अध्यात्मिक काम-विज्ञान-4

March 1971

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पिछले दिनों अग्नि तत्व को बहुत महत्व मिला और में एक कोने में उपेक्षित पड़ा रहा। फलतः सृष्टि का समाज -सारा सन्तुलन गड़बड़ा गया। हवन कुण्ड के चारों ओर एक पानी की नाली भरी रखी जाती है। कर्मकाण्ड ज्ञाता जानते हैं कि यज्ञ कुण्ड में अग्नि कितनी ही प्रदीप्त क्यों न रहे उसके चारों ओर घेरा सोम का-जल का ही होना चाहिए। अग्नि को उतने समारोह पूर्वक यज्ञ आयोजनों में स्थापित नहीं किया जाता जितनी धूमधाम के साथ जल यात्रा की जाती है। अग्नि का-ग्रीष्म ऋतु का उत्ताप तीव्र होते ही वर्षा ऋतु दौड़ आती है और उस तपन का समाधान प्रस्तुत करती है।

नर को अग्नि ऊष्मा और नारी को सोम, जल कहा गया है। नर की प्राण शक्ति का पुरुषार्थ क्षमता और कठोरता का बौद्धिक प्रखरता का अपना स्थान है और उसका प्रयोग किया जाना चाहिए पर यदि उसे उच्छृंखल छोड़ दिया गया-नारी का नियन्त्रण उस पर न हुआ तो सृष्टि में क्रूरता और दुष्टता का उत्ताप ही बढ़ता चला जायेगा। परम्परा यह रही है कि नर के श्रम साहस का उपयोग कम चलता रहा है, पर-नारी ने अपनी मृदुल भावनाओं से मर्यादाओं में रहने के लिए नियंत्रित और बाध्य किया है उसकी मृदुल और स्नेह सिक्त भावनाओं ने क्रूरता को कोमलता में बदलने की अद्भुत सफलता पाई है। यह क्रम ठीक तरह चलता रहता-पुरुष का शौर्य, अपनी प्रखरता से सम्पदायें उपार्जित करता और नारी अपनी मृदुलता से उसे सौम्य सहृदय बनाती रहती तो दोनों सही पहियों की गाड़ी से प्रगति की दिशा में सृष्टि अवस्था की यात्रा ठीक प्रकार सम्पन्न होती रहती। चिर-साल तक वहीं क्रम चला। उपार्जन नर ने किया और उपयोग नारी ने। अब वह क्रम नहीं रहा। अब उच्छृंखल नर हर क्षेत्र में सर्व सतत् सम्पन्न हुआ दैत्य, मानव की तरह निरंकुश सत्ता का उद्धत उपयोग कर रहा है। नारी तो मात्र भोग्या, रमणी, कामिनी बन कर विषय विकारों की तृप्ति के लिए साधन सामग्री मात्र रह गई है। उसके हाथ से वे सब अधिकार छीन लिये गये जो अनादिकाल से उसे सृष्टिकर्ता ने सौंपे थे।

वैयक्तिक पारिवारिक सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक हर क्षेत्र में दिशा निर्धारण के सूत्र नारी के हाथ में रहने चाहिए। तभी उपलब्ध सम्पदाओं का सौम्य सदुपयोग सम्भव हो सकेगा। आज हर क्षेत्र में विकृतियों की विभीषिकाएं नग्न, कृत्य कर रही हैं इसके स्थूल कारण कुछ भी हो सूक्ष्म कारण यह है कि नारी का वर्चस्व नेतृत्व कहीं भी नहीं रहा, सर्वत्र नर को ही मनमानी घर जानी चल रही है। उसकी प्रकृति में जो कठोरता का भला या बुरा तत्व अधिक है उसी के द्वारा सब कुछ संचालित दीख पड़ता है। जल के अभाव में अग्नि-सर्वनाशी दावानल का विकराल रूप धारण कर लेती है इन दिनों नारी को उपेक्षित तिरस्कृत करने के उपरान्त जो विद्रूप अपनाया है उसका परिणाम व्यापक हाहाकार के रूप में सामने प्रस्तुत है।

