प्रगति के पथ पर अग्रसर हूजिए

March 1971

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ऐसे न जाने कितने व्यवसायी, दुकानदार, मजदूर, कारीगर, अध्यापक व क्लर्क आदि काम करने वाले लोग ..................... को मिलते हैं जिन्होंने अपने काम अपने पद अथवा अपनी स्थिति में रंच मात्र भी उन्नति नहीं की। वे आज भी उसी स्थान, उसी दशा में घिस-घिस करते हुये पड़े है जहाँ पर दस-बीस साल पहले थे। जब कि बहुत से न जाने कहाँ से कहाँ जा पहुँचे हैं। इस उन्नति एवं अनुन्नति के पीछे केवल एक ही कारण काम कर रहा होता है- और वह है उन्नति करने की इच्छा अनिच्छा।

यथा स्थान घिस-घिस करते रहने वालों में उन्नति करने की इच्छा का अभाव रहता है। सच्ची इच्छा में करुणा की शक्ति भरी रहती है। जब मनुष्य एक अच्छी स्थिति पाने, स्थान से आगे बढ़ने, काम को ऊपर उठाने के लिये तड़प उठता है, व्यग्र एवं बेचैन हो जाता है तब उसमें एक लगन जाग उठती है। वह अपनी तरक्की के साधन खोजने उपकरण इकट्ठे करने और मार्ग निकालने के लिए प्रयत्नशील हो उठता है। सच्ची इच्छा, यथार्थ आकाँक्षा से विपरित व्यक्ति रात-दिन, उठते-बैठते, खाते-पी, बात एवं व्यवहार करते समय भी अपने लक्ष्य के प्रति जागरुक रहता है। वह कहीं भी क्यों न हो कुछ भी क्यों न करता हो उसके लक्ष्य की तस्वीर सदैव उसके सामने रहती है। जाग्रत अवस्था में तो वह अपने लक्ष्य के प्रति विचार एवं क्रियाशील रहता ही है, सोते में भी लगनशील व्यक्ति अपने लक्ष्य के ही सपने देखा करता है। अपने लक्ष्य के प्रति ईमानदार व्यक्ति उसके साथ तन-मन से एकाकार हो जाता है।

इच्छा तथा जिज्ञासा जीवन के लक्षण है। जिसमें इच्छा का प्रस्फुटन होता है, जिज्ञासा एवं उत्सुकता का जन्म होता रहता है, नित्य नये कदम बढ़ाने, तरक्की करने की उत्सुकता और नित्य नई बातें सीखने ज्ञान एवं योग्यताएं प्राप्त करने की जिज्ञासा जाग्रत रहती है वह ही यथार्थ रूप में जीवित है। एक स्थान पर पड़े रहना, एक स्थिति में स्थिर रहना, एक ही दशा को स्वीकार किये रहना जड़ता का चिन्ह है। पत्थर पहाड़ आदि जड़ वस्तुयें है। यह जहाँ जिस स्थिति में पड़ जाती हैं, पड़ी रहती हैं। इनमें जीवन तत्व का सर्वथा अभाव होता है। पेड़, पौधे आदि यों तो चेतन की तुलना में जड़ ही माने गये है। पर उनमें जीवन तत्व का प्रभाव नहीं होता। यद्यपि वे एक स्थान से उठकर दूसरे स्थान पर स्वयं नहीं जा सकते तब भी दिन-दिन बढ़ते और विकास करते रहते हैं। नये-नये फूल फल उगाते रहते हैं। पशु यद्यपि चेतन श्रेणी में माने गये है। तथापि वे मानसिक रूप से जड़ ही होते हैं। नैसर्गिक इच्छाओं की प्रेरणा के अतिरिक्त उनमें और किसी प्रकार की इच्छा का स्फुरण नहीं होता। नई कल्पनायें, नये विचार अथवा नूतन जीवन का उनसे कोई परिचय नहीं होता। वे जिस स्थिति में आदिकाल में थे, आज भी उस ही स्थिति में रह रहे है।

