कौतुकमय संसार के कलाकार की खोज

March 1971

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

जहाँ तक सामान्य जगत की बात है उसे पदार्थों की ....... पदार्थों का खेल कहा जा सकता है पर वहाँ इस संसार के अनेक ऐसे विलक्षण आश्चर्य और अलौकिक ....... भी दिखाई देते हैं जो पदार्थ के रासायनिक और ............ गुणों से भिन्न क्रिया कर रहे प्रतीत होते हैं वे इस बात के प्रमाण होते हैं कि संसार में कोई एक विचारशील सार्वभौमिक कलाकार सत्ता काम कर रही है। मनुष्य और प्रकृति दोनों की सामर्थ्य से परे यही आश्चर्यजनक घटनायें सके होने का प्रमाण देती हैं और उसके प्रति श्रद्धा रखने और उसकी ही शोध, साक्षात्कार करने की प्रेरणा दी हैं।

मिशिगन (अमेरिका) में एक ऐसा व्यक्ति है जो मुँह में साँस खींचकर आँखों से निकाल सकता है इन सज्जन का नाम एल्फ्रड लागेवेन। इस तरह की अनुभूति उन्हें अपने आप तब हुई जब एक दिन उन्होंने मुँह में हवा भर गोल फुलाये तो उन्हें अनायास ही ऐसा लगा कि हवा आँखों से निकल रही है। आँखों के आगे हाथ लगाकर देखा तो हवा की स्पष्ट अनुभूति हुई। इस बात को वहाँ उपस्थित अन्य लोगों ने भी अनुभव किया।

आँख का काम देखना है हवा छोड़ना नहीं, कान सुनने के लिये भगवान् ने बनाये हैं खाना खाने के लिये नहीं। यदि कोई ऐसी अद्भुत बातों का प्रदर्शन कर सकता है तो इसे आश्चर्य और अपवाद ही कह सकते हैं। सच कहा जाये तो यह आश्चर्य और इस तरह के अपवाद उत्पन्न करने की क्षमता मनुष्य में न होकर उसकी ईश्वरीय सत्ता कि है जिसने आश्चर्यों का आश्चर्य इतना बड़ा संसार तैयार कर दिया।

कुछ लोगों को लगा कि अल्फ्रेड किसी टेकनीक से हवा जैसी अनुभूति हाथों को करा देता होगा तो वह मोमबत्ती जलाकर ले आये और जब अल्फ्रेड ने मुँह को पूरी तरह साँस से भर कर बन्द कर लिया तब उसके नथुने का बन्द करके मोमबत्ती आँखों के सामने ले जाई गई और कहा गया अब आप इसे आँख से फूँक मारकर बुझाइये। अल्फ्रेड ने सचमुच आँख से फूँक मारी और उस जलती मोमबत्ती को बुझा कर दिखा दिया। उसकी यह विलक्षणता इस बात की प्रमाण है कि मनुष्य शरीर भगवान् की बनाई हुई रहस्यपूर्ण विशेषताओं का प्रतीक है, यदि आन्तरिक दृष्टि से खोज की जाये तो इस शरीर यन्त्र से सैकड़ों ऐसे कार्य किये जा सकते हैं, स्थूल दृष्टि से जो विलक्षण चमत्कार ही जान पड़ते हों।

आँख के लेन्स इस तरह बनाये गये हैं कि जो वस्तु सामने जैसी हो वैसी ही दिखाई देती रहे। यह सब प्राकृतिक होता तो दृढ़ नियम की भाँति आदि मानव से लेकर प्रलय के अन्तिम मरणासन्न व्यक्ति तक सबसे यही नियम काम करते रहना चाहिये था पर यहाँ तो बीच में ही उलट फेर हो जाने से फिर वही बात प्रमाणित होती है कि इस संसार में जो कुछ हो रहा है वह सब ईश्वरीय बुद्धि कौशल का ही खेल है। उदाहरण के लिये पेरु में कैम्पा नामक एक ऐसी आदिवासी मनुष्यों की जाति रहती है जिनकी आँखों के लेन्स हमेशा उल्टे होते हैं उसका परिणाम यह होता है कि यह लोग हर वस्तु को उल्टा ही देखते हैं। पुस्तकें पढ़ते समय वे उसे उल्टा रखते हैं तब उसके अक्षर उन्हें सीधे समझ में आते हैं।