स्थिति को बदलने और सुधारने के लिए भूल को फिर सुधारना होगा और वस्तु स्थिति उपलब्ध करने के लिये पीछे लौटना होगा। नारी का वर्चस्व पुनः स्थापित किया जाये और उसके हाथ में नेतृत्व सौंपा जाये यह समय की पुकार और परिस्थितियों का माँग है उसे पूरा करना ही होगा। नवयुग-निर्माण के लिए जन मानस में जिन कोमल भावनाओं का परिष्कार किया जाना है वह नारी सूत्रों से ही उद्भूत होगा। युद्ध, संघर्ष, कठोरता, चातुर्य, बुद्धि कौशल के चमत्कार देख लिये गये। उनने सम्पदाएँ तो कमाई पर उसकी एकाँकी उद्धत प्रकृति उसका सदुपयोग न कर सकी। स्नेह सौजन्य, सद्भाव सफलता का प्रतीक तो नारी है। उसी वर्चस्व मृदुलता का संचार कर सकने में समर्थ है। उसे उपेक्षित पड़ा रहने दिया जाये तो उपार्जन कितना भी-किसी देश में क्यों न होता रहे- सदुपयोग के अभाव में वह विश्वघातक ही सिद्ध होता रहेगा। सन्तुलन तभी रहेगा जब नारी को पुनः उसके पद पर प्रतिष्ठापित किया जाये और शक्ति के उन्मत्त हाथी पर स्नेह का अंकुश नियोजित किया जाये। भावनात्मक नवनिर्माण का यह अति महत्वपूर्ण सूत्र है। नारी का पिछड़ापन दूर किये बिना-उसे आगे लाये बिना-कोई गत नहीं। इस कदम को उठाये बिना हमारी धरती पर स्वर्ग अवतरण करने और मनुष्य में देवत्व का उद्भव करने के हमारे स्वप्न साकार न हो सकेंगे।

प्रतिबंधित नारी को स्वतन्त्रता के स्वाभाविक वातावरण में साँस ले सकने की स्थिति तक ले चलने में प्रधान बाधा उस रूढ़िवादी मान्यता की है जिसके अनुसार उसे या तो अछूत, बन्दी, अविश्वस्त घोषित कर दिया गया है या फिर उसे कामिनी की लाँछना से कलंकित कर दिया है इन मूढ मान्यताओं पर प्रहार किये बिना उनका उन्मूलन किये बिना यह सम्भव न हो सकेगा कि अन्ध परंपरा के खूनी शिकंजे ढीले किये जा सकें और नारी को कुछ कर सकने के लिए अपनी क्षमता का उपयोग कर सकना सम्भव हो सके। यह लेख माला इसी प्रयोजन के लिए लिखी जा रही है और यह प्रतिपादित किया जा रहा है कि नारी न तो कामिनी है-न अविश्वस्त न नरक में धकेलने वाली न बन्दी बना कर रखा जाने योग्य भूखी अथवा दासी। वह मनुष्य जाति की आधी इकाई है-और उसका व्यक्तित्व वर्चस्व नर के समान ही नहीं वरन् अधिक उपयोगी भी है। उसे सरल स्वाभाविक स्थिति में जीवन यापन करने की छूट दी जा सके तो विश्व की वर्तमान विषम परिस्थितियों में आश्चर्यजनक मोड़ लाया जा सकता है और अन्धकार से घिरा दीखने वाला मानव जाति का भविष्य आशा के आलोक से प्रकाशवान होता हुआ दृष्टिगोचर हो सकता है।

सर्वसाधारण को यह समझना और समझाया जाना चाहिए कि जिस प्रकार पुरुष पुरुष मिल कर कुछ कार करें या स्त्रियाँ स्त्रियाँ मिल कर सहयोग सान्निध्य जगावें तो व्यभिचार अनाचार की आशंका नहीं की जा सकती। उसी प्रकार नर और नारी मिलजुल कर रहें तो उसमें प्रकृतितः कोई जोखिम या कुकल्पना की ऐसी आशंका नहीं है जिससे भयभीत होकर आधे मनुष्य समाज पर नारी पर अवाँछनीय प्रतिबंध आरोपित किये जायें। नर नारी का प्राकृतिक मिलना कितना उपयोगी आवश्यक एवं उल्लासपूर्ण है इसका परिचय हम भरे-पूरे परिवार में-जिसमें सभी वर्ग के नर-नारी अति पवित्रता के साथ रहते है-आसानी से प्राप्त कर सकते हैं। घर परिवार में पति-पत्नी के जोड़ों के अतिरिक्त कौन किसे कुदृष्टि से देखता है या कुचेष्टा करता है। यह स्थिति विश्व परिवार में भी लाई जा सकती है और सर्वत्र नर-नारी समान रूप से अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए स्नेह सद्भाव का संवर्धन करते हुए आत्मिक और भौतिक विकास में परस्पर अति महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। यह स्थिति लाई ही जानी चाहिए-बुलाई ही जानी चाहिए।

अवरोध केवल गर्हित दृष्टिकोण ने प्रस्तुत किया है। इसके लिए अधिक दोषी कलाकार वर्ग है जिसने समाज के सोचने की दिशा ही अति भ्रमित करके रखदी। नारी को रमणी कामिनी और वेश्या के रूप में प्रस्तुत करने की कुचेष्टा में जब कला के सारे साधन झोंक दिये गये तो जन मानस विकृत क्यों न होता ? चित्रकार जब उसके मर्मस्थलों को निर्लज्ज निर्वसन बनाने के लिए दुशासन की तरह अड़े बैठे है, कवि जब वासना भड़काने वाले ही छन्द लिखें, गायक जब नख शिख का उत्तेजक उभार और लम्पटता के हाव-भावों भरे क्रिया-कलापों को अलापें-साहित्यकार कुत्सा ही कुत्सा सृजन करते चले जायें-और प्रेस तथा फिल्म जैसे वैज्ञानिक माध्यमों से उन दुष्प्रवृत्तियों को उभारने में पूरा-पूरा योगदान मिले तो जनमानस को विकृत और भ्रमित कर देना क्या कुछ कठिन हो सकता है ? हमें इस विकृति के मूल स्त्रोत कला के अनाचार को रोकना बदलना होगा। स्नेह और सद्भाव की- देवी सरस्वती के साथ किया जाने वाला यह बर्बर व्यवहार यदि उल्टा जा सकता हो तो लोक मानस में नारी के प्रति स्वाभाविक सौजन्य फिर पुनः जीवित किया जा सकता है।

रूढ़िवादियों से कहा जाये कि वे दिन में आँखें मल कर न बैठे रहें। विवेक का युग उभरता चला आ रहा है। औचित्य की प्रतिष्ठा करने के लिए बुद्धिवाद की प्रखरता प्रातःकालीन ऊषा की तरह उदय होती चली आ रही है। उसे रोका न जा सकेगा। कथा पुराणों की दुहाई देकर-प्रथा परम्परा का पल्ला पकड़ कर-अब देर तक वे प्रतिबन्ध जीवित न रखे जा सकेंगे जो नारी को व्यभिचारिणी और अविश्वस्त समझ कर उसे अगणित बन्धनों में जकड़े हुए है। विवेक और न्याय की आत्मा तड़प रही है, वह इस बात के लिए मचल पड़ी है कि नारी के साथ बरती जाने वाली बर्बरता का अन्त किया जाये। से वह सब होकर रहेगा। उसे कोई भी अवरोध देर तक रोक न सकेगा। अगले दिनों निश्चित रूप से नर और नारी परस्पर सहयोगी बनकर स्नेह सद्भाव के साथ स्वाभाविक जीवन जियेंगे और एक दूसरे को आशंका या यौन आकर्षण की दृष्टि से न देख कर पुण्य सौजन्य के आधार पर निर्माण और निर्वाह के क्षेत्रों में प्रगतिशील कदम बढ़ाते चलेंगे। रूढ़िवाद के लिए उचित यही है कि समय रहते बदले अन्यथा समय उनकी अवज्ञा ही नहीं दुर्गति भी करेगा। उदीयमान सूर्य रुकेगा नहीं, उल्लू, चमगादड़ और वनविलाव ही चाहे तो मुँह छिपा कर किसी कोने में विश्राम करने के लिए अवकाश प्राप्त कर सकते हैं।

इसी प्रकार तथाकथित सन्त महात्माओं को कहा जाना चाहिए कि वे अपने मन की संकीर्णता, क्षुद्रता और लुषिता से डरे उसे ही भवबन्धन मानें। नरक की खान ही है। नारी को उस लाँछना से लाँछित कर उस मानव जाति की भर्त्सना न करें जिसके पेट से वे स्वयं पैदा हुए है और जिसका दूध पीकर इतने बड़े हुए है। अच्छा हो हमारी जीभ पुत्री को न कोसे-भगिनी को लाँछित न करें- नारी नरक की खान हो सकती है यह कुकल्पना अध्यात्म के किसी आदर्श या सिद्धान्त से तालमेल न खाती। यदि बात वैसी ही होती तो अपने इष्टदेव राम, कृष्ण, शिव आदि नारी को पास न आने देते। ऋषि आश्रमों में ऋषिकाएं रहती। सरस्वती, लक्ष्मी, काली आदि देवियों का मुख देखने से पाप लग गया होता। निरर्थक की डींगे न हाँके तो ही अच्छा है। अन्तरात्मा प्रज्ञा, भक्ति साधना, मुक्ति बुद्धि यह सभी स्त्रीलिंग है। यदि नारी नरक की खान है और स्त्री लिंग, इस शब्दों के साथ जुड़ी हुई विभूतियों को बहिष्कृत किया जाना चाहिए। अच्छा है अध्यात्मवाद के नाम पर भौंड़ा भ्रम जंजाल अपने और दूसरों को दिग्भ्रान्ति करने की अपेक्षा उसे समेट कर अजायब घर की कोठरी में बन्द कर दिया जाये।

सर्वसाधारण को इस तथ्य से परिचित कराया जाना ही चाहिए कि नर-नारी को सघन सहयोग यदि पवित्र पृष्ठभूमि पर विकसित किया जाये तो उससे किसी को कुछ भी हानि पहुँचने वाली नहीं है वरन् सब का सब प्रकार लाभ ही होगा। नारी कोई बिजली या आग नहीं है जिसे छूते ही या देखते ही कोई अनर्थ हो जाये। उसे अलग-अलग रखने की कुछ भी आवश्यकता नहीं है। मनुष्य को मनुष्य के अधिकार मिलने चाहिए। विश्व में राजनैतिक स्वतन्त्रता की माँग पिछले दिनों बहुत प्रबल होती चली आई है और उसने परम्परागत ताज, तख्तों की जड़ मूल से उखाड़ कर फेंक दी। यह प्रवाह परिवर्तन राजनीतिक तक ही सीमित न रहेगा। मनुष्य के समान स्वाधीनता दिला कर ही वह गति रुकेगी। गुलाम प्रथा का अन्त हो गया अब दास-दासी खरीदे व बेचे नहीं जाते वर्ग भेद और रंग-भेद के नाम पर बरती जाने वाली असमानता के विरुद्ध आरम्भ हुआ विद्रोह प्रबल से प्रबलतर होता चला जा रहा है और दिन दूर नहीं जब कि मानवीय सम्मान और अधिकार से वंचित कोई व्यक्ति कहीं न रहेगा। जन्म-जाति, वंश, वर्ण, रंग आदि के नाम पर बरती जाने वाली असमानता अब देर तक जिन्दा रहने वाली नहीं है। वह अपनी मौत के दिन गिन रही है। इसी संदर्भ से यह भी गिरह बाँध लेनी चाहिए कि नर ओर नारी के बीच बरता जाने वाला भेद भाव भी उसी अन्याय की परिधि में आता है। नारी को पराधीनता मनुष्य के आधे भाग की आधी जनसंख्या की पराधीनता है। यह कैसे संभव है वह आगे भी आज की ही तरह बनी रहे। स्वतन्त्रता का प्रवाह नारी को भी इन अनीति मूलक बन्धनों से मुक्ति दिला कर रहेगा। दिन दूर नहीं कि गाड़ी के दो पहियों की तरह-शरीर की दो भुजाओं की तरह नर-नारी सौम्य सहयोग करते दिखाई पड़ेंगे। समय का प्रवाह आज नहीं तो कल इस स्थिति को उत्पन्न करके रहेगा। अच्छा हो वक्त रहते हम बदल जायें तो अमिट भावनाओं से लड़ मरने की अपेक्षा उसके लिये रास्ता खुला छोड़ दे अच्छा तो यह है कि न्याय और विवेक की दिव्य किरणों के साथ उदय होने वाली इस ऊषा की अभ्यर्थना-करके अपनी सद्भाव सम्पन्नता का परिचय देने के लिए आगे बढ़ चलें।

नव निर्माण की प्रक्रिया इस दिशा में अधिक उत्सुक इसलिए है कि भावी विश्व का समग्र नेतृत्व नारी को ही सौंपा जाने वाला है। राज सत्ता का उपयोग पिछले दिनों आक्रमण, आतंक, शोषण और युद्ध लिप्सा के लिए होता रहा है पुरुष के नेतृत्व के दुष्परिणाम इतिहास का पन्ना-पन्ना बता हरा है। अब राज सत्ता नारी के हाथ सौंपी जायेगी ताकि वह अपनी करुणा और मृदुलता के अनुरूप राज सत्ता के अंचल में कराहती हुई मानवता के आँसू पोंछ सके। शिक्षा से लेकर न्याय तक-वाणिज्य से लेकर धर्म धारण तक हर क्षेत्र का नेतृत्व जब नारी करेगी तब सचमुच दुनिया तेजी से बदलती चली जायेगी। कला के सारे सूत्र जब नारी के हाथ सौंप दिये जायेंगे तब उस देव मंच से केवल शालीनता की दिव्य धाराएं ही प्रवाहित होंगी और उस पुण्य जाह्नवी में स्नान करके जन मानस अपने समस्त कषाय कल्मष धोकर निर्मल निष्पाप होता दिखाई देगा।