अपनी पूर्व स्थिति में यथा स्थान पड़े रहने वाले व्यक्ति एक प्रकार से पशुओं के समान ही मानसिक जड़ता से आक्रान्त रहते हैं। जो काम, जिस श्रेणी में उन्होंने प्रारम्भ किया, उसी प्रकार उसी स्थिति में करते जा रहे है। उसे विकसित करने आगे बढ़ाने, अथवा उसमें कोई वाँछनीय परिवर्तन लाने की जिज्ञासा उनमें होती ही नहीं। वे प्रातः काल उठे, यन्त्रवत अपने आवश्यक नित्य कर्म निपटाये और बिना किसी उल्लास अथवा नई आशा से काम पर चले गये उसी दायरे उसी परिधि में मृतत्व चक्कर लगाया और शाम को वापस आ गये। किसी दिन भी न तो वे कोई नई बात सीखते हैं और न किसी नवीनता का पुट प्रकट करते हैं। कार्य करने की यह रुचि और यह पद्धति घोर मानसिक जड़ता की सूचक है।

ऐसी मानसिक जड़ता के रोगी व्यक्ति ही समाज में स्थगन, अरुचिता तथा अपरूपता को प्रश्रय देने वाले होते हैं। ऐसे ही व्यक्तियों को देख कर अन्य लोग किसी समाज की सभ्यता, असभ्यता, उन्नति अनुन्नति तथा असमानता एवं विषमता का अन्दाजा लगाते हैं, और उसी के अनुसार उसका महत्व एवं मूल्याँकन करते हैं। पुरुषार्थी, परिश्रमी तथा कल्पना शील व्यक्ति समाज में जितने सौंदर्य का अभिवर्धन करते हैं, उसे उस प्रकार के मानसिक जड़ जोग घटा देते हैं। समाज की अवमानना का दोष बहुत कुछ ऐसे ही जीवित मृत लोगों पर रक्खा जा सकता है।

अनुन्नतिशील व्यक्ति की संतानें भी कठिनता से ही इस पैतृक दोष को त्याग कर उन्नतिशील हो पाती है। अन्यथा, वे भी अधिकतर यह मानसिक जड़ता विरासत में पाकर उसकी परम्परा बनाये रखती हैं। इसके लिये उन बेचारों को कोई दोष भी नहीं दिया जा सकता। वे तो स्वभावतः पिता का ही अनुसरण करेंगे। जो कुछ सामने देखेंगे सीखेंगे और जिन संस्कारों को पायेंगे उन्हीं के अनुसार गतिशील होंगे। जिस व्यवसायी के पास कारोबार को आगे बढ़ाने की न तो कल्पना है और न इच्छा, जिज्ञासा वह भला अपने पुत्र को उसकी प्रेरणा दे भी कैसे सकता है ? और यदि पुत्र अपनी किसी मौलिकता को प्रकट करता, कोई परिवर्तन अथवा मोड़ लाने का साहस करता भी है तो उसका असाहसी पिता हानि अथवा बिगाड़ के .......... से उसे निरुत्साह करने में ही बुद्धिमानी समझता है। आगे निकल कर पैर बढ़ा कर परिवर्तन लाकर अथवा खतरा उठाने का साहस दिखला कर व्यवसाय की उन्नति का प्रयत्न करना वह अनियन्त्रित उच्छृंखलता के समान अनुचित एवं अवाँछनीय मानता है। उसे तो उसी अनुन्नत आशा में पड़े रह कर, उसी फटे-पुराने व्यवसाय को उसी प्रकार घिस-घिस कर चलाते रहने में ही सुरक्षा एवं कल्याण दिखाई देता है। आलस्य जन्य तामसी सन्तोष में वह अपनी अध्यात्मिक खूबी समझता है फटा पुराना, गन्दा गलीज मन कर और उल्टा-सीधा, मोटा-झोटा पेट आध पेट खाकर और टूटे-फूटे, मैले-कुचैले साधन शून्य घर में चुपचाप बिना किसी उत्साह उल्लास के जिन्दगी काट डालने में बड़ी बहादुरी समझते हैं। जब कि यह आलस्य एवं ........ जन्य अभाव के अभिशाप के सिवाय तपो त्यागमय ...... आस्था से आभूषित निर्लिप्त एवं निराधार जीवन ........... प्रकार भी नहीं माना जा सकता।

