शब्द ब्रह्म की साधना और उसका प्रशिक्षण

March 1971

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मानवीय चेतना के विकास क्रम पर दृष्टि डालने से प्रतीत होता है कि उसके परिष्कार से स्वर ताल मेल गायन और वाद्य के रूप में परिष्कृत होता चला आया और ............... एक स्वतन्त्र शस्त्र एवं विज्ञान ही बन गया। इन दोनों को मिलाकर शब्द ब्रह्म की नाद साधना कहें और अन्तरंग ......... उल्लसित एवं परिष्कृत करने की एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक प्रक्रिया समझे तो यह सब प्रकार उचित ही होगा। जन मानस को उल्लसित करने की दृष्टि से संगीत की उपयोगिता असंदिग्ध है। काण्ठ का माधुर्य और गायक का भाव प्राकट्य वाद्य यन्त्रों की सहायता से एक ऐसी .......... उत्पन्न करता है जो सुनने वालों के कान को बेधती हुई-मस्तिष्क को छेदती हुई अन्तःकरण के मर्मस्थल को जा टकराती है। गायन का जो भी प्रयोजन है वह जन मानस को अपनी ओर बरबस खींचता है। पिछले दिन स्वर साधना का प्रधान लक्ष्य जन मानस में कामुकता, इन्द्रिय लिप्सा और कुत्सा को भड़काना रहा है। राज परिवारों के चाटुकार गवैये बजैये धन की लालसा और दुर्बुद्धियों द्वारा मिलने वाली प्रशंसा के लिए लालायित होकर कठपुतली की तरह नाचते रहे है। कवियों ने अपने अन्न दाताओं की अनुकम्पा प्राप्त करने के लिए वैसी ही कविता रची जैसी कि बुद्धि विकृति भरी सत्ता ने चाही। इन दिनों गायन और वाद्य का प्रयोजन नारी की पवित्रता को पददलित करके उसे वेश्या उपयोगिता रूप में नियोजित करना और उसके प्रति वासना भरी लिप्सा दृष्टि से सोचने के लिए जन मानस तैयार करना भर शेष रह गया है। हम कहीं भी जायें लैला मजनू के अफसाने ही सुनने को मिलेंगे। कविता, गायन, वाद्य की त्रिविध धाराएं एक ही प्रयोजन के लिये कटिबद्ध हो रही है। इसे एक मानवीय दुर्भाग्य की विभीषिका ही कहना चाहिए जिससे शब्द ब्रह्म को लोक मंगलकारी परमपुनीत गन्ध को नावदान की गन्दी नाली बनाकर रख दिया।

कला की सार्थकता और व्यक्ति की दुर्बलता सर्वमान्य है। शब्द ब्रह्म का उपयोग यदि पतन और सर्वनाश के लिए किया जाता है तो वैसा तो वैसा ही परिणाम होकर ही रहेगा। हो भी रहा है। धन, बुद्धि, बल की शक्तियों से भी बढ़कर ‘शब्द’ की अद्भुत शक्ति होती है। उसे कुत्सा भड़काने में नियोजित किया जाये तो सार्वजनिक उत्कृष्टता और आदर्शवादिता को कौन कैसे बचा सकेगा ? स्वर और ताल का उपयोग अतीत में लोक मानस के परिष्कार में किया जाता रहा। तब शब्द का उपयोग प्रबोध के लिए सद्ज्ञान के लिये होता था। कण्ठ से निकलने वाले गीत गायक और श्रोता की सुप्त सत्प्रवृत्तियों को जगाते थे। स्वर और ताल की सरस्वती का अति पवित्र और अति समर्थ प्रतीक विग्रह माना जाता था सो उन देव तत्वों का उपयोग कुत्सा कामुकता भड़काने वाले प्रयोजनों के लिए करने की कोई हिम्मत ही नहीं करता था। इन दिनों हम ऐसे ही युग में रह रहे है जिसने गायकों, वादकों, अभिनेताओं, कवियों, साहित्यकारों, चित्रकारों, चित्रकारों का एक बड़ा कलाकार वर्ग कुरुचि पूर्ण लिप्सा भड़काने में ही कला की सार्थकता अनुभव करता है। जिन्होंने अपने कण्ठ को लोक मानस की प्रसुप्त महानता जगाने के लिए समर्पित, संकल्पित और प्रतिबन्धित किया हो ऐसे शब्द योगी अब बड़ी कठिनाई से जहाँ तहाँ ही मिलेंगे। दुरुपयोग में अमृत भी विष बनता है सो अन्तरंग से भाव गरिमा प्रदीप्त कर सकने की सामर्थ्य से भरा पूरा ‘शब्द’ अब अधःपतन का माध्यम बन कर रह रहा है।

आज शब्द ब्रह्म की साधना की महत्ता धूलि में मिल गई है और संगीत वह मात्र गवैये बजैये नचकैयों का धंधा मात्र बन कर रह गया है। प्राचीनकाल में ऐसी स्थिति से चिढ़कर एक बार औरंगजेब ने अपने राज्य का समस्त वाद्य यन्त्रों को इकट्ठे करके जनाजा निकाला था और उन्हें जलवा दिया था तथा गवैये बजैये अपने राज्य से बाहर निकाल दिये थे खोज ऐसा भी कर सकती है। अनाचार खीज उत्पन्न करेगा ही। भगवान राम अपने राज्य में इन कला कोढ़ियों की अभिवृद्धि की आशंका से चिन्तित थे। बाल्मीकि रामायण के अनुसार भरत जी जब चित्रकूट पर भगवान राम से मिलने गये तब उन्होंने भरत से राज्य के कुशल समाचार जानने के लिए अन्य प्रश्न पूछते हुए यह भी पूछा कि कहीं आपने राज्य में गवैये, नचकैये तो बढ़ नहीं गये हैं ? निस्सन्देह जहाँ इन कला कोढ़ियों की संख्या बढ़ेगी वहाँ छूत के रोग की तरह भ्रष्टता का दावानल भड़केगा और वहाँ सब कुछ स्वाहा होकर रहेगा।

आज का अनाचार कल मानवीय विवेक को औरंगजेब की पुनरावृत्ति करने की बात फिर सोच सकता है। इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति से तभी बचा जा सकता है जब शब्द ब्रह्म की साधना लोक मंगल और जन मानस के परिष्कार का लक्ष्य सामने रख कर किये जाने का क्रम चल पड़े।

समय आ गया कि कला का उपयोग लोक मंगल के लिए करने के लिए कुछ साहसपूर्ण कदम उठाये जायें। सो इस प्रकार का प्रशिक्षण और प्रसार करने के लिए साहस और उत्साह के साथ कदम बढ़ाये जा रहे हैं और उसमें योगदान देने के लिए प्रत्येक स्वर साधक को सादर आमन्त्रित किया जा रहा है। अगले वर्ष संगीत के माध्यम से लोक शिक्षण के लिए अलख जगाने वाली मंडलियाँ बनाई जा रही है उनके स्थिर अंग बनकर काम करने वाले कितने ही गायकों वादकों की जरूरत पड़ेगी और उनके निर्वाह का प्रबंध किया जायेगा। इसके अतिरिक्त अपने स्थिर विद्यालय में भी कला को एक अनिवार्य अंग बना दिया गया है। अगले वर्ष के छात्रों को स्वावलम्बन की शिक्षा प्राप्त करने के अतिरिक्त यह विशेष लाभ भी मिलने लगेगा।

युग-निर्माण विद्यालय मथुरा के अंतर्गत कला भारती कक्ष क्षरा इस दिशा में विशेष प्रयत्न किया जा रहा है। जिनके कण्ठ स्वर तीखे और मधुर हैं, जिन्हें गायन वाद्य से रुचि है तथा थोड़ा अभ्यास भी करते रहे हैं उन्हें इसी जून से आरम्भ होने वाली कक्षाओं में सम्मिलित होने के लिये विशेष रूप से आह्वान किया जा रहा है। यों विद्यालय में पूर्ववत् 1. बिजली सम्बन्धी शिक्षण जिसमें रेडियो, ट्रान्जेस्टरों का सुधार निर्माण, फिटिंग, विद्युत यन्त्रों का सुधार 2. प्रेस व्यवसाय तथा उसके क्रिया कलाप का ज्ञान 3. संगीत, अभिनय, प्रकाश चित्र आदि प्रचार माध्यमों का शिक्षण 4. छोटे गृह उद्योग। यह चार वर्ग रहेंगे ही छात्र जीवन निर्माण की शिक्षा, सामाजिक पुनरुत्थान, आजीविका उपार्जन का स्वावलम्बन प्राप्त कर सकें उन्हें अपना भविष्य उज्ज्वल बनाने का सुअवसर भली प्रकार प्राप्त करने का अवसर मिलेगा ही पर अबकी बार संगीत ज्ञान, शब्द योग की साधना का विशेष शिक्षण प्राप्त करते रहने का एक विशेष लाभ और मिलने लगेगा।

जिनके पास समय कम है, स्वर कण्ठ तीखे हैं तथा गायन वाद्य का थोड़ा बहुत ज्ञान पहले से ही है उन्हें स्वल्प कालीन शिक्षण की एक अतिरिक्त व्यवस्था की गई है यह प्रशिक्षण मात्र एक महीने का 1 अगस्त से 31 तक चलेगा। इस थोड़े समय में भी कला रुचि रखने वाले व्यक्ति समुचित लाभ ले सकेंगे।

एक वर्षीय प्रशिक्षण के लिए छात्रों तथा एक महीने के लिए कला शिक्षार्थियों को अभी से आमन्त्रित किया जा रहा है। विद्यालय की सभी पुरानी नियमावली रद्द कर दी गई हैं और नई बनाई गई हैं सो जिन्हें शिक्षण प्राप्त करना है नियमावली मंगालें और अभी से अपना प्रवेश तथा स्थान सुरक्षित करालें।

एक मन्दिर में, एक सीखतर गायक गा-बजा रहा था। उसके ताल स्वर चूक जाते थे। वहाँ ही एक साधु बैठे थे, उन्होंने गायक को उसकी गलती बताई। गायक ने कहा- तुम्हें ताल स्वर से क्या मतलब ? मैं तो अपने भगवान को रिझा रहा हूँ। साधु ने हँस कर कहा- ‘मूर्ख ! तू मुझे तो रिझा ही नहीं सका, भगवान् को क्या रिझाएगा ? वह क्या मुझसे भी गया बीता है ?’


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