प्रायश्चित प्रक्रिया से भागिये मत

March 1971

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रसौली (एक प्रकार उभरी हुई गाँठ की बीमारी) की मरीज एक स्त्री एक बार श्रीमती जे.सी.ट्रस्ट के पास गई और अपने रोग की चिकित्सा के लिए कोई औषधि देने की प्रार्थना करने लगीं। श्रीमती ट्रस्ट अमेरिका की विश्व विख्यात संत है जिन्होंने धर्म और अध्यात्म को वैज्ञानिक रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न ही नहीं किया अपनी आध्यात्मिक उपलब्धियों से सैकड़ों पीड़ित और पतित लोगों का भला भी किया है। उनके प्रवचन और आध्यात्मिक गवेषणाएं सुनने के बड़े बड़े वैज्ञानिक तक पहुँचते थे।

ट्रस्ट ने उस महिला को बहुत ध्यान से देखा और कहने लगीं- आप नहीं समझ सकती पर जिन्हें प्रकाश की गति और अवस्था का ज्ञान होता है वे यदि कोई न भी बताये तो भी, किसी के भी अन्तरंग की बात जान लेते हैं। आप शरीर में मुझे कुछ काले रंग के अणु दिखाई देते हैं जो इस बात के प्रतीक हैं कि आपके जीवन में कही कोई त्रुटि, विकृति या ऐसी अनैतिक प्रवृत्तियां हैं जो आप दूसरों से छिपाती रहती है। आप प्रायश्चित का साहस कर सकें तो हम विश्वास दिलाते हैं आपका यह छोटे से छोटा रोग तो क्या भविष्य में अवश्यम्भावी कठिन रोगों का निवारण भी उससे हो सकता है।

स्त्री बोली- माता जी ! मैं आपके पास चिकित्सा के लिए आई हूँ उपदेश तो बहुतेरे पादरियों सन्त और धार्मिक व्यक्तियों से सुन चुकी ! औषधि दे सकती हैं तो दीजिये, अन्यथा हम यहाँ से जायें।

उस महिला की तरह सैकड़ों लोगों के जीवन विकार ग्रस्त होते हैं मन में दूषित- क्रोध, लोभ, मद मत्सर आदि विकार उठते रहते हैं, उनसे प्रेरित जीवन से जा पाप संभव है उन्हें लोग एक सामान्य ढर्रे की तरह अपना रहते हैं। काम वासना से पीड़ित व्यक्ति किसी भी नारी को देख कर उत्तेजित हो उठता है, क्रोधी व्यक्ति ही किसी को दुश्मन की तरह देखता और वैसा ही कटु व्यवहार करता, लोभी व्यक्ति ही चोरी से लेकर रिश्वत छल कपट और मिलावट तक करते हैं भले ही उससे समाज का कितना ही अहित क्यों न हो ? जब उससे यह कहा जाता है कि पाप और विकारों का कर्म भोग भोगना पड़ेगा। यह पाप ही आधि-व्याधि, रोग शोक और बीमारियों के रूप में फूटते हैं इन्हें अभी सुधार लो, अभी प्रायश्चित कर पाप के बोझ से मन को हलका कर लो तब वह इन विचारों को दकियानूसी पिछड़ापन कहता है और तर्क देता है कि विकास के लिये संघर्ष अनौचित्य प्राकृतिक सत्य है प्रकृति यही सब कर रही है मनुष्य क्यों न करें ? वह कर्मफल के सिद्धांत को मानने को तैयार नहीं होता। विकारों को वह विकास न मानकर शारीरिक आवश्यकताएं मानता है और उनकी किसी भी उपाय से पूर्ति-धर्म। इन मान्यताओं के कारण ही आज न केवल सामाजिक व्यवस्थायें विचलित हुई वरन् लोगों के जीवन रोग शोक से भरते चले जा रहे हैं। पाप और मनोविकार सचमुच रोग और भविष्य के लिए अन्धकार उत्पन्न करते हैं यह बात अब केवल तर्क संगत रही वरन् विज्ञान सम्मत भी हो गई है।