इसके लिये यदि ऐसे निरीह अथवा निस्पृह व्यक्तियों का मनोऽन्वेषण किया जाये तो न जाने इस मरघट में कामनाओं की कितनी सड़ी लाशें, ईर्ष्या, द्वेष, तृष्णा एवं वितृष्णाओं, डाह एवं दुर्भावनाओं के कितने काले विषधर निकल पड़ें। अपने दुर्गुणों के कारण अभाव एवं दयनीयता से ग्रस्त व्यक्ति के अन्तर में भी आध्यात्मिक महनीयता का कोई अंकुर उपज सकता है-यह सर्वथा असम्भव है। उसमें तो कृपणता, कर्कशता, कटुता तथा अप्रकट कुटिलता की ही आशा की जा सकती है। जो अकर्मण्य अथवा असाहसी व्यक्ति अपना लोक नहीं सुधार सकता वह परलोक के सुधार में तत्पर माना जाये यह तो अजीब सी बात है।

मनोमृत अथवा जीवन जड़ मनुष्य अपरुपता एवं असंगतियों के बड़े पोषक होते हैं और उन्हें अपने इस दुर्गुण में संकोच भी नहीं होता। जिस कुरूप दशा में घर हैं उसी में दफ्तर, दुकान अथवा सभी निमन्त्रणों में चले गये। देश काल के अनुसार अपनी दशा सुधारने की जरा भी जरूरत नहीं समझते उन्हें उस स्थान में एक धब्बे की तरह चिपक जाने में जरा भी ग्लानि नहीं होती। पास-पड़ौस आमने-सामने की दुकानें मकान तरक्की कर रहे हैं उन्नत, विकसित एवं सुन्दर होते जा रहे हैं-किन्तु उनके बीच वे एक विजातीय तत्व की तरह विद्रूपता तथा विसंगति को लिये स्थापित है। उन्हें यह सब देखकर भी कुछ परिवर्तन लाने का विकास अथवा सुधार करने का उत्साह नहीं होता। माना उनके साधन की ससीमता और समता उन्हें मजबूर करती है, वे ऊँची- ऊँची अट्टालिकायें बड़े-बड़े सौध प्रासादों का निर्माण नहीं कर सकते किन्तु अपने घर दुकानों को झाड़-बुहार कर लीप पोत कर, झाड़-झंखाड़ और कूड़ा-कर्कट हटाकर, उनकी खपरैल, छप्पर अथवा छानी को व्यवस्थित तथा सहेज सुधार कर साफ सुथरा तथा जुगुप्सा रहित तो बना ही सकते हैं। लेकिन यह उनका तथा उनके सम्बन्धित व्यक्तियों का दुर्भाग्य ही है कि उनकी मानसिक जड़ता की छाप उनके हर अनुबन्ध पर पड़ी रहती है।

वैसे सत्य बात तो यह है कि जब कोई एक व्यक्ति अपने व्यवसाय तथा कारोबार को आगे बढ़ा कर साधन सम्पन्न बन सकता है तब दूसरा क्यों नहीं बन सकता। किन्तु कठिनाई तो यह है कि जड़ात्मा व्यक्तियों में उन्नति की कोई अनुभूति ही नहीं होती। वे तो भाग्य के भरोसे यथा स्थान पड़े-पड़े घिस-घिस ही करते रहते हैं। प्रयत्न शून्य रह कर भाग्य का भरोसा रखने वालों के हिस्से जो दुर्भाग्य नाम का दण्ड निश्चित रहता है वह उन्हें मिलता है। मौलिक रूप से न सही, देखा-देखी ही यदि ऐसे व्यक्ति उन्नति का कुछ प्रयत्न करें, हाथ, पैर हिलाये तब भी तो बहुत कुछ हो सकता है, किन्तु कहाँ ? वे तो अपनी विरुपवृत्ति के बन्दी बने माँस पिंड की तरह बैठे दूसरों की उन्नति एवं विकास को टुकुर-टुकुर देखा और मन ही मन डाह करते रहते हैं।

