विश्व में एक मूल्यवान वस्तु केवल आत्मा है।
की सम्भावना मूर्तिमान होती है। इन दोनों साधनाओं में विरोधाभास नहीं माना जाना चाहिए और प्रकारान्तर में यही समझना चाहिए कि साधना-क्रम में दोनों का समन्वय होने से भौतिक और आत्मिक दोनों ही सफलताओं का पथ प्रशस्त होता है। यह समन्वयात्मक साधना भक्ति और मुक्ति दोनों प्रयोजनों को पूरा करती है। इसीलिए साधना विज्ञान के तत्ववेत्ता एकाँगी सांत्वना की अपूर्णता को ध्यान में रखते हुए प्रदर्शन करते रहे हैं। वही यहाँ भी किया जा रहा है।
या देवता भोग करीसा मोक्षायन कल्पते।
मोक्षदा नहि भोगाय त्रिपुरा तु द्वय प्रदा॥
-त्रिपुरा तन्त्र
जो देवता भोग देते हैं वे मोक्ष नहीं देते जो मोक्ष देते हैं वे भोग नहीं देते। पर कुण्डलिनी दोनों प्रदान करती है।