सब खोकर भी मर्यादा बचाली

March 1971

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गुरु माता बड़े ही स्नेहार्द्र कण्ठ स्वर से पुकार रही थीं- “आओ वत्स, भोजन के लिये कब से प्रतीक्षा कर रही हूँ।

किन्तु कच का मन आत इतना अवसाद से घिरा हुआ था कि भोजन तो क्या- कुछ भी ग्रहण करने की इच्छा नहीं हो रही थी। बार-बार आग्रह करने पर भी जब वह भोजनशाला में नहीं गया और भूख न होने की बात कही- तो आचार्य शुक्र स्वयं आये। उसे प्रबोध करके कहने लगे “कच बेटा ! उठो भोजन करलो। मुझसे तो अप्रसन्न नहीं हो न ? फिर मेरे कहने से, चाहे थोड़ा ही कुछ खा लो ! मन की उलझनों के लिये शरीर के साधारण धर्मों की उपेक्षा उचित नहीं।”

यों तो कच ऋषि शुक्राचार्य के आश्रम में एक शिक्षार्थी मात्र था। किन्तु उसके सद्गुणों- सहज ग्रहणशील बुद्धि स्वभावगत मधुरता तथा कर्तव्यनिष्ठ व्यक्तित्व के कारण वे उसे पुत्रवत् ही मानते थे। उतनी ही आत्मीयता तथा स्नेह था उसके प्रति ऋषिवर का , जितना अपनी जिन की एक मात्र सन्तान- देवयानी से था।

अतः वह उस स्नेहाग्रह को न टाल सका और अनिच्छा पूर्वक ही मात्र को भोजन कर आया।

इस समय उसके समक्ष बड़ी जटिल समस्या थी। गुरु पुत्री- देवयानी भी वर्षों से उसके साथ ही आश्रम में विद्याध्ययन कर रही थी। यों वही रहने के कारण निश्श्दिवस का ही साहचर्य था। देवयानी को वह निज की बहिन जैसा ही मानता। गुरु कन्या आखिर भगिनी ही तो होती है। और स्नेह भी इतना था उसके प्रति जिसकी तुलना नहीं हो सकती। गंगोत्री की पावन धारा सा निर्मल, निष्कलुष स्नेह।

किन्तु देवयानी- पता नहीं कब उस निर्मम स्रोत से सींच-सींच कर अपने उर में प्रणायाँकुर लगा बैठी। मानस पटल पर कच की मूर्ति जीवन देवता के रूप में प्रतिष्ठित की ओर उसमें पता नहीं कितने भावनाओं तथा सम्भावनाओं के अरुणाभ रंग भर लिये।

अब जब अपनी विद्याध्ययन की अवधि समाप्त हो जाने पर वह वापिस देवलोक जाने को उद्धत हुआ- तो देवयानी का प्रणायाँसक्त निवेदन सामने रास्ता रोककर खड़ा था। आज प्रायः ही तो- देवयानी ने अनुरोध किया था कि तुमसे विवाह किये बिना मैं नहीं रह सकती।” कच को वही समस्या उद्वेलित किये थी।

सायंकाल फिर वही प्रसंग। निस्तब्ध वातावरण। उधान की समस्त मधुरता जैसे स्पन्दन हीन थी इस समय। एक स्फटिक शिला पर दोनों बैठे थे ! देवयानी अश्रुपूरित नयनों से देख रही थी कच की भाव-भंगिमाओं को आखिर उससे न रहा गया तो बोली “ आखिर मैंने क्या अपराध कर डाला है ऐसा-जो बोलते भी नहीं कुछ।” कच ने तत्परता से कहा “ ऐसा न कहो देवयानी ! मैंने कब कहा कि तुमने कुछ अपराध किया है। मैं तो अपनी बात कह रहा था- आखिर तुम मेरी भगिनी हो- गुरु कन्या। मैं तुमसे कैसे .................................।”

“पर यह तो सोचो कच कि मैं तुम्हारे बिना कैसे रहूंगी। आज तक जिन स्वप्नों के सहारे जीवन में सुख का सृजन किया था-उनके टूट जाने पर कैसे जीवन धारण कर सकूँगी।”

कच बोला- स्वप्नों के आकाश महल से अधिक महत्व इस कठोर धरती पर बसे घरों का होता है। सिद्धान्त तथा आदर्श कल्पनाओं से कही महत्वपूर्ण होते हैं। देवयानी ने डबडबाई आंखें पोछते हुए कहा- आत्मा-सन्तोष का भी तो महत्व है। जीवन में उसको पाने के लिये ही तो हम सब निरन्तर प्रयत्नशील है। अनादि काल से जीवन उसी की खोज में तो अनवरत प्रयत्नशील है।

देवयानी की निराशा अन्तिम सीमा पर पहुँच चुकी थी। उसे लगा जैसे बहते-बहते नाव एकदम उलट गई हो। बड़ी मुश्किल से उसने कहा जैसे डूबते हुए भी कोई तिनके का सहारा माँग रहा हो “मेरी परिणय याचना को स्वीकार कर लो कच- मैं अन्तिम बार तुम्हारे समक्ष फिर अपनी झोली फैलती हूँ।

किन्तु वह व्यक्तित्व तो जैसे पत्थर की चट्टान की भाँति अडिग था। सान्त्वना के स्वर में प्रबोध करते हुए कहने लगा- मेरे हृदय के स्नेह की तुम सदा से अधिकारिणी रही हो और भविष्य में भी इसी प्रकार तुम्हें सदा ममता........... प्यार देता रहूँगा। किन्तु भगिनी मानकर ही। निर्मल स्नेह की निर्झरिणी सदा तुम्हारे लिये बहती रहेगी। देवयानी ! आदर्शों एवं मर्यादाओं को छोड़कर जीन धारण किये रहना जीवित रहना मृत्यु से भी महंगा पड़ेगा।

देवयानी का धैर्य टूट गया। दुःख जब अपनी सीमा को पार कर जाता है तो फिर क्रोध में बदल जाता है। उसे भी क्षुब्धता ने इतना आक्राँत कर दिया कि अपना मानसिक सन्तुलन बनाये न रख सकी और शाप देने पर उतारू हो गई। अन्ततः उसने शाप दे डाला-”तुमने जो भी विधा मेरे पिता से सीखी है- वह सब विस्मृत हो जाय।”

देवयानी का शाप सार्थक हुआ और कच समस्त विधा- संजीवनी विधा- जिससे मृतक प्राणी को दुबारा जिन्दा किया जा सकता है- भूल गया। फिर भी उसे असीम सन्तोष था। विधा खेकर भी उसने धर्म- मर्यादा तथा नीति की रक्षा करली थी।

विधा दुबारा अर्जित की जा सकती थी किन्तु- धर्म एक बार गया तो कुख्याति तथा पाप का ही भागी बनना पड़ता है। मर्यादा एक बार टूटी तो फिर किसी वस्तु से नहीं जोड़ी जा सकती। बड़ी वस्तु के लिये छोटी-कम महत्वपूर्ण वस्तु का त्याग। यही शाश्वत नियम है। इसी से लोक जीवन में आदर एवं सम्मान मिलता है और इसी से मिलती है संसार की सबसे बड़ी उपलब्धि- आत्म-सन्तोष।


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