व्यवसाय छोटा है, दुकान कम चलती है, माल की कमी है-फिर भला तरक्की कैसे हो-यह बहाना कोई अर्थ नहीं रखता। व्यवसाय छोटे से ही बड़ा होता है। दुकान उपयुक्तता के आधार पर ही चलती है, और माल ................... तथा सद्भावना के भरोसे मिलता है। बाजार में जाइये, लोगों से संपर्क करिये, लेन-देन का व्यवहार बढ़ाइये, वचन का पालन करिये और देखिये कि आपको माल की कमी नहीं रहती ! दुकान समय से खोलिये, इच्छा और खरा माल रखिए, उचित दाम लीजिए और ग्राहकों से मित्र एवं विनम्र व्यवहार कीजिए। खुद साफ रहिये दुकान की हर चीज साफ रखिये। आकर्षक ढंग से सजा कर रखिये और वह चीजें अवश्य रखिये जिनकी माँग रहती है और तब देखिये कि आपकी दुकान चलती अथवा आप जो कुछ बेचना चाहें लोग वही खरीदें तो यह नीति उलटी है। आप वह चीजें रखिये जिनकी लोगों को जरूरत है और वह बेचिए जिन्हें ग्राहक खरीदना चाहें। ग्राहकों की आवश्यकता एवं रुचि के साथ साम्य रखने वाला दुकानदार सफल और उसे वैषम्य रखने वाला निश्चित रूप से असफल होता है।

इसी प्रकार मजदूर अध्यापक अथवा क्लर्क के विषय में भी यही बात है। बिना उन्नति की जिज्ञासा जगाये तरक्की नहीं हो सकती। मजदूर को चाहिये कि वह ठेले की तरह ढोने के काम में ही सन्तुष्ट न रहें। अपने काम को इतनी रुचि तत्परता, व्यवस्था तथा सावधानी के साथ करें कि स्पष्ट झलकने लगे कि यह काम पूरे मनोयोग से किया गया है। माल को ठीक से उठाना, यथा स्थान ठीक से रखना कम से कम जगह में अधिक से अधिक माल सजा देना। बिना टेके और बिना रोके समय से अपना पूरा काम करना, मजदूरों का ठेकेदार कर सकते हैं, वेतन तथा पद वृद्धि कर सकते हैं।

प्राइमरी का एक मिडिल पास अध्यापक ट्रेनिंग करके अपनी पदोन्नति कर सकता है इन्ट्रेन्स, एफ.ए, बी.ए. तथा एम.ए. पास करके विद्यालयों व कॉलेजों में जा सकता है। एक से दो विषयों में अधिकार प्राप्त कर अपनी योग्यता बढ़ा सकता है। अपने विषय में पूर्णता प्राप्त कर दूसरों की दृष्टि में ऊपर उठ सकता है। विद्यालय के अन्य कामों में दक्षता प्राप्त कर प्रिंसिपल अथवा प्रधानाचार्य का दाहिना हाथ बन सकता है आदि ऐसी उन्नतियाँ हैं जो कोई भी अध्यापक सहज ही में उपलब्ध कर सकता है।

क्लर्क जैसे सीमित स्थान में भी उन्नति कर सकने की कुछ कम सम्भावनाएँ नहीं हैं। साधारण क्लर्क टाइप सीख कर उपयोगिता बढ़ा सकता है। अपने काउन्टर के अतिरिक्त अन्य स्थानों का काम सीख कर अपना विस्तार कर सकता है। चिट्ठी-पत्री, जानकारी, सूचना, नियमों तथा विषय में निपुणता प्राप्त कर अपने अधिकारियों को निