अपनों से अपनी बात

March 1971

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हमारे जाने के दिन अब अति निकट आ गये। अगले अति महत्वपूर्ण कार्य पूरे करने के लिए हमें जाना पड़ रहा है। आत्म विद्या के शक्ति पक्ष की धाराएं इन दिनों एक प्रकार से सूख ही गई है। न तो ऐसे व्यक्तित्व दिखाई पड़ते हैं जो अपने ब्रह्म वर्चस्व से विपन्न परिस्थितियों से टक्कर ले सकें और न ऐसे आधार उपलब्ध हैं जो आत्मिक क्षमता को आशाजनक रीति से अग्रगामी कर सकें। आत्मविद्या के नाम पर कथा-प्रवचनों तक सीमित दर्जे का कथोपकथन ही जहाँ तहाँ देखने सुनने को मिलता है। ओछे व्यक्तित्वों का ऊँचा प्रवचन अभीष्ट प्रयोजन सिद्ध नहीं कर सकता वह केवल मनोरंजन मात्र रह जाता है। आज आत्मिक चर्चा, मात्र कौतूहल की ही पूर्ति करती है। उस क्षेत्र में ब्रह्म वर्चस्व सम्पन्न व्यक्तित्व कहाँ उभर रहें है यदि उभरे होते तो महामानवों को-अपने प्रभाव से लोक मानस बदलने से लेकर-परिस्थितियाँ पलटने तक का कार्य उतना कठिन न रहता जितना आज दिखाई पड़ रहा है।

आत्म विद्या का आरम्भिक पक्ष ज्ञान चर्चा है। उच्च स्तरीय पक्ष शक्ति सम्पादन है। साधना से जो शक्ति उत्पन्न होनी चाहिए आज उसका सर्वथा अभाव ही दीखता है लगता है वे रहस्य लुप्त हो गये। यदि होते तो सामर्थ्य सम्पन्न ऐसे आत्मवेत्ता जरूर मिलते जो मानव समाज के अन्धकार में उलझे हुए भविष्य को उज्ज्वल बनाने में-विषम परिस्थितियों को सरल बनाने में कुछ आशाजनक योगदान दे सकें। राजनैतिक क्षेत्रों में कुछ तो उलटा-पुलटा हो रहा है पर आध्यात्मिक क्षेत्र में शून्यता छाई हुई है। दम्भ और प्रवंचना का ही बोल बाला है। आत्म-बल की सामर्थ्य जो संसार की समस्त सामर्थ्यों से बढ़-चढ़ कर मानी जाती रही है यदि हमारे पास होती तो व्यक्ति और समाज को वर्तमान दुर्दशा से निकालने में उसका प्रयोग अवश्य सम्भव हो सका होता। चमत्कारों के नाम पर आज जहाँ तहाँ कुछ बाजीगरी दीखती है उससे अपने को सिद्ध पुरुष साबित करने और लोगों की मनोकामना पूर्ण करने का पाखण्ड मात्र ही खोजा जा सकता है। बेवकूफों को बदमाश कैसे ठगते और उलझाते हैं इसका ज्वलन्त उदाहरण देखना है तो आज के तथाकथित करामाती और चमत्कारी कह जाने वाले ढोंगियों की करतूतों को नंगा करके आसानी से देखा जा सकता है। वास्तविक सिद्ध पुरुष न करामात, चमत्कार दिखाते हैं और न हर उचित अनुचित मनोकामना को पूरा करने के आश्वासन देते हैं। असली आत्मवेत्ता अपने आदर्श प्रस्तुत करके अनुकरण का प्रकाश उत्पन्न करते हैं और अपनी प्रबल मनस्विता द्वारा जन-जीवन में उत्कृष्टता उत्पन्न करके व्यापक विकृतियों का उन्मूलन करने की देवदूतों वाली परम्परा को प्रखर बनाते हैं। इस स्तर के आत्मवेत्ता यदि संसार में रहे होते तो बुद्ध, दयानन्द, गाँधी जैसी युगान्तरकारी हस्तियाँ अवश्य सामने आती। अध्यात्म क्षेत्र के वर्तमान कलेवर को यदि उखाड़ कर देखा जाये तो वहाँ दम्भ और शून्य के अतिरिक्त और कुछ मिलने वाला नहीं। जो है वह और भी ज्यादा दिग्भ्राँत है। आत्म विद्या की जितनी शून्यता और दुर्दशा आज है वैसी पहले कभी भी नहीं रही।

इस अभाव की पूर्ति करने के लिए- विश्व की सर्वोच्च एवं सर्व समर्थ शक्ति आत्म विद्या सिद्ध करने के लिए हमें कुछ उपलब्धियाँ प्राप्त करनी होंगी यह अन्वेषण प्रयोग और लाभ अनायास ही नहीं मिलने वाला है इसके लिए कठोरतम प्रयत्न करने पड़ेंगे। हम वही करने जा रहे है। इस दृष्टि से हमारी भावी गतिविधियाँ उत्साह वर्धक ही होंगी। जाने के वियोग का दुःख स्वजनों को है-हमें भी है- पर बड़े के लिए छोटे का त्याग करना ही पड़ता है। वृक्ष रूप में परिणत होने के लिए बीज को गलना ही पड़ता है। हमें भी उस क्रम से छुटकारा नहीं मिल सकता था, सो मिला भी नहीं। आत्म विद्या के तत्व ज्ञान और शक्ति विज्ञान को आज के युग और आज के व्यक्ति के लिए किस प्रकार का किस हद तक- व्यावहारिक बनाया जा सकता है और आज की विकृत परिस्थितियाँ बदलने में उसे किस प्रकार प्रयुक्त किया जा सकता है यह सीखना, खोजना, प्रयोग करना और सर्व साधारण के सामने बुद्धि संगत एवं व्यावहारिक रूप से प्रस्तुत कर सकने की स्थिति प्राप्त कर लेना सचमुच एक बहुत बड़ा काम है। इस काम को हम सफलता पूर्वक कर लेते हैं तो उसके ऊपर हमारे भावी जीवन की कष्ट साध्य प्रक्रिया प्रताड़ना और स्वजनों की वियोग वेदना को निछावर किया जा सकता है। हमें यही करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है से हम निर्धारित व्यवस्था को पूरा करने जा भी रहे हैं। 20 जून के अब दिन ही कितने रह गये। विश्वास किया जाना चाहिए कि हम दूसरे बाबा वैरागियों की तरह कर्मण्यता के दिन नहीं काटेंगे-विश्व मानव के प्रति अपनी श्रद्धा को उपेक्षा में नहीं बदलेंगे-स्वर्ग मुक्ति और ऋद्धि सिद्धि के व्यक्तिगत स्वार्थ से हमारा मन राई भर भी नहीं फिसलेगा-जब तक हमारी अन्तिम साँस चलेगी विश्व मान की सेवा से मुंह नहीं मोड़ेंगे। यदि हमें लगता कि हमारी इस भावी उग्र तपश्चर्या का प्रतिफल लोक मंगल के लिए वर्तमान गति विधियों की अपेक्षा हलका पड़ेगा तो शायद अपने मार्ग दर्शक से यह फैसला बदले का अनुरोध भी करते। पर बात वैसी है नहीं। हम निष्क्रिय दीखेंगे पर वस्तुतः आज की अपेक्षा लाख गुने अधिक सक्रिय होंगे। भागीरथ जैसा तप करके गंगावतरण की सामयिक पुनरावृत्ति करना ही हमारा मात्र प्रयोजन है सो आँखों में वियोग के आँसू रहने पर भी हमारा अन्तरंग टूटा नहीं है वरन् आशा और उल्लास ही भरा हुआ है।

हमारा प्रयोजन समझने में किसी को भूल नहीं करनी चाहिए। हम प्रचण्ड आत्म शक्ति की एक ऐसी गंगा को लाने जा रहे हैं जिससे अभिशप्त सगर सुतों की तरह आग में जलते और नरक में बिलखते जन समाज को आशा और उल्लास का लाभ दे सकें। हम लोक मानस को बदलना चाहते हैं। इन दिनों हर व्यक्ति का मन ऐषणाओं से भरपूर है। लोग अपने व्यक्तिगत वैभव और वर्चस्व से-तृष्णा और वासना से-एक कदम आगे की बात नहीं सोचना चाहते, उनका पूरा मनोयोग इसी केन्द्र बिन्दु पर उलझा पड़ा है हमारी चेष्टा है कि लोग जीने भर के लिए सुख सुविधा पाकर सन्तुष्ट रहें। उपार्जन हजार हाथों से करें पर उसका लाभ अपने और अपने बेटे से सीमित न रख कर समस्त समाज को वितरण करें। व्यक्ति की विभूतियों का लाभ उसके शरीर और परिवार तक ही सीमित न रहे वरन् उसका बड़ा अंश देश-धर्म, समाज और संस्कृति को-विश्व मानव को-लोक मंगल को मिले। इसके लिए व्यक्ति के वर्तमान कलुषित अन्तरंग को बदलना अत्यन्त आवश्यक है। व्यक्तिवाद के असुर को समूहवाद के देवत्व में परिणत न किया गया तो सर्वनाश के गर्त में गिरकर मानवीय सभ्यता को आत्महत्या करने के लिए विवश होना पड़ेगा। इस विभीषिका को रोकने के लिए हम अग्रिम मोर्चे पर लड़ने जा रहे है। स्वार्थपरता और संकीर्णता की अन्ध तमिस्रा असुरता में पैर से लेकर नाक तक डूबे हुए जन मानस को उबारने और सुधारने में हम अधिक तत्परता और सफलता के साथ कुछ कहने लायक कार्य कर सकें हमारी भावी तपश्चर्या का प्रधान प्रयोजन यही है। आत्म विद्या की महत्ता को भौतिक विज्ञान की तुलना में अधिक उपयोगी और अधिक समर्थ सिद्ध करने में ही उस उपेक्षित क्षेत्र के प्रति लोक रुचि मुड़ेगी सो उसे प्रामाणिकता की हर कसौटी पर-खरी सिद्ध कर सकने लायक उपलब्धियाँ प्राप्त करने हम जा रहे है। हमारा भावी जीवन इन्हीं क्रिया कलापों में लगेगा। सो परिवार के किसी स्वजन को हमारे इस महा प्रयाण के पीछे आशंका या निराशाजनक बात नहीं सोचनी चाहिए।

जिन परिजनों को हम अब तक आगे बढ़ाते और प्यार करते रहे है उन्हें उस क्रम में रत्ती भर भी न्यूनता अनुभव न होने देंगे। शरीर के प्रत्यक्ष दर्शन न हो सकने और कानों से प्रत्यक्ष हमारी बात न सुन सकने के अतिरिक्त और किसी की कुछ हानि न होने देंगे। हमारे प्यार और अनुदान की गंगा यमुना के प्रवाह में राई भर भी कमी आने वाली नहीं, स्वजन हमें भले ही देख न सकें पर हम उन्हें जरूर देखते रहेंगे। हम अपने पुण्य और तप का एक अंश लोगों की कठिनाइयाँ सरल बनाने में लगाते रहें हैं और उस सहृदयता को हम खोने नहीं जा रहे है वरन् और भी समर्थ बनाते चले जायेंगे। माताजी हरिद्वार रहेंगी वे हमारे प्रतिनिधि के रूप में यह कार्य भली प्रकार करती रहेंगी। अब तक यदि हमारे दरवाजे पर 20 प्रतिशत व्यक्ति निराश और खाली हाथ लौटे हैं तो अब 5 प्रतिशत ही लौटेंगे। दुःखी और कष्ट पीड़ितों के प्रति सहानुभूति और सेवा का जो क्रम चलता आ रहा है उसके प्रति हमारा असाधारण मोह है उससे हमें सन्तोष भी बहुत मिला है सो उसे बन्द या शिथिल करना हमसे बन भी नहीं पड़ेगा इस प्रकार के जिन्हें लाभ मिलते रहे है या मिलने की आशा है उन्हें निराश तनिक भी नहीं होना चाहिये वरन् अपनी आँखों में अधिक चमक इसलिये पैदा कर लेनी चाहिए कि माता-पिता की कमाई और समर्थता बढ़ने पर जिस तरह बच्चों को अनायास ही लाभ मिलता है उस तरह का लाभ अपने परिवार को मिलता ही रहता है। शरीर देखने ओर कान से आवाज सुनने की बात न भी बन पड़े तो भी नई उपलब्धियाँ इतनी अधिक होंगी कि उनकी तुलना में इन दो लाभों का छिन जाना किसी को बहुत अधिक नहीं अखरना चाहिए। यह व्यक्तिगत लाभ अनुदान की बात हुई-समस्त समाज को हमारी इस तप साधना का जो लाभ मिलने वाला है वह निश्चित रूप से ऐतिहासिक होगा और समय की एक भारी आवश्यकता उससे पूरी हो सकनी सम्भव होगी। समय ही बतायेगा कि हमारा भावी जीवन विश्व मंगल की दृष्टि से कितना उपयोगी सिद्ध हुआ और ढलती एवं निरर्थक समझे जाने वाले बुढ़ापे की आयु का भी कितना महत्वपूर्ण सदुपयोग सम्भव हो गया।

विदाई की घड़ियों में हमारा जी बहुत प्यार दुलार से भरा हुआ है, इन दिनों हमारी मनः स्थिति कुछ विचित्र और विलक्षण हो गई है जैसी जीवन भर कभी नहीं रही। कर्त्तव्य को प्रधानता ही हम देते रहे हैं और उसी दृष्टि से सम्बन्धित व्यक्तियों की न्यूनाधिक महत्व देते रहे है। जो लोक-मंगल के लिए अधिक उपयोगी सिद्ध हो सके उन पर हमारा ज्यादा ध्यान केन्द्रित रहा। जो अपनेपन में ही खोये रहे उनको दया का पात्र भर समझा और जो बन पड़ा सहायता करके भुला दिया। यहीं ढर्रा जीवन भर चलता रहा। एक भूल निरन्तर होती रही कि जो विषम परिस्थितियों में जकड़े हुए थे, जिनकी योग्यता स्वल्प थी, वे अपना जीवनयापन और कुटुम्ब का पोषण भी ठीक तरह कर सकने में असमर्थ थे, वे लोक-मंगल के लिए अपनी परिस्थिति, मनोभूमि और समर्थता के अभाव में कुछ कर नहीं सकते थे। अभावों से जर्जर स्थिति उन्हें हर बार हमारी सहायता के लिए ही उन्मुख करती थी। कष्ट की निवृत्ति में जहाँ से भी सहारा मिले वहाँ पहुँचना और समर्थ का द्वार खटखटाना मनुष्य का स्वभाव है, सो वे प्रत्यक्षतः इसी प्रयोजन के लिए आये हैं ऐसा दीखा। पर बहुत बार यह भूल होती रही कि उनके मन में जो असामान्य स्नेह, ममता और आत्मीयता के भाव हमारे प्रति थे उनकी गहराई में न उतर सके। प्रत्यक्षतः सहायता की याचना करने के कारण उन्हें हलका समझ लिया और परोक्षतः उनकी ममता और श्रद्धा की जो कली खिल रही थी उसे देख न सके। अब नजर डालते हैं तो यह भूल शूल की तरह चुभती है। भाव भरे स्नेही की उपेक्षा कानूनी अपराध भले ही न हो पर आत्मिक दृष्टि से वह भी हलका पाप नहीं है। बात तब सूझी जब समय निकल गया। व्यक्ति कितना ही समझदार क्यों न हो भूलें उससे भी होती रहती है यह तथ्य हमारे ऊपर कितना अधिक स्पष्ट होता है। नया जीवन जीना पड़ता तो शायद यह भूल न करते पर अब तो समय निकल गया। हाथ मलना ही शेष है। सो जिन किन्हीं के प्रति हम यह भूल करते रहे है, उनकी विवशता को स्वार्थ-परता समझ कर उपेक्षा करते रहे हो, जिनके भी स्नेह और सौजन्य को नगण्य मानते रहे हों- लोक-मंगल के लिए कुछ न कर सकने या कम करने - के कारण जिन पर झल्लाते रहे हों उन पिण्डदान और तर्पण के श्रेष्ठतम आधार माने जा सकते हैं। हमारी आत्मा जहाँ कही भी स्वजनों को यह धर्मकृत्य करते देखेगी-सन्तोष और आनन्द अनुभव करेगी। इस क्रिया-कलाप में संलग्न भावनाशील परिजनों को हमारा स्नेह, आशीर्वाद, संरक्षण, सहयोग और सान्निध्य अपने चारों ओर बिखरा दिखाई देगा। सुविकसित पुष्पों पर उड़ने वाले भौरों की तरह ऐसे दूरदर्शी दौर सेवाभावी परिजनों के इर्द-गिर्द हम मंडराते ही रहेंगे और उन्हें अपना भाव भरा गुंजन अति उत्साह पूर्वक निरन्तर सुनाते रहेंगे। मिशन के अगले कदम रचनात्मक और संघर्षात्मक कार्यक्रमों से भरे हुए हैं। अवांछनीयता के विरुद्ध एक अति उग्र और अति व्यापक संघर्ष छेड़ना पड़ेगा। विचारों को विचारों से काटने की एक घमासान लड़ाई अगले दिनों होकर रहेगी। अनुचित और अन्याय का उन्मूलन किया जाना है इसके लिये घर-घर और गली-गली में जो भावी महाभारत लड़ा जायेगा उसकी रूपरेखा विस्तारपूर्वक बता चुके है, यह विश्व का अन्तिम युद्ध होगा इसके बाद युद्ध का वर्तमान वीभत्स स्वरूप सदा के लिए समाप्त हो जायेगा। अनुचित के उन्मूलन के साथ-साथ सृजन के लिए अनेक रचनात्मक प्रवृत्तियाँ विकसित की जाती हैं। नींव खोदना ही काफी नहीं - महल की दीवार भी तो चुननी पड़ेगी। ध्वंस के साथ सृजन और आपरेशन के साथ मरहम पट्टी और सिलाई, सफाई का प्रबंध अनिवार्य रूप से जुड़ा रहता है। सो समयानुसार वे कथायें भी जल्दी ही सामने आने वाली हैं। ज्ञान-यज्ञ की आग में पका पकाकर इन दिनों उस सृजन के लिए ईंट चूने के भट्टे लगाये जा रहे हैं। इसमें जैसे ही प्रखरता आई कि दूसरे मोर्चे खड़े हुए। अज्ञान, अभाव और अशक्ति के तीनों मोर्चों पर अपनी सेना कमान संभालेगी। बौद्धिक क्रान्ति अकेली नहीं है। उसके साथ-साथ नैतिक क्रान्ति और सामाजिक क्रान्ति अविच्छिन्न रूप से सम्बन्ध है। राजनैतिक स्वाधीनता के लिये लड़ा गया संग्राम जितनी जन-शक्ति और साधनों से लड़ा गया, अपना मोर्चा बहुत बड़ा कम से कम तिगुना होने के कारण उसके लिए जन शक्ति, श्रम शक्ति, भाव शक्ति और धन शक्ति की आवश्यकता पड़ेगी। ज्ञान यज्ञ के विस्तार से ही यह उपलब्धियाँ हाथ लगेंगी इसलिए इसी आरम्भिक चरण पर इन दिनाँक अधिक जोर दिया जा रहा है। सीमित इतने तक नहीं रह सकते। हाथ पाँवों में जरा सी गर्मी आते ही मंजिल की ओर अधिक तत्परता पूर्वक कदम उठने स्वयं ही शुरू हो जायेंगे और वे तब तक बढ़ते ही रहेंगे जब तक मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का लक्ष्य पूरा नहीं हो जाता। हम इस सारे चक्र व्यूह का संचालन पर्दे के पीछे बैठकर करेंगे। हमारा प्रयाण नव निर्माण के पथ पर चलने वाले किसी दृश्य व्यक्तियों से अधिक समर्थ बनकर-अधिक साहस और अधिक क्षमता के साथ अधिक योगदान अधिक मार्गदर्शन कर सकने में समर्थ होंगे। सोये हुए काम को अधूरा छोड़कर हम कन्धा डालने वाले नहीं है। हमारी सत्ता दृश्य रहे या अदृश्य-लोक में रहे या परलोक में-इससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं। प्रश्न केवल मिशन की प्रगति में योगदान करने का है सो हम किसी भी स्थिति में रहते हुए निरन्तर करते रहेंगे। साथी सहचरों को अकेला छोड़कर चल देना हमारे लिये उचित नहीं होता। सो हम कुछ अनुचित करने भी नहीं जा रहे हैं। मथुरा में संगठन और आन्दोलन का संचालक होगा। हरिद्वार से प्रकाश, स्नेह और अनुदान का वितरण होता रहेगा और हम शीत और गर्मी की तरह अधिक व्यापक बनकर अदृश्य पर दृश्य से अधिक समर्थ बनकर हर स्वजन को स्पर्श और प्रभावित करते रहेंगे। चले जाने के बाद तीन स्थानों में तीन शक्तियाँ तीन गुना काम करेंगी और अपनी त्रिविध क्रिया-पद्धति दिन-दिन अधिक समर्थ और अधिक गतिशील होती चली जायेगी। किसी को भी निराशा की बात नहीं सोचनी चाहिए। निराशा, असफलता और अन्धकार की बात सोचना-हमारे-हमारे मार्ग दर्शक और भगवान के ऊपर अविश्वास करने के बराबर होगा जिनने इस महा अभियान को सफल बनाने में अपनी प्रतिष्ठा को दाव पर लगा दिया है।

इतना सब होते हुए भी विदाई आखिर विदाई ही है। मनुष्य कितना ही विवेकी क्यों न हो आखिर कच्चा दूध पीकर ही पला है और कच्ची मिट्टी से ही बना है। हम न सन्त है, न स्थिति प्रज्ञ, न अवधूत, न परमहंस। मात्र भाव भरे-अन्तःकरण को लाद ले चलने वाले तुच्छ से मानव प्राणी मात्र है। विद्या, तप, सेवा आदि से हमारा मूल्याँकन ही किया जाना चाहिए। कोई हमें सही रूप से जानना चाहें तो हमें भावनाओं का निर्झर कहना पर्याप्त होगा। ............ हमने बखेरा और बटोरा है। स्नेह के सौदागर के रूप में हमें समझा जाये तो ठीक है। भले ही अपनी सहज प्रवृत्ति के अनुसार बिना किसी लोभ या लाभ को बीच में ..... विश्व मानव को प्यार किया हो पर इससे क्या - हजार गुना होकर वह लौट तो अपने ही पास आया। जिन्हें हमने दुलारा उन्होंने भी अपनी ममता अर्पित करने में ... बाँटने की उमंग उठती रही और जब उसका प्रतिदान हजार गुना होकर लौटा तो उत्साह और भी अधिक बढ़ गया। इस तरह जीवन के लगभग सो ही क्षण एक प्रेम योगी के रूप में व्यतीत हो गये। भले ही उसे भावुकता कहा जाये पर वह प्रवृत्ति अब इतनी सघन हो चुकी है कि उसे छोड़ सकना कम से कम इस शरीर में इस जन्म में तो सम्भव है ही नहीं। मजबूरी तो आखिर मजबूरी ही होगी। अपने आप में हमने बहुत सुधार परिवर्तन किये हैं पर इस भावुकता को यदि लोग दुर्बलता मानते हों-बअ .............. परमहंस स्थिति का व्यवधान मानते हो तो भी वह इतनी सरस है कि हमसे छोड़ते न बनेगी। हम बिना ब्रह्म ज्ञानी बने, एक नगण्य मनुष्य के रूप में सन्तोष पूर्वक जी लेंगे पर अन्तरंग की भाव भरी यह प्रवृत्ति छूट न सकेगी।

यह भाव भरी अन्तरंग मनःस्थिति विदाई के क्षणों इस बार फिर मचल पड़ी। यों शिविरों और यज्ञों में इसी वर्ष अपने अधिकाँश स्वजनों को देख चुके हैं और उनसे स्पष्ट परामर्श कर चुके है पर मन न जाने किस मिट्टी का बना है जो भरता ही नहीं विदाई की घड़ी जैसे जैसे समीप आती है वैसे वैसे भीतर ही भीतर कोई फिर कोंचने काटने ............. मचलने लगा है कि एक बार अपने परिवार को फिर आँख भर कर, जी भर कर देख लिया जाये। सो उसका ताना-बाना बुनना शुरू भी हो गया। हम 20 जून को .............. छोड़ देंगे। माताजी भी साथ ही चल पड़ेगी। इससे 17, 18, 19, 20 का एक स्नेह समारोह रखा है। ............... की शाम तक आने के लिए कहा गया है ताकि 17 को सम्मेलन आरम्भ हो सके। इन दिनों कोई बड़ा यज्ञ नहीं रखा है। एक छोटा प्रतीक यज्ञ ही उस भूमि पर पर्याप्त रहेगा। अपने जीवन समुद्र का मंथन करने पर जो रत्न हमने पाये हैं उन्हें दिखाने या देने का प्रयत्न इन्हीं दिनाँक करेंगे। भविष्य में हम स्वजनों के लिये क्या करेंगे और परिजन हमारे लिए क्या करें इसकी भी एक रूपरेखा प्रस्तुत करेंगे। जिस स्नेह सूत्र में अपने परिवार को हम कितने ही जन्मों से बाँधे हुए है जिस माला में अनेक जागृत आत्माओं को पिरोये हुए हैं उसकी शोभा सार्थकता घटने की अपेक्षा बढ़ती ही चली जाये इसका उपाय सोचेंगे। और भी न जाने क्या करेंगे इस समय कहना समय से पहले की बात होगी पर कुछ करेंगे जरूर ऐसा जो अद्भुत हो और असाधारण। सबसे बड़ी उपलब्धि होगी हमारी आत्म तृप्ति। सामान्यतः मरते समय हर वयोवृद्ध को अपने कुटुम्ब परिवार के लोगों को आँख भर देख लेने की इच्छा होती है। लोग तार देकर बुलाते हैं और शिर पर पाँव रखकर दौड़ते आते हैं। प्रत्यक्ष उपयोगिता इसकी भले ही कुछ न हो पर भावनात्मक दृष्टि से यह सभी सम्बन्ध लोगों के लिए बड़े सन्तोष का कारण रहता है कि महा प्रयाण के समय हम सब हिल मिल लिये। जो उस अवसर को खो देते हैं वे पीछे पछताते रहते हैं। यात्री को भी एक अभाव ही अनुभव होता है और अमुक स्वजन का न मिल सकना कष्ट कर लगता है। अपने ऊपर भी वह बात लागू होती है। अपना भी जी कुछ ऐसा ही कर रहा है कि जाते समय अन्तिम बार फिर एक दफा स्वजनों को जी भरकर देख लें और आँखों में वह तस्वीरें खींचलें जो एकाकी मन में सामने प्रस्तुत होकर भाव भरी स्मृतियों को उभारती रहे। सूनेपन में अपने लिये मन बहलाने का यह एक अच्छा आधार रहेगा। और भी कितने ही कारण हैं। देश भर के प्रभावशाली परिजनों का परस्पर परिचय प्राप्त कर लेना अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। इस सम्मेलन और परिचय के दूरगामी परिणाम होंगे। हम कितने अधिक और कितने समर्थ बन चुके इसकी एक हलकी सी झाँकी सम्मेलन में आने वाला हर कोई प्राप्त कर सकेगा। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुये परिजनों को उपरोक्त सम्मेलन में आने के लिये गत अंक में आमन्त्रण छाप चुके है। इस अंक में उसकी पुष्टि और समर्थन करते हुए आग्रह कर रहे है कि जिनकी हमारे प्रति सचमुच ही कुछ भावनात्मक घनिष्ठता जुड़ गई हो तो वे सभी मथुरा आने की तैयारी में तुरन्त ही लग जायें।

इस बार यह प्रतिबन्ध उचित ही लगाया गया है कि जिनका हमारे विचारों से सीधा सम्बन्ध या परिचय नहीं है उन्हें, विशेषतया अबोध स्त्री, बच्चों को तीर्थयात्रा या घुमाने दिखाने के प्रयोजन से बिलकुल भी न लाया जाये। उन दिनों गर्मी अधिक होगी, ठहराने के लिये तम्बुओं के अतिरिक्त और कोई साधन नहीं, पानी की तंगी रहेगी। स्त्री, बच्चे बेकार परेशान होंगे और परेशान करेंगे। मिशन से सम्बन्ध और हमारी विचारणा के साथ जुड़ी हुई महिलाओं के ऊपर प्रतिबन्ध नहीं है। दर्शन झाँकी की लकीर पीटने वालों को रोका जा रहा है। उनकी व्यवस्था हमारे लिये भारी और कष्ट साध्य पड़ेगी। इस प्रकार जो आशीर्वाद वरदान मात्र पाने के आकाँक्षी है उन्हें भी रोका गया है। उनके लिये पत्र व्यवहार पर्याप्त है। आने की जरूरत नहीं है। फिर माताजी उनकी सहायता के लिये मौजूद ही रहेंगी। इस भाव भरे अवसर पर वे लोग हमें हैरान न करें। धन, सन्तान, विवाह, नौकरी, तरक्की, बीमारी, मुकदमा, दुश्मनी आदि की उलझने सुलझाने के लिये कितने व्यक्ति हमारे पास आते और सहायता प्राप्त करते रहे है। वह क्रम आगे भी जारी रहेगा। शायद उनकी परी बात सुन सकना इस अवसर पर भाव भरी मनःस्थिति में हमारे लिये सम्भव भी न हो सके। इसलिये उन्हें न आने के लिये ही कहा गया है। इस अवसर पर केवल उन्हें ही आमन्त्रित किया गया है जो हमारे अन्तरंग से, दर्द से, मिशन से, परिचित हैं और उनसे सहानुभूति रखते हैं। अखण्ड ज्योति के प्रायः सभी सदस्य इसी स्तर के होंगे। वे आ सकते हैं, और उन्हें भी आग्रह पूर्वक साथ ला सकते हैं जो नियमित सदस्य तो नहीं हैं पर मिशन की क्रिया पद्धति और विचारणा से परिचित हैं। उसे पढ़ते -सुनते रहे हैं और उपयोगिता से सहमत हैं। उन्हें आमन्त्रित करने और साथ में घसीट लाने के लिये परिजन हमारा प्रतिनिधित्व कर सकते हैं और आग्रह अनुरोध पूर्वक साथ ला सकते हैं। स्वीकृति माँगने और सूचना देने का पुराना नियम इस अवसर पर भी जारी रहेगा। इससे ठहराने आदि का प्रबन्ध करने में सुविधा रहती है। सो यथा सम्भव जल्दी ही सूचना देने और स्वीकृति पाने का कार्य निपटा लिया जाना चाहिए।

यह सामीप्य, सान्निध्य और सम्मेलन हमारी ही तरह आगन्तुकों के लिये भी एक कभी न भुलाई जा सकने वाली स्मृति बनकर रहेगा। हमें सन्तोष होगा और परिजनों को प्रकाश मिलेगा। इसलिये विचारणा और भावना की दृष्टि से हमारे साथ एकता, घनिष्ठता अनुभव करने वाले हर परिजन के लिये यह एक अन्तिम और अति महत्वपूर्ण अवसर है। अच्छा यही हो कि इसे उपेक्षा की दृष्टि से न देखा जाये और गंवाया न जाये। इस समय की चूक हमें भी कष्टकारक होगी और परिजन भी पछताते रहेंगे। सो उचित यही है कि तैयारी में आज से ही लग जाया जाये। जहाँ सच्ची चाह होगी वहाँ समस्त अड़चनों को चीरते हुए राह भी निकल ही आवेगी।


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