एक हाथ में माला-एक हाथ में भाला के मंत्र दाता

January 1972

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गुरु गोविन्द सिंह का जन्म उन दिनों हुआ जिन दिनों विदेशी आक्रमणकारी यहाँ शासक बन कर बैठ गये थे। और भयंकर शोषण तथा उत्पीड़न से प्रजा को बेतरह पीस रहे थे।

अवसाद की कुछ ऐसी घड़ियाँ थी वे संगठित विरोध किधर से भी बन नहीं पड़ रहा था। कितने राजा सामन्त इन शोषकों के साथ मिलकर अपना स्वार्थ साध रहे थे। असंगठित विरोध कब तक ठहरता। सन्त महात्मा अपनी ढपली अलग ही बजा रहे थे। उन्हें भक्ति और कीर्तनों की पड़ी थी। चेले मूँड़ने और मतमतान्तर चलाने की भी घात ऐसे में ही लग सकती थी। हारी हुई व्यथित हृदय जनता ने ‘हारे को हरिनाम’ सँभाला। धार्मिक नेता ऐसी ही सान्त्वना सहानुभूति से लोगों के मन बहला रहे थे।

ऐसे विषम काल में गुरु गोविन्द सिंह का अवतरण हुआ। सिख धर्म भक्ति-भावना प्रधान धर्म है, पर उसे गुरुजी ने एक नई दिशा दी। अन्याय का प्रतिरोध भी उन्होंने भगवत् भक्ति का आधार बताया और आततायी के विरुद्ध हिंसा अपनाने में भी उन्होंने अहिंसा सिद्ध की। अपने अनुयायियों को-शिष्यों को उन्होंने मात्र नाम जप ही नहीं सिखाया वरन् एक हाथ में माला एक हाथ में भाला देकर उन्हें कर्म क्षेत्र में उतारा और अध्यात्म को प्रखर-शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया। ‘एक हाथ में माला-एक हाथ में भाला देकर उन्होंने बड़ी संख्या में धर्म-प्रेमियों को धर्म-युद्ध के मोर्चे पर ला खड़ा किया। युद्ध कला से अपरिचित इस सेना को देख कर जब लोग सन्देह करते तब वे सैन्य कला की नहीं प्रचण्ड भावना की महत्ता का बल समझाते और गर्व के साथ कहते -

“चिड़ियों से मैं बाज लड़ाऊँ।

तभी गोविन्दसिंह नाम कहाऊँ॥”

खालसा सेना में युद्ध मोर्चे पर लड़ने वाले तथा सेवा पंथी दो प्रकार के लोग थे। कोमल हृदय वालों को उन्होंने सेवा कार्य सौंपे और साहसी लोगों के हाथ में तलवार थमाई। आपका धर्मयुद्ध किसी धर्म सम्प्रदाय के विरुद्ध नहीं वरन् अत्याचार, बलात्कार के विरुद्ध था। यही कारण था कि कितने ही विचारशील मुसलमान भी उनके साथ युद्धों में सम्मिलित रहते थे।

आनन्दपुर, मुक्तसर, चमकौर, सिरसा तट आदि की महत्वपूर्ण लड़ाइयाँ उनने लड़ी। चालीस हजार बादशाही सेना से डेढ़ दो हजार शिष्यों से ही उन्होंने बहादुरी की लड़ाई लड़ी। उनके दो नवयुवक पुत्र जुझार सिंह और अमरसिंह उसी लड़ाई में काम आये। उनके दो छोटे बच्चे जोरावर सिंह और फतेसिंह आततायियों ने दीवार में चिनवाकर नृशंसतापूर्वक मरवा डाले।

इस निरन्तर संघर्ष के बीच भी उन्होंने अपने उपासना क्रम और धर्म साहित्य के सृजन का काम जारी रखा। उनकी रचनाओं का संग्रह ‘विद्या सागर’ नाम से विख्यात है। इन्हीं दिनों उन्होंने कितने ही धर्म स्थानों की भी स्थापना की।

औरंगजेब जब दक्षिण में फँसा हुआ मौत की घड़ियाँ गिन रहा था तो उसके जी में उन महापुरुष से मिलने और पश्चाताप प्रकट करने की इच्छा उपजी। उसने गुरुजी को पत्र लिखा और मिलने की प्रार्थना की। वे तुरन्त मिलने के लिए चल दिये। किन्तु रास्ते में ही उन्हें औरंगजेब के मरने और उसके बेटों में सिंहासन के लिए युद्ध ठन जाने का समाचार मिला। इस युद्ध में उन्होंने बहादुरशाह का समर्थन किया और उसे विजयी बनाया।

उनके एक मुसलमान शिष्य ने एक दिन सोते हुए पर छुरे से हमला किया। घाव गहरे थे सो कुछ समय पश्चात् उसी के कारण उनका स्वर्गवास हो गया।

मात्र 42 वर्ष की आयु उन्हें मिली। पर इतने थोड़े समय में ही उन्होंने वह पुरुषार्थ कर दिखाया जिसे महामानवों के इतिहास में सदा स्मरण किया जाता रहेगा।


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