो रहे हैं। एक डबल रोटी बनाने वाली अमेरिकन कम्पनी के निर्माण की जाँच करने पर पता चला कि वह पौष्टिक खाद्य डालने की अपेक्षा सस्ते ‘एमल्सीफायर’ मिलाती है, जिससे देखने, खाने में तो वह निर्माण भी भला लगता है पर गुणों में बिल्कुल भिन्नता रहती है। अमेरिका के ‘हाउस से प्रोप्रियेशन कमेटी’ की रिपोर्ट है कि खाद्य पदार्थों में इन दिनों लगभग 5 रासायनिक तत्व मिलाये जाते हैं। इनमें से अधिकाँश ऐसे होते है जिनकी प्रतिक्रिया को ठीक तरह जाँचा नहीं गया है। इन प्रामाणिक रसायनों का खाद्य पदार्थों में जैसा बेहिसाब सम्मिश्रण हो रहा है उसे देखते हुए लगता है कि यह मिलावट सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए चुनौती बनकर रहेगी और मानव-जीवन के लिए खतरा उत्पन्न करेगी।

‘बच्चों के लिए पौष्टिक खुराक’ के नाम पर विज्ञापित पदार्थों में आमतौर से ‘मोनो सोडियम ग्लोटायेट’ मिलाया जाता रहा है। और उसे आरम्भ से ही हानिरहित समझा जाता रहा है। अब परीक्षणों ने प्रमाणित किया है कि यह मानसिक सन्तुलन बिगाड़ने वाला भयावह पदार्थ है। परीक्षण किये गये कितने ही जानवर उससे पागल हो गये। अब इस सम्मिश्रण का उत्पादन करने वाली कम्पनियों को उपरोक्त निर्माण बन्द करना पड़ा है।

पेय पदार्थों में मिलाया जाने वाला नारंगी रंग का सत रसायन इसी प्रकार हानिकारक ठहराया और बन्द किया गया जबकि पहले उसे आकर्षक, सुगन्धित, पौष्टिक, मजेदार आदि न जाने क्या-क्या कहा जाता था।

नारवे के डॉक्टर एलैप्सटीन ने बीमार भेड़ों की जिगर खराबी जानते हुए पता लगाया कि उनमें ‘नाईट्रेट्स की मात्रा बढ़ जाने से यह बीमारी फैली। इस खोज से यह भी पता चला कि सामान्य भोजन में रहने वाले साइक्लोहैना इलामीन तत्व जब ‘नाइट्रेट्स’ में मिल जाते हैं तो ‘नाइट्रोसेमीन’ नाम का एक नया तत्व पैदा करते हैं जो मानव शरीर में घातक प्रतिक्रिया पैदा करते हैं और केन्सर तक की सम्भावना बन जाती है। इन दिनों खाद्य पदार्थों के डिब्बों और बोतलों को सुरक्षित रखने के लिए प्रचुर मात्रा में नाइट्रेट्स प्रयोग किया जाता है। यह प्रयोग चुपके-चुपके क्या अनिष्ट पैदा कर रहा होगा इसे समय ही बतायेगा।

अन्न को सुरक्षित रखने - उसे कीड़ों से बचाने के लिए खेतों तथा गोदामों में वेंजोन, निकिल, डी.डी.टी., हाइक्सीकिनीलोन कार्बोक्सी-मिथाइल, आरसोनेट, स्टिलवेस्ट्रील आदि रसायन प्रयुक्त होते हैं। यह कीड़ों को ही नहीं मारते, भोजन के साथ पेट में पहुँच कर मनुष्य को भी मारते हैं। चूँकि मनुष्य कीड़ों से बड़ा है इसलिए उसकी मौत भी धीरे-धीरे होती है अन्तर सिर्फ इतना ही है।

‘छिपे बधिक’ नामक पुस्तक में बूथमुनी ने सभ्यता के नाम पर प्रयुक्त होने वाले इन रसायनों का खतरा संसार के सामने प्रस्तुत किया है और लिखा है कि यदि समय रहते चेता न गया, नवीनता की चमक-दमक के पीछे अन्धी होकर दौड़ने वाली दुनिया को अपने हाथों विषपान करके मरने वाली मूर्खता अपनाने का दण्ड भुगतना पड़ेगा।

गरीब देशों के पिछड़े हुए लोगों का गन्दगी पसन्द, अवैज्ञानिक और खाद्य पदार्थों में जीवन तत्वों की तालिका न जानने जैसी नासमझियों के कारण उपहासास्पद समझा जाता था। उनको मूर्खता के लिए तिरस्कृत किया जाता था पर इन सभ्यताभिमानियों को क्या कहा जाय तो दूसरी किस्म का अन्ध विश्वास अपनाकर उन पिछड़े हुए लोगों से भी कहीं अधिक आत्म-घात करने पर तुले हुए हैं।

