भारत के प्रसिद्ध संगीत शास्त्री श्री विष्णु दिगत्बर पुलुस्कर तब इतने विख्यात नहीं थे। लाहौर में उनका एक कार्यक्रम रख गया। कुछ, उन्हें बहुत कम लोग जानते थे इस कारण, तथा कुछ, प्रचार की कमी के कारण- जब सभा प्रारम्भ हुई तो श्रोता केवल पाँच ही थे।
आयोजन कर्ताओं ने उन पाँचों का पैसा लौटा कर आयोजन रद्द करने का निश्चय प्रगट किया। किन्तु श्री पुलुस्कर जी अपने सिद्धान्त के पक्के थे। वे बोले “ भले ही पाँच श्रोता हों मैं तो अपना कार्यक्रम प्रस्तुत करूंगा ही। इनका क्या दोष है जो इन्हें निराश किया जाय ?” और तब पूरे तीन घन्टे उन्होंने अपना पूर्व निर्धारित कार्यक्रम प्रस्तुत किया।
श्रोता मुग्ध थे और विस्मय विस्फारित नेत्रों से आयोजन देख रहे थे। वे समझ नहीं पा रहे थे कि वे किसी मनुष्य का संगीत सुन रहे है या किसी फरिश्ते का। कार्यक्रम के अन्त में घर लौटे तो उनके संगीत की दर-दर भूरि-भूरि प्रशंसा की। उनके कानों में दिगम्बर पुलुस्कर के संगीत के अतिरिक्त कुछ था ही नहीं से जो भी मिला उससे केवल उस संगीत की ही चर्चा की। दूसरे दिन जब लाहौर के संगीत रसिकों को इस घटना का पता चला तो बड़ी संख्या में लोग पुलुस्कर जी को सुनने के लिये उमड़ पड़े। अब हालत यह भी कि टिकट प्राप्त करने के लिये लाइन लगीं कितनों को तो केवल इसलिये निराश लौट जाना पड़ा कि हाल में जितने लोगों के बैठने की जगह थी आगन्तुक उससे बहुत अधिक थे।