पेरु के इन केम्पाओं की भाँति हमने भी संसार को प्रकृति-प्रवाह से प्रतिकूल दृष्टिकोण अपनाकर देखने की क्षमता उत्पन्न की होती तो वह सूक्ष्म रहस्य भी हमारे सामने स्पष्ट हो गये होते जो स्थूल दृष्टि से समझ में नहीं आते पर जिनके अस्तित्व पर कोई सन्देह नहीं है। यह विषय और तत्व आध्यात्मिक हैं। परमात्मा, आत्मा, लोक परलोक पुनर्जन्म आदि से सम्बन्धता है उन्हें समझने के लिये सामान्य सृष्टि क्रम से उलटा ही दृष्टिकोण अपनाना पड़ता है।

साधारणतया होता यह हैं कि मनुष्य की मृत्यु दिखाई नहीं देती। उस समय की अनुभूति केवल मरने वाले को ................ है वह भी यह व्यक्त नहीं कर पाता कि वह ......... का जीवन जीने के कारण दुःख, कितनी .............. के साथ प्राणों का परित्याग करता है इसलिये .......... इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण अध्याय के प्रति अन्य .......... भी दृष्टिकोण सामान्य सा नासमझी का ही रह ..............।

मृत्यु जीवन का अनिवार्य ही नहीं एक अति महत्वपूर्ण ........... है यह दो अवस्थाओं की संधि है। संधि का महत्व .......... अधिक होता है कि उस स्थिति में दो बिलकुल ............ दिशाओं का एक ही स्थान पर ज्ञान होता है। संध्या ......... महत्व इसीलिये सर्वाधिक होता है क्योंकि उस बिन्दु ............ और अन्धकार एकाकार होते हैं सत्य और असत्य ............ और प्रकृति, जन्म और मृत्यु की परिस्थितियों का ............... बढ़िया चिन्तन, ज्ञान और अनुभूति उसी समय हो ............. है इसीलिये ध्यान और उपासना के लिये सन्ध्या ............ सबसे उपयुक्त माना गया। मृत्यु भी एक ऐसी ही ................ सन्ध्या है जिसमें जीवन के स्थूल और सूक्ष्म ......................... का ज्ञान होता है इसलिये उसकी विशेष तैयारी के .............. यहाँ पूर्व विधान बनाये गये है।

हम उन पर ध्यान नहीं देते पर दूसरे जीवों के जीवन ................. उसका कितना महत्व है, इसे देखना हो तो किसी जला-.................. के किनारे पहुँचकर “स्टेन्टर” नामक जीव को देखना चाहिये। वह मृत्यु के समय एक क्षण तूफान से पूर्व के वातावरण की भाँति अत्यन्त शान्त प्रतीत होता है दूसरे ही क्षण एक भयंकर विस्फोट के साथ अपने प्राण निकाल ................. है। उस विस्फोट को सुनते हुये भय लगता है मानों “स्टेन्टर” मृत्यु के समय भावी जीवन की कल्पना से भयभीत हो उठा हो। भले ही ऐसा कुछ न हो तो भी यह घटना मनुष्य को इस महत्वपूर्ण स्थिति पर ध्यान देने और उसके लिये आवश्यक तैयारी करने को बाध्य अवश्य करती है।

