नीति और अनीति की कमाई का अन्तर

March 1971

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प्राचीन युग की बात है। तब प्रजा अधिकतर धर्मप्राण थी। फिर भी अधार्मिकता तत्व किसी मात्रा में थे ही। अधिकाँश व्यक्ति त्यागी, सेवा परायण एवं ईश्वर भक्त साधुजनों से सदुपदेश तथा सद्ज्ञान प्राप्त किया करते थे।

एक सन्त थे। वे जनता को धार्मिक उपदेश देते थे। किन्तु उन्होंने यह पढ़ा था शास्त्रों में- कि “ज्ञान-दान बिना किसी प्रतिदान की आशा अथवा लाभ के बिना ही किया जाना चाहिए- अन्यथा उसकी महत्ता कम हो जाती है।” सो सन्त अपना निर्वाह टोपियाँ सी कर , बेचकर ही करते थे। नित्य के व्यय के पश्चात् उन्हें नित्य एक पैसे की बचत भी हो जाती थी जिसे वे दान कर दिया करते थे।

उसी नगर के एक प्रतिष्ठित सेठ जी भी सन्त का प्रवचन सुना करते थे तथा उनकी गतिविधियों को निकट से देखा करते थे। उन्होंने देखा कि साधु जी नित्य एक पैसे का दान करते हैं।

उन्हें भी दान करने की प्रेरणा मिली और उन्होंने भी उस दिन से धर्म खाते में एक निश्चित मात्रा में धन निकालना प्रारम्भ कर दिया।

जब राशि पाँच सौ रुपये हो गई तब वह उसे लेकर सन्त के पास पहुँचे। बोले- मैंने धर्म खाते में निकाली हुई ये राशि एकत्रित की है। अब इसका क्या करूं ?”

सन्त ने सहज भाव से कहा-”जिसे तुम दीन-हीन समझते हो उसे दान कर दो।”

सेठ जी गये। उन्होंने देखा एक दुबला-पतला- भूख से पीड़ित अन्धा मनुष्य जा रहा हैं। उन्होंने उसे सौ रुपये देकर कहा-”सूरदास जी ! आप इन रुपयों से भोजन, वस्त्र तथा अन्य आवश्यक वस्तुयें ले लेना।”

अन्धा आशीर्वाद देता हुआ चला गया। किन्तु सेठजी को न जाने क्या सूझा कि वे उसके पीछे-पीछे चले। उन्होंने देखा कि आगे जाकर उस अन्धे ने उन रुपयों को खूब माँस खरीदकर खाया। शराब पी। और जुये के अड्डे पर जाकर जुये के दाव पर रुपये लगा दिये। नशा चढ़ा और वह सब रुपये हार गया। तब जुये के अड्डे वालों ने उसे धक्के देकर बाहर निकाल दिया।

सेठ को बड़ी ग्लानि हुई। एक क्षण के लिये दान धर्म से विश्वास भी हट गया पर फिर वह साधु के पास गये और उन्हें सब कुछ कह सुनाया।

सन्त मन ही मन मुस्काये। और उसे अपना बचाया हुआ पैसा देकर कहा-” आज इसे किसी आवश्यकता वाले को देना और कल अपनी बात का उत्तर ले जाना।”

सेठ जी ने आगे जाकर एक भीख माँग रहे दीन दरिद्र व्यक्ति को वह पैसा दिया और छिपकर उसके पीछे हो लिये। वह व्यक्ति थोड़ी दूर गया। उसने अपनी झोली में से एक मरी हुई चिड़िया निकाल कर फेंक दी। एक पैसे के चने खरीदे और उन्हें खाकर तृप्त हो कह प्रसन्न होता हुआ आगे चला।

सेठ जी ने उससे पूछा कि उसने ऐसा क्यों किया ? तब वह व्यक्ति बोला-”कई दिन से भूखा था मैं कुछ न पाकर यह चिड़िया पकड़ लाया था कि भूनकर खा लूँगा किन्तु अब आपने पैसे दे दिया तो अब प्राणों की हत्या क्यों करूं ? इतना अन्न मिल गया। क्या यह सन्तोष की बात नहीं ?”

सेठ जी ने यह घटना भी सन्त को सुना दी। और दोनों घटनाओं का अन्तर पूछा।

सन्त बोले-”वत्स ! महत्ता केवल देने भर की नहीं होती। हमने जो धन दान में दिया है वह किन साधनों द्वारा प्राप्त किया गया है ? इसकी भावना उस धन के साथ जुड़ जाती है, तुम्हारा अनीतिपूर्वक बिना परिश्रम के कमाया गया धन पाकर प्राप्तकर्ता ने सौ रुपये भी अनीति के कार्यों में लगाये। अतः तुम्हें उस उपयोग कर्ता के अनुरूप पाप ही लगेगा और मेरा पैसा परिश्रम से कमाया हुआ था अतः जिसके पास गया, उसके द्वारा सद्बुद्धि पूर्वक ही व्यय किया गया।” सेठ की समझ में तथ्य आ गया और उस दिन से ही उसने व्यापार पूरी ईमानदारी के साथ करना प्रारम्भ कर दिया।


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