एक बार इंग्लैंड के डाक्टरों ने एक प्रयोग किया। एक बन्दी के एड्रीनल में “मेडुलरी भाग” में हलकी सी विद्युत करेंट प्रवाहित करके देखा कि उससे “एड्रिलीन” हारमोन के स्राव की मात्रा बहुत बढ़ गई उस समय बन्दर की मुख मुद्रा में भयानक क्रोध के लक्षण उभर आये। फिर उन्होंने कुछ तीव्र रसायनों द्वारा उस भाग को “शून्य” कर दिया और तब फिर विद्युत करेंट प्रवाहित किया तब “एड्रिलीन” बहुत थोड़ा निकला। बन्दर उस समय कुछ ज्यादा क्रोधित भी नहीं हुआ। इसके साथ एक ऐसे व्यक्ति का परीक्षण किया गया जिसने किसी महिला के पर्स की चोरी करली थी। उस समय वह अत्यन्त भयभीत था कि कहीं पुलिस पकड़ न ले और उसे पीटा न जाये। डाक्टरों उसकी जाँच की तो पाया कि उसका सारा केन्द्रीय नाड़ी स्थान उत्तेजित है और उससे शरीर के पूरे यन्त्र (मेटाबोलिज्म) पर असर पड़ रहा है ऐसे समय तीव्र-असर वाली बीमारियाँ होने की सम्भावना डाक्टरों ने भी स्वीकार की। चिन्ता व शोक की स्थिति में “थैलमस” कोलिकल स्टेमुलेटिंग हारमोन रिलीजिंग फैक्टर” में कमी हो जाने आदि क उदाहरण से भी यही निष्कर्ष निकलता है कि बुरी भावनायें मनुष्य शरीर पर प्रतिकूल प्रभाव निश्चित रूप से डालती हैं। वही रोग के रूप में उत्पन्न होते हैं इसलिये यदि रोग से स्थायी बचाव करना है तो अपने मनोमय संस्थान को शुद्ध रखना ही पड़ेगा। साथ ही साथ अब तक जो मलिनतायें मन में भर गई उन्हें प्रायश्चित द्वारा परिमार्जित करना ही होगा। तब तक मनुष्य इन्हें स्वीकार नहीं करता वह अंतर्दहन से बच नहीं सकता।