यह घटनायें व्यक्तियों से जीव-जन्तुओं से सम्बन्धित कही जा सकती हैं पर उस सत्ता की क्रीड़ा-स्थली मनुष्य और मनुष्येत्तर जीवों के शरीर मात्र नहीं समस्त ब्रह्माण्ड ही उसका घर हैं। उसकी अद्भुत लीलाएं भी सर्वत्र देखने को मिलती हैं। ऐसा ही एक आश्चर्य पिछले वर्ष बिहार राँची जिले में उद्घाटित हुआ। राँची से 130 मील दूर मराचट्टी थाने के अंतर्गत एक जंगल में एक नाला बहता है उसी के पास एक महुये का वृक्ष हैं। वृक्ष निर्जीव वस्तु मानी जाती है पर इस महुआ वृक्ष की विलक्षणता ने तो यही सिद्ध कर दिया कि वृक्ष का शरीर भले ही निर्जीव और जड़ हो, जड़ तो मनुष्य का शरीर भी है पर काम कर रही होती है वृक्षों के मूल में भी वैसी ही चेतना काम करती हैं।

इस वृक्ष के बारे में पिछले वर्ष सन् 70 के अगस्त मास में एक अफवाह फैली कि उसके नीचे पहुँचते ही जो भी पहुँचता है उसके हाथ वृक्ष की ओर खिंचने लगते हैं और थोड़ी देर में वह मूर्च्छित होकर गिर पड़ता है। इसके बाद उस व्यक्ति के पुराने से पुराने रोग अच्छे हो जाते हैं। और वह अपने आपको बिलकुल स्वस्थ और हलका अनुभव करता है। एक विचित्रता यह भी है कि वहाँ से जो लोग किये हुए पापों के प्रति प्रायश्चित का भाव लेकर जाते और फिर कभी दुष्कर्म न करने का संकल्प कर लेते हैं उनमें स्वास्थ निरोगिता के लक्षण स्थायी हो जाते हैं फिर वापस आ गये।

कहने में यह बातें अन्ध-विश्वास और मनगढ़न्त सी लगती हैं पर कोई सत्य, कोई अलौकिक आश्चर्य उसमें अवश्य है इसकी पुष्टि “नव-भारत टाइम्स” जैसे राष्ट्रीय ख्याति के अखबार ने की हैं। इस अखबार के सम्पादकों ने अपना निजी संवाददाता इस वृक्ष की परीक्षा लेने को भेजा था। संवाददाता ने वहाँ के अनुभव 30 नवम्बर के दैनिक नव-भारत टाइम्स में छपाये भी थे।

महुआ वृक्ष के चमत्कार की घटना का वर्णन देते हुए लिखा है- अघहर ग्राम का एक किसान जागेश्वर महतो लकड़ियाँ लेकर घर लोट रहा था। थकावट के कारण उसने इस वृक्ष के समीप लकड़ियों का गट्ठर पटक दिया नाले में हाथ-पैर धोये और जैसे ही महुआ वृक्ष के नीचे आकर बैठा कि उसके हाथ अपने आप ऊपर की ओर खिंचने लगे थोड़ी देर में वह मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। कुछ देर बेहोशी दूर हुई तो उसने अपने पेट के बहुत पुराने मर्ज में आराम और शरीर में ताजगी अनुभव की। उसने यह बात गाँव के अन्य लोगों का बताई। गाँव के न केवल हिन्दू, वरन् मुसलमान और ईसाई धर्मावलम्बियों ने भी जाकर परीक्षण किया और उन्होंने भी उस चमत्कार को आश्चर्यजनक रूप से सत्य पाया। कुछ दिन में वहाँ सैकड़ों लोगों की भीड़ बढ़ी तो वहाँ सरकार ने अव्यवस्था के कारण प्रतिबन्ध लगा दिया पर यह बात संवाददाता ने भी स्वीकार की है कि और सब बातें अन्ध-विश्वास मान ली जायें तो भी वृक्ष के नीचे बैठते ही हाथों का अनायास ऊपर की ओर खिंचना फिर मूर्च्छित होकर गिर पड़ना और मूर्छा अपने आप दूर हो जाना इत्यादि प्रकट सत्य ऐसे हैं जिन्हें मात्र अन्ध-विश्वास नहीं कहा जा सकता उसके पीछे कोई दैवी सत्य अवश्य होना चाहिए।

