आह्वान (kavita)

March 1971

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वह चला-उसे रहा पुकार महाकाल। देखना बुझे न कहीं क्राँति की मशाल॥

अग्रदूत ओ प्रकाश के बढ़े चलो। अन्धकार है घिरा प्रदीप बन जलो॥

झुक सके नहीं कभी, सगर्व उठा भाल। देखना बुझे न कहीं क्राँति की मशाल॥

है अधर्म से वसुन्धरा कराहती। जोड़ कर, मनुष्यता पनाह माँगती॥

दिग्दिगंत में घिरा हुआ तिमिर कराल। देखना बुझे न कहीं क्राँति की मशाल॥

लो शपथ अभी कुरीतियाँ मिटायेंगे। लो शपथ अभी कि नया युग बसायेंगे॥

जी सके-मनुज सहास विश्व को निहाल। देखना बुझे न कहीं क्राँति की मशाल॥

युग नया पुकारता “मुझे विकास दो”। सूखते अधर उन्हें नमी व हास दो॥

मोड़ दो अनीति की सशक्त वक्र चाल। देखना बुझे न कहीं क्राँति की मशाल॥

वह तुम्हें बुला रहा, कि “आओ सामने”। “मूल्य प्राण का चुका, मशाल थामने”॥

कार्य है अपूर्ण अभी, लो उसे सम्हाल। देखना बुझे न कहीं क्राँति की मशाल॥

जा रहा प्रवास पर सदैव के लिये। वेदना व्यथा समस्त विश्व की पिये॥

भेंट करो साथी ! विश्वासों की माल। देखना बुझे न कहीं क्राँति की मशाल॥

*समाप्त*


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