“हारमोन्स” क्या है” और उनका मनुष्य शरीर से क्या सम्बन्ध है यह समझने से उक्त तथ्य की गहराई में निवेश किया जा सकता है। मनुष्य शरीर में दो प्रकार की ग्रन्थियाँ (ग्लैण्ड्स) होती हैं। ग्रन्थियाँ एक ऐसे कोशों ........ के समुदाय को कहते हैं जो किसी गाँठ की शक्ल में बदल जाते हैं और जिनसे रासायनिक स्राव निकलता रहता है इस स्राव को ही “हारमोन्स” कहते हैं। एक ग्रन्थियाँ वह होती है जिनका सम्बन्ध नलिकाओं द्वारा शरीर से होता है दूसरी नलिका विहीन (डक्टलेस ग्लैड्स) ......... होती है जिनका सम्बन्ध नलिकाओं से नहीं होता है वे स्राव मस्तिष्क की गति-विधि के अनुसार निकालती और मनुष्य शरीर पर प्रभाव डालती हैं। यही सर्वाधिक महत्व की हैं। अभी वैज्ञानिक इनके बारे में पूर्णतया नहीं जान पाये। जब जानेंगे तब पूर्व जन्मों के संस्कार, पुनर्जन्म आदि के कितने ही आश्चर्यजनक तथ्य सामने आयेंगे ऐसा अनुमान हैं। हम नहीं जानते पर अब विज्ञान यह बताने लगा है कि मनुष्य की अच्छी बुरी भावनाओं के द्वारा ही अच्छे या बुरे हारमोन्स शरीर में स्रवित होकर रासायनिक सन्तुलन या विकृति उत्पन्न करते हैं। नलिका विहीन ग्रन्थियों (डक्टलेस ग्लैड्स) में सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थि “पिचुट्री” होती है। इसका स्थान मस्तिष्क के प्रति-पृष्ठीय भाग (वेन्ट्रल साइड) में “आप्टिक कैजमा” अर्थात् दोनों आँखों को मिलाने वाले स्थान पर ललाट के पीछे होता है। इसका मन से सीधा सम्बन्ध होता है इसलिये मन में उठने वाली हर तरंग उनको प्रभावित करती है और यदि वह तरंगें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर, कादर्य, चोरी, तृष्णा जैसी हुई तो उनका विकारों के अनुरूप तीव्र प्रभाव इन ग्रन्थियों पर पड़ता है और तब स्राव की मात्रा बहुत अधिक निकल जाती है और शरीर पर विषाक्त प्रभाव पड़ता है साथ ही भविष्य के लिये रासायनिक सन्तुलन बिगड़ जाता है। इससे अच्छा स्वस्थ और खाता-पिता दीखते हुये भी व्यक्ति भीतर ही भीतर घुटन, असन्तोष अनुभव करता और कुछ दिन में किसी खास प्रकार के रोग का शिकार हो जाता है। यह मनोविकार अचेतन मन से निसृत होते रहते हैं कई बार न चाहते हुये भी बुरी वासनाएं और मनोविकार उठ खड़े होते हैं वह पूर्व जन्मों के ज्ञात अज्ञात कर्मों के ही स्पन्दन होते हैं हम अपने संशोधन की क्रिया छोड़ देते हैं इसीलिये वह विकार रोग बनकर फूटते रहते है। दवा से रोग दब तो जाते हैं पर उसका पूर्ण उपचार तभी हो पाता है जबकि निरन्तर उठने वाले मन के बुरे विचारों का शमन हो और उसके स्थान पर अच्छे अच्छे विचारों की स्थापना हो। भारतीय पश्चाताप पद्धतियाँ यही करती है और इसीलिये उनका आत्म-विकास से गहन सम्बन्ध माना गया है। पाप का प्रायश्चित किये बिना कोई ईश्वरीय शक्तियाँ प्राप्त नहीं कर सकता वह इसी तथ्य का प्रतीत बोध है।

पिचुट्री ग्रन्थ तीन भागों में विभक्त होती हैं (1) एन्टीरियर पिचुट्री (2) मिड़ पिचुट्री (3) पोस्टीरियर पिचुट्री। एएटीरियर पिचुट्री से एफ.एस.एच (फोलिकिल स्टेमुलेटिंग हारमोन्स) निकलते हैं और गर्भाशय प्रजनन कोशों आदि पर प्रभाव डालते हैं। दूसरा एल.एच. (यमटी लरइजिंग हारमोन) यह कामोत्तेजक हारमोन है और इसकी विकृति उपदेश, प्रमेह आदि रोग पैदा करती है। तीसरे टी.एस.एच (थाइराइड स्टमुलेटिंग हारमोन्स) से थायरक्सीन नामक स्राव निकलता है जो गले आदि को प्रभावित करता है। रक्त, क्षार, लवण, आदि का सन्तुलन यही रखता है। उसकी विकृति से ही घेंघा आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं। (4) प्रोलेक्टीन (5) एड्रीनल स्टेमुलेटिंग हारमोन्स भी यही से निकलते हैं अभी उनके सम्बन्ध में कुछ सन्तोषजनक खोजें हो नहीं पाई। मिड पिचुट्री से एम.एस.एच (मेलन आफर्स) हारमोन निकलता है यह त्वचा और शरीर के रंग रूप को प्रभावित करता है। पोस्टीरियर पिचुट्री के (1) “आक्सीटोसीन” से पेशाब पर नियन्त्रण होता है इसकी त्रुटि से मूत्र रोग हो जाते हैं। (2) वासोप्रेसीन का सम्बन्ध गर्भवती स्त्रियों से होता है। गर्भावस्था में सन्तुलित न रहने वाली महिलाओं का वासीप्रेसीन गड़बड़ होकर बीमारियाँ पैदा करता है।

इसी तरह (1) थाइराइड, (2) एड्रिनता, (3) कार्टिको स्टेराइडस, (4) पैक्रियास, (5) पैराथायराइड, (6) एस्टोजेन, (70) प्रोजेस्ट्रन आदि हारमोन्स का पता चला है और डाक्टरों ने इन पर गम्भीर खोजें की है और उनके द्वारा शारीरिक व्यवस्था के अनेक आश्चर्यजनक तथ्य ढूंढ़ निकाले हैं। अभी प्रत्येक मनोभाव का अलग-अलग विश्लेषण तो नहीं किया जा सका पर इस सत्यता में कोई अविश्वास नहीं रह गया कि मानसिक आवेगों का इनसे गहरा संबंध है और मानसिक विकृति के कारण इनमें विकृति उत्पन्न होती और पैदा करती है। बुरे कर्म और पाप इनकी चरम परिणति होते हैं उनसे हारमोन का अति वृष्टि जैसा स्राव मनुष्य जीवन के लिये इतना घातक हो सकता है कि मस्तिष्क में अपना स्थायी प्रभव बनाकर जन्म-जन्मान्तरों तक दुःख देता रहे।

श्रीमती ट्रस्ट के समझाने से दस महिला पर बड़ा प्रभाव पड़ा। उसने अपने जीवन के सारे दोष स्वीकार किये और बताया कि उसे क्रोध बहुत आता है इसी दुर्भाव के कारण वह अनेकों पाप कर चुकी है। उसने कई बार चोरी भी की है और झूठ-मूठ कहकर लोगों को लड़ाया भी उसने अपने सारे ऐब स्वीकार कर लिये इसके बाद ट्रस्ट के कहने से उसने कुछ दिन उपवास किया, उसने दसकी गाँठ भी अच्छी हो गई और मन की अशान्ति भी दूर हो गई। श्रीमती ट्रस्ट ने इसी तरह एक नवजात शिशु के रोग उसकी माँ से प्रायश्चित कराकर ठीक किये। उन्होंने उसे सैकड़ों व्यक्तियों से निष्कासन तप कराकर उन्हें शरीर और मन से शुद्ध बनाया वह उपरोक्त वैज्ञानिक सत्य का ही प्रतिफल था।

एक बढ़ई का वसूला नदी में गिर गया। बढ़ई ने ईश्वर को पुकारा तो नदी से सोने का एक वसूला निकला। उसने कहा यह मेरा नहीं है। तो चाँदी का निकाला, उसने वह भी न लिया। तब लोहे का वसूला निकाला, उसने वह ले लिया। तभी नदी से आवाज आई-’तेरी ईमानदारी के इनाम में यह दोनों वसूले तुझे दिये ! वह तीनों लेकर चल पड़ा। सामने से एक दूसरा बढ़ई आया, उसने सोने, चाँदी के वसूले देखे और उनके मिलने का हाल सूना तो उसी जगह आकर अपना वसूला नदी में डाल ईश्वर को पुकारने लगा। तभी सोने का वसूला निकला, उसने खुशी से कहा यही मेरा है ! नदी से आवाज आई- ‘तू बेईमान है, यह वसूला तेरा नहीं है। नदी में घुसकर अपना वसूला लेले।’ और इसके साथ ही सोने का वसूला नदी में समा गया। ईश्वर बेईमान की पुकार नहीं सुनता।


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