विटामिनों और मिनिरल की - पुष्टाई की दवायें और खुराकों की-जहाँ आँधी तूफान जैसी बाढ़ आ रही हो वहाँ भी यदि स्वास्थ्य संकट खड़ा रहे तो समझना चाहिए कि कोई बड़ी और भयंकर भूल हो रही है। सुविधाओं और जानकारियों की दृष्टि से संसार का अग्रणी माना जाने वाले अमेरिका में यदि हर साल पाँच लाख व्यक्ति केन्सर जैसे भयानक रोग से तड़प-तड़प कर मरें तो समझना चाहिए कि भूल छोटी नहीं बड़ी ही है।

सभ्यता की चकाचौंध फैशन, ठाट-बाठ तक रहे तो सह्य है पर जब उसकी पहुँच खाद्य पदार्थों तक जा पहुँचे तब तो ईश्वर ही रक्षक है। धीरे-धीरे भूल को पहचानने की दिशा में लोगों का दिमाग लौटा है और देखभाल आरम्भ की है तो पता चलता जाता है कि रसायनों का अन्धाधुन्ध प्रयोग जिस गति से खाद्य पदार्थों में होने लगा है उससे हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए संकट भरी विभीषिका ही उत्पन्न होती और बढ़ती चली जा रही है। सरकारें सतर्क भी होने लगी हैं। प्रतिबन्धों की बात सोची जा रही है। कई योरोपीय देशों ने डिब्बों में बन्द फलों को निषिद्ध ठहराया है।

राष्ट्रपति जॉनसन ने एक बार जनता को चेतावनी देते हुए कहा था-’खाद्य पदार्थों को सुन्दर और सुगन्धित बनाने का फैशन जनता के पेट में ऐसी चीजें पहुँचा रहा है जो खाई जाने योग्य है और जिनके कारण स्वास्थ्य संकट बढ़ेगा। अच्छा यह है कि स्वाभाविक और सादगी की ओर मुड़ें और भोजन की कृत्रिमता से परहेज करें।’

भूत-प्रेतों का अन्ध-विश्वास अब पुराना हो चला - उसमें समझदार लोग नहीं फँसते पर अब नये किस्म के अन्ध विश्वास ऐसे चल पड़े हैं जो तथाकथित सुशिक्षित और सभ्य लोगों पर आसानी से सवार होते हैं। विज्ञान के नाम पर जो भी बात कही जाती है उसे आँख बन्द करके अपनाने लगना - अन्धविश्वास ही कहा जा सकता है। दवा-दारु, टॉनिक, पौष्टिक आहार के नाम पर लोग ऐसी चीजें खाते चले जा रहे हैं जो स्वास्थ्य सम्वर्धन में रत्तीभर भी सहायता नहीं करती - वरन् जादू जैसी क्षणिक चमक दिखाकर शरीरों को एक प्रकार से ऐसा अशक्त बना देती हैं जो पीछे बिना दवाओं के सहारे खड़ा ही न रह सके। दुर्बलों को सबलता मिलने का आश्वासन देकर निकम्मी कौड़ी मोल की चीजों के बदले अशर्फियाँ वसूल की जाती हैं। झाड़-फूँक करने वाले भूत-प्रेतों के बहाने भोले लोगों को ठगा करते थे। अब दवायें, टानिक और पौष्टिक आहार बनाने वाली कम्पनियाँ न केवल रद्दी चीजें बेचकर लोगों को मूँड़ती हैं वरन् ऐसी चीजें भी उनमें मिला देती हैं जो सुन्दरता, स्वाद, सुगन्ध तो पैदा करती हैं पर साथ ही अपने विषैलेपन से सार्वजनिक स्वास्थ्य को हानि भी कम नहीं पहुँचाती।

प्रकृति की ओर वापिस लौटना ही श्रेयस्कर है। सरल और स्वाभाविक भोजन सस्ता होते हुए भी कृत्रिम और कीमती, भड़कीले खाद्यों से कहीं अधिक उत्तम है। आहार-विहार के संयम से आरोग्य की जितनी सुरक्षा हो सकती है उतनी हजारों रुपये की दवाओं से भी सम्भव नहीं। यह तथ्य जितनी जल्दी हम स्वीकार कर सकें उतना ही उत्तम है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118