नर का नेतृत्व मुद्दतों से चला आ रहा है उसकी करतूत करामात भली प्रकार देखी परखी जा चुकी। अच्छा है वह सम्मान पीछे हट जाये और पेन्शन लेकर कम से कम नेतृत्व की लालसा से विदा हो ही जाये। करने के लिये बहुत काम पड़े है। पुरुष को उनसे रोकता कौन है ? बात केवल नेतृत्व की है। बदलाव का तकाजा है कि ग्रीष्म का आतप बहुत दिन तप लिया और वर्षा की शाँति और शीतलता की फुहारें झरनी चाहिए। सर्वनाश की किस विषम विभीषिका में मनुष्य जाति फंसी पड़ी है उससे परित्राण नेतृत्व बदले बिना सम्भव नहीं। नारी की करुणा उसे सशक्त और समर्थ बनाने के लिए वह सब बौद्धिक प्रक्रिया संजीव करनी पड़ेगी जो इस लेख माला के अंतर्गत प्रस्तुत की जा रही है।

नर नारी के सम्मिलन से खतरा केवल एक ही है कि यह वर्तमान विकृत वासना का ताण्डव रोका नहीं गया तो पाश्चात्य देशों की तरह स्वच्छंदता के वातावरण में बढ़ चला यौन अनाचार बिखर पड़ेगा और वह भी कम विघातक न होगा। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए जहाँ नारी स्वातंत्र्य के लिए हमें प्रयत्न करना है वहाँ यह चेष्टा भी करनी है कि कामुकता की ओर बहती हुई मनोवृत्तियों को परिष्कृत करने में कुछ उठा न रखा जाये। नारी का सौम्य और स्वाभाविक चित्रण इस संदर्भ में अति महान है। कला के विद्रूप को कोसने से काम न चलेगा, उसे गन्दे हाथों से छीन लेना शासन सत्ता के लिए तो सम्भव है पर हम लोग जन स्तर पर इस प्रजातन्त्र पऋति के रहते कुछ बहुत बड़ा प्रतिरोध नहीं कर सकते हम यही कर सकते हैं कि दूसरा कला मंच खड़ा करें और उसके माध्यम से नारी की पवित्रता प्रतिपादित करते हुए लोक मानस की यह मान्यता बनायें कि नारी वासना के लिए पवित्रता का पुण्य स्फुरण करने के लिए है। कला मंच यह सब आसानी से कर सकता है। साहित्य का सृजन इसी दिशा में हो, कविताएं ऐसी ही लिखी जायें, चित्र इसी प्रयोजन के लिए बनें, गायक यही गायें, प्रेस यही छापे, फिल्म यही बनायें तो कोई कारण नहीं कि नारी का स्वाभाविक एवं सरल सौम्य स्वरूप पुनः जन मानस में प्रतिष्ठापित न किया जा सके ऐसी दशा में वह जोखिम न रहेगा जिसे पाश्चात्य लोग भुगत रहे है। उनने नारी स्वतंत्रता तो प्रस्तुत की पर विकारोन्मूलन के लिए कुछ करना तो दूर उलटे उसे भड़काने में लग गये और दुष्परिणाम भुगत रहे है। हमें यह भूल नहीं करनी चाहिए। हम दृष्टिकोण के परिष्कार के प्रयत्नों को भी नारी स्वतंत्रता आँदोलन के साथ मोड़कर रखे तो निश्चय ही वैसी आशंका न रहेगी जिससे विकृतियों के भड़क पड़ने का विद्रूप उठकर खड़ा हो जाये।

साथ ही हमें आध्यात्मिक काम विज्ञान के उन तथ्यों को सामने लाना होगा जिनके आधार पर यौन सम्बन्ध की-काम क्रीड़ा की उपयोगिता और विभीषिका को समझा जा सके और उसके दुरुपयोग के खतरे से बचने एवं सदुपयोग से लाभान्वित होने के बारे में समुचित ज्ञान सर्वसाधारण को मिल सके। अगले अंक में इसी संदर्भ में कुछ अधिक लिखेंगे।


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