हमारे देश में अन्ध-विश्वास बहुत अधिक फैला है इसलिये उसके मध्य हुई सत्य बातें भी अन्ध-विश्वास कहकर शिक्षित लोगों द्वारा सृष्टि की आद्य शक्तियों और सूक्ष्म तत्वों की उपेक्षा की जाती रहती है। आत्मा, परमात्मा परलोक और पुनर्जन्म जैसे आध्यात्मिक सत्यों और सिद्धाँतों को भुलाया जाना इस बात का प्रमाण है कि हम स्थूल जगत से आगे किसी अन्तिम निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये सामर्थ्य भी नहीं। प्रकृति वादी इन पूर्वाग्रहों ने हमारी भौतिक वासनाओं को प्रखर किया है आज की अशान्ति आज के द्वन्द्व, आज के विग्रह और विभीषिकायें उसी का परिणाम हैं ऐसे भौतिकवादी दर्शन को ही मान्यता देना भी एक प्रकार का अन्ध-विश्वास ही है। यदि चाहें तो इस तरह की घटनाओं से अध्यात्मिक सत्यों की भी प्रेरणा ग्रहण कर सकते हैं।

इंग्लैंड के विश्व विख्यात प्लीमथ बन्दरगाह पर बने प्रसिद्ध प्रकाश स्तम्भ एडिस्टोन के पीछे भी एक ऐसी ही विलक्षण घटना जुड़ी हुई है। यूरोपियन भी जिसकी आश्चर्य के साथ चर्चा करते और यह मानते हैं कि ऐसी घटनायें किसी अतीन्द्रिय कारण का ही फल हो सकती हैं।

यह प्रकाश स्तम्भ हेनरी विस्टनले नामक अँगरेज शिल्पी ने बनाया था। इसे बनाने में उसने अपनी सारी आत्मा लगा दी थी। अपने निर्माण के प्रति उसका प्यार इसी बात से प्रकट होता है कि उसने इस प्रकाश स्तम्भ का एक छोटा मॉडल भी बनाया और उसे अपने घर में ड्राईंग रूम में सजाकर रखा।

दिन बीतते गये एकबार की बात है कि समुद्र में भयंकर तूफान आया। तूफान ने न केवल इस बन्दरगाह को ध्वस्त कर दिया वरन् इस प्रकाश स्तम्भ को भी बर्बाद कर दिया। विस्टनले उस समय बन्दरगाह से 200 मील दूर अपने घर पर था। इधर समुद्र में तूफान आया और प्रकाश स्तम्भ गिरा उधर घर में रखा वह मॉडल भी अपने आप जमीन पर गिरकर चकनाचूर हो गया। और ठीक इसी समय अपनी चारपाई पर लेटे विस्टनले ने कहा अब जब न यह कलाकृति रही और न वह तो मैं ही जीकर क्या करूं इतना कहते कहते उसने भी अपने प्राणों का परित्याग कर दिया। दस समय तो इन शब्दों का अर्थ वहाँ उपस्थित कोई भी व्यक्ति नहीं समझा पाया पर पीछे जब सब बातें प्रकाश में आई तो लोग आश्चर्यचकित रह गये कि दो जड़ और एक चेतन- तीन आत्माओं का एक साथ विसर्जन क्यों हुआ और 200 मील दूर बैठे मिस्त्री विस्टनले को इसका पूर्वाभास अपने आप कैसे हो गया।

यह आश्चर्य संसार की व्यवस्था में किसी विचारशील सत्ता के स्पष्ट प्रमाण है। चाहें तो इनसे प्रेरित होकर भी सृष्टि के कलाकार की खोज में आरुढ़ हो सकते हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles