धर्म आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी

March 1971

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पदार्थ विज्ञान की दृष्टि में आत्मा का या किसी समष्टि सत्ता (ईश्वर) का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं। जो कुछ है शरीर है,चेतना शरीर की ही संपत्ति है। जल, वायु, ऊष्मा मिट्टी इन चारों के रासायनिक संयोग से शरीर में एक चेतना उत्पन्न हो जाती है, वह कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसका कोई स्वतन्त्र अस्तित्व हो ? आत्मा की सर्वव्यापकता और सनातन होने की बात भी पदार्थ विज्ञान नहीं मानता। इसी पदार्थवादी मान्यता पर आज अधिकाँश संसार चल रहा है, इसे ही प्रकृतिवाद, जड़वाद, पदार्थवाद या भौतिकवाद कहते हैं।

विज्ञान और यान्त्रिक विज्ञान (साइन्स एण्ड टेक्नोलॉजी) का जितना अधिक विकास होता जा रहा है, प्रक्षेपणास्त्र, अंतरिक्षयान, टेलस्टार, लेजर यन्त्र आदि का जितना अधिक विकास होता जाता है लोग आत्मा और परमात्मा को उतना ही भुलाते जा रहे है। अब अमैथुनी सृष्टि का समय आ पहुँचा। पुरुष की आवश्यकता नहीं रही। कृत्रिम निषेचन क्रिया द्वारा स्त्रियों को गर्भ धारण कराया जाने लगा। संगणक (कंप्यूटर) एक ऐसा यान्त्रिक मस्तिष्क है जिसने आदमियों की आवश्यकतायें पूरी करनी प्रारम्भ कर दीं। यन्त्र किसी दुकान में डाक्टर का, विक्रेता का, .................................. कर सकता है। नई शब्दावली, व्याकरण पढ़कर एक ही साथ एक ही भाषा का विश्व की 15 भाषाओं का अनुवाद कर सकता है। ऐसे आश्चर्यजनक निर्माण करके तो मनुष्य को ईश्वर की आत्मा की और धर्म की आवश्यकता रही ही नहीं ?

लोगों ने प्रश्न किया यदि शारीरिक तत्वों की रासायनिक क्रिया ही मानवीय चेतना के रूप में परिलक्षित होती तो फिर ज्ञान और विचार क्या है ? भौतिकतावादी इस प्रश्न का उत्तर इन शब्दों में देते है-” जिस प्रकार जिगर उत्पन्न करता है और उससे भूख उत्पन्न होती है उसी पदार्थों की प्रतिक्रिया उनके कार्य ही विचार है और जो कुछ देखती हैं (परसेप्सन) वही विचार और ज्ञान के साधन हैं। रासायनिक परिवर्तनों से काम, क्रोध, आकर्षण, प्रेम, स्नेह आदि गुण आविर्भूत होते हैं उनका सम्बन्ध किसी शाश्वत सिद्धान्त से नहीं है। यह एकमात्र भ्रम है। और इसी प्रकार लोक मर्यादायें या नैतिकता भी लोगों की सम्मतियाँ मात्र है इनकी कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती।

यदि विज्ञान की इन मान्यताओं को विज्ञान के द्वारा ही तौलें और कसौटी पर कसें तो उनका थोथापन आप प्रकट हो जाता है। यदि यह संसार रासायनिक संयोग मात्र है तो वैज्ञानिक हवा, पानी , मिट्टी और विभिन्न खनिज व धातुएं मिलाकर भी “ प्रोटोप्लाज्मा” क्यों नहीं तैयार कर सके ? प्रोटोप्लाज्म ही वह इकाई है जिससे जीवित प्राणियों की रचना होती है। इसका रासायनिक विश्लेषण कर लिया गया किन्तु नये सिरे से प्रोटोप्लाज्म तैयार नहीं किया जा सका।

हमारे साथ जो एक विचार प्रणाली काम करती है, ज्ञान, अनुभूति, आकाँक्षायें काम करती है, प्रेम, आकर्षण स्नेह, उमंग के भाव होते हैं, वह एक कंप्यूटर में नहीं होते। उसमें जितनी जानकारियाँ भरदी जाती है उस समिति क्षेत्र से अधिक काम करने की क्षमता उसमें उत्पन्न नहीं हो सकी। जर्मन का एक वैज्ञानिक एक कंप्यूटर पर काम रहा था। वह उसके हाथों के नीचे झुका हुआ कोई यन्त्र ठीक करने में लगा हुआ था तभी कोई यन्त्र खराब हो गया और लोहे का हाथ उस वैज्ञानिक के सिर में लगा। सिर फट गया। मुश्किल से जान बची। प्रश्न यह है कि मनुष्य जैसा विवेक और आत्म चिन्तन का विकास मनुष्य कृत किसी भी मशीन में नहीं है तो मनुष्य को भी एक रासायनिक संयोग कैसे कहा जा सकता है।

कुम्हार मिट्टी लाता है, उसमें रंग, पानी मिलाकर तरह-तरह के बर्तन और खिलौने बनाता है यह खिलौने कैसे है इससे पहले यह भी पूछते हैं यह खिलौने किसने बनाये है। संसार की रचना के पीछे भी कुम्हार की भाँति ही कोई साक्षी तत्व होना ही चाहिए। यदि वह प्रकृति ही है तो उसमें विचार और ज्ञान की क्षमता यदि है तो उसका स्वतन्त्र अस्तित्व उसी प्रकार होना चाहिए जैसे आँख शरीर का एक अंग होकर भी अलग वस्तु भी है।

मनुष्य आज तक संसार के करोड़ों जीवों की तरह का एक भी नया जीव तैयार नहीं कर सका। यहीं से एक सर्वशक्तिमान सत्ता पर विश्वास करना आवश्यक हो गया। धर्म यही तो है कि हम अपने आपको उन शक्तियों को पहचानने योग्य बनायें।

देखना (परसेप्शन) भी रासायनिक गुण नहीं वरन् वाह्य परिस्थितियों पर अवलम्बित ज्ञान है हमें पता है कि यदि आँखों के प्रकाश न टकराये तो वस्तुयें नहीं देखी जा सकती। यदि प्रकाश किसी वस्तु से टकराकर हमारी आँखों तक पहुँचता है पर हमारी आंखें खराब है इस स्थिति में भी उस वस्तु को देखने से हम वंचित हो जाते हैं। ज्ञान का एक आधार प्रकाश रूप में वाह्य जगत में भी व्याप्त है और अपने भीतर भी दोनों के संयोग से ही ज्ञान की अनुभूति होती है। हम जब नहीं देखते तब भी दूसरे देखते रहते हैं और जब हम देखते हैं तब भी हमारा विचार उस दृश्य वस्तु से परे बहुत दूर का चिंतन किया करता है यह वह तर्क है जिनके द्वारा हमें यह मानने के लिये विवश होना पड़ता है चेतना से अधिक समर्थ और शक्तिशाली है।

वैज्ञानिक दृष्टि से भी अनुमान या विश्वास के बिना हम अधूरे हैं। हम कहाँ देखते हैं कि पृथ्वी चल रही है और सूर्य का चक्कर लगा रही है। हमारी आंखें इतनी छोटी है कि विराट् ब्रह्माण्ड (गैलक्सी) में होने वाली हलचलों को बड़े-बड़े उपकरण लगाकर भी पूरी तरह नहीं देख सकते हैं। वहाँ जा कुछ, जहाँ-जहाँ से परिक्रमा पथ बनाते हुए यह ग्रह नक्षत्र चलते हैं उसका ज्ञान हमने अनुमान और विश्वास के आधार पर ही तो प्राप्त किया है यह अनुमान इतने सत्य उतर रहे है कि एक सेकेण्ड और एक अंश (डिग्री) समय और कोण का अन्तर किये बिना अन्तरिक्षयान इन ग्रह नक्षत्रों में उतारे जा रहे है। जहाँ हमारी आँखों का प्रकाश नहीं पहुँचता या जिन स्थानों का प्रकाश हमारी आँखों तक नहीं पहुँचता वहाँ की अधिकाँश जानकारी का जायजा हम विश्वास और अनुमान के आधार पर ही ले रहे है विश्वास एक प्रकार की गणित है और विज्ञान की तरह भावनाओं के क्षेत्र में भी वह सत्य की निरन्तर पुष्टि करता है।

केवल मात्र विज्ञान के दुष्परिणाम वैसे ही निकले जैसे बीमार को दवा न दें उलटे उसके कमरे में दही, चाट-पकौड़ी आदि वस्तुयें रखदें। रोगी उन्हें देखकर ललचाता है। स्वतन्त्र होने से खा भी लेता है। उसे क्षणिक स्वाद भी मिलता है इसलिये दवा की कड़ुवाहट के बदले वह उस अपथ्य को पसन्द भी करता है पर अन्ततः वह उससे अपनी मृत्यु को ही तो निमन्त्रण देता है। विज्ञान की वर्तमान मान्यताओं ने मनुष्य को स्वच्छन्दता देकर युद्ध, रोग, खाद्य संकट महामारी और अपराध आदि वह परिस्थितियाँ पैदा करादी हैं जो आज मनुष्य के लिये वैसी ही हानिकारक सिद्ध हो रही हैं।

कहते हैं शरीर में हल्दी लगा कर पानी में प्रवेश करें तो मगर आदि हिंसक जन्तु उसकी गन्ध से दूर भाग जाते हैं और स्नान करने वाला निर्द्वंद्व स्नान कर आता है। धर्म ऐसा ही ज्ञान है, विवेक है, श्रद्धा है, विश्वास है जो मनुष्य को पदार्थ वादी सभ्यता के दोषों से बचाये रखता है इसलिये उसे आवश्यक ही नहीं जीवन में अनिवार्य स्थान देना ही पड़ेगा। धार्मिक विश्वासों के बिना हम जीवन में स्थायी सुख-शान्ति अर्जित नहीं कर सकते।


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