हवा में ही न उड़ें थोड़ा पैदल चलें

March 1971

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“रेलगाड़ी पागल हो गई” शीर्षक से कुछ दिन पूर्व दैनिक ‘अमर उजाला’ में एक समाचार छपा था। पुरा विवरण इस प्रकार था-आगरा से काठ गोदाम की ओर जाने वाली एक मालगाड़ी का ड्राइवर सो गया (बीमार या मूर्छित होना जैसा कोई और कारण भी हो सकता है) फलस्वरूप मालगाड़ी को जहाँ भी रुकना था वह वहाँ नहीं रुकी रेलवे अधिकारी चिन्तित हो उठे। रेलगाड़ी अपनी पूरी रफ्तार से जा रही थी। उसमें डीजल की मात्रा इतनी थी कि वह आसाम तक पहुँचने के लिये पर्याप्त हो जाती इसलिये आसाम तक पूरी लाइन साफ कर देने की व्यवस्था कर दी गई। दैवयोग से मथुरा से आगे मुरसान स्टेशन पर ड्राइवर जग गया और गाड़ी रुक गई अन्यथा वह कहाँ टकरा जाती, जाना कहाँ था, जा कहाँ पहुँचती इसका कुछ ठिकाना न था।

यह एक अपवाद समाचार था आये दिन वायुयान दुर्घटनाओं, रेल की भिड़न्त और उससे सैंकड़ों लोगों की दुर्घटनायें समाचार पत्रों में आती रहती हैं उन्हें भी आकस्मिक व अपवाद के रूप में ही माना जाता है। आज जब कि संसार की जनसंख्या भीषण रूप से बढ़ रही है सम्भव है इन दुर्घटनाओं का मूल्य न आँका जाता हो पर यातायात के याँत्रिक साधनों की वृद्धि ने जन-जीवन को दुर्घटनाओं से कितना भयाक्रान्त कर दिया है उसकी कल्पना भी कम दुःखद नहीं है। यह रोग चूँकि अभी भारतवर्ष में अधिक नहीं फैला इसलिए उधर ध्यान कम जाता है पर इस दृष्टि से पश्चिमी देशों का निरीक्षण करें तो यही कहना आयेगा-मनुष्य यातायात में इतनी शीघ्रता न कर पैदल चलने में ही राजी रहता तो कहीं अधिक नफे में रहता।

अमेरिका में रास्तों पर चलने वाले 100 में 17 व्यक्ति -मोटर-ठेलों द्वारा कुचल दिये जाते हैं, इंग्लैंड में प्रतिवर्ष 40 प्रतिशत सड़कों पर चलने वो लोग घर के बजाय स्वर्ग पहुँचा दिये जाते हैं। इटली में कारों की संख्या कम है 100 में से 9 के पास ही कारें होती हैं तो भी यह कम कारें ही 56 प्रतिशत पथिकों को कुचल डालती है और जापान जिसका औसत इटली से भी कम है प्रतिवर्ष 100000 यात्रियों में 402.2 आदमियों की पीस डालता है। इन सभी आँकड़ों को इकट्ठा करने पर पता चला कि संसार में आज यातायात दुर्घटनाओं से उतने लोग मरते हैं जितने संक्रामक बीमारियों से भी नहीं मरते।

पैदल चलने में शरीर की नस-नस हिल अवश्य जाती है पर उससे शरीर में कितनी शक्ति आती है यह भी किसी से छिपा नहीं। एक मील चलने से शरीर का जो व्यायाम करना पड़ता है उससे मनुष्य को 1 दिन के लिए अतिरिक्त शक्ति मिलती है और 1 दिन की आयु बढ़ जाती है। प्राचीनकाल में लोग लम्बी-लम्बी यात्रायें बहुत थोड़े समय में किया करते थे उनमें इतनी शक्ति और स्फूर्ति बनी रहती थी जब कि आज मोटरों और कारों पर चलने वाले लोग आराम से यात्रायें करने पर भी घर वापस आने पर हारे, थे, टूटे और बीमार से लगने लगते हैं। प्राचीनकाल में तीर्थ-यात्राओं और परिक्रमाओं का विधान था उसमें जहाँ शुद्ध और सुसंस्कृत वातावरण का लाभ लेने का भाव था वहाँ हमेशा घरों में बैठे रहने के आलस्य को पैदल यात्राओं द्वारा भगाना भी उद्देश्य था। इन यात्राओं से परिक्रमाओं से लोग भरपूर स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करते थे।

मोटर हो चाहे रेलें उनका धुआँ गैस यात्रियों के मस्तिष्क पर बुरा असर डालती है। हार्वर्ड युनिवर्सिटी के डा0 रीस.ए. मैकफारलैण्ड का कथन है कि मनुष्य को नियमित रूप से स्वस्थ और ताजा रखने के लिये 18 से 50 फुट प्रति सेकेण्ड की गति से चलती हुई 1 घन मीटर ताजी हवा की आवश्यकता होती है इसी प्रकार वायु में नमी की 15 प्रतिशत से कमी भी स्वास्थ्य और मस्तिष्क पर बुरा असर डालती है। इसके अतिरिक्त यात्रियों की सामूहिक अपान और मुँह से निकाली हुई दूषित वायु मोनो आक्साइड पैदा करती है जिससे देखने आराम से यात्रा करने वाले यात्री की आँख, कान, मस्तिष्क और रक्त में विकार उत्पन्न होने लगते हैं। यह विकार जहाँ यात्रियों के लिये स्वास्थ्य घातक होते हैं वहाँ ड्राइवरों के लिए ज्ञान नाशक। उनके मस्तिष्क के तन्तु और माँस-पेशियाँ नियन्त्रण में रहना छोड़ देती है दुर्घटनायें इसी का प्रतिफल होती है आज सारा योरोप उसके निश्चित दुष्परिणाम भुगत रहा है।

यह कहना चाहिये आज योरोप में यात्रा करना उतना ही जोखिम भरा हो गया है जितना कि तूफानी समुद्र में ........... हुई नाव लेकर चलना। स्वीडन में 1 लाख वाहन प्रतिवर्ष 76.1 आदमियों को रौंद डालते हैं, अमेरिका में अनेक सुरक्षा साधनों के बावजूद 52.6, न्यूजीलैण्ड में 53.8 ........... डेनमार्क के 1 लाख रजिस्टर्ड वाहन 101.8 यात्रियों को मार डालते हैं। फ्राँस उससे भी आगे है वह अपनी .......... मोटरों, कारों और ठेलों द्वारा 112.9 व्यक्तियों को पीस डालता है तो स्विट्जरलैंड और जर्मनी की गाड़ियाँ क्रमशः 153 और 153.8 व्यक्तियों को जिन्दा चबा जाती है। यह अकाल मृत आत्मायें आकाश और वातावरण में हाहाकार करती घूमती होंगी तो उससे मनुष्य जाति सूक्ष्म अन्तःकरण कितना अशाँत होता होगा उसकी कल्पना करना भी कठिन है।

सारा संसार घण्टे भर की यात्रा की सीमा में जाये उससे लाभ कुछ नहीं हानियाँ अपार है इसलिए यातायात के साधनों में वृद्धि द्वारा सारे संसार को एक बिन्दु पर ला देने का तर्क कोरी मूर्खता है। जब यह साधन नहीं थे इतिहास बताता है कि तब भी सारा संसार इतने ही समीप था। समीपता विचारों, सिद्धान्तों और मानवीय आदर्शों की ही अच्छी हो सकती है उसके दूसरे माध्यम है। गन्दगी बढ़ाने वाले शरीरों की समीपता से जो विकार बढ़ने चाहिये आज संसार में वही बढ़ रहे है अतएव इन साधनों में विकास के प्रयत्नों को अच्छा कदापि नहीं कहा जा सकता।

आज सब कुछ इससे उल्टा हो रहा है। योरोप में प्रतिवर्ष 500 व्यक्ति सड़क दुर्घटनाओं में मरते हैं और लगभग 1 लाख दुर्घटनाओं के शिकार होकर जीवन भर के लिये अपाहिज हो जाते हैं फिर भी प्रयत्न यह हो रहे है कि यहाँ अभी 100 व्यक्तियों पर 15 मोटरों का औसत है वहाँ जल्दी ही 100 व्यक्तियों पर 50 और 75 का औसत हो जाये। यदि विकास की गति इसी तरह बढ़ती गई तो एक दिन वह भी आ सकता है जब न तो पैदल के लिये पगडंडियाँ रह जायेंगी और न ही पैदल यात्री। तब लोगों को मारने वाले यमराज को भी अपना कार्यालय स्थायी रूप से बन्द कर देना पड़े तो कोई अचम्भा नहीं क्योंकि तब लोग अपने आप ही दुर्घटनाओं के शिकार होकर मर जाया करेंगे। आखिर यातायात के यह कृत्रिम साधन बढ़ेंगे तो दुर्घटनायें और मृत्यु दरें भी 79 व 37 प्रतिशत से शत प्रतिशत होगी ही। तब साहित्य भी पैदल चलने के लाभों के स्थान पर यातायात की दुर्घटनाओं का ही लिखा जाया करेगा जो इन पंक्तियों से भयंकर ही होगा। उस विभीषिका से बचाव अभी हो सकता है और वह भी इस तरह कि इन बनावटी साधनों की अपेक्षा लोग पैरों पर चलना सीखें, हवा में उड़ने की बात कम सोचें।

किसी राजा ने एक महात्मा से पूछा- ‘अगर तू रेगिस्तान में प्यास से व्याकुल हो और पानी वाला तुझसे आधा राज्य माँगे तो देगा या नहीं। राजा ने उत्तर दिया- अवश्य दूँगा। फिर हकीम भी आधा राज्य माँगे तो तू देगा ? राजा ने उत्तर दिया-जरूर दूँगा।’ इस पर महात्मा जी ने कहा-’ऐसी क्षणिक राज्य, सम्पत्ति पर घमण्ड न करो जो एक लोटे पानी के लिये और फिर दवा के लिये बिक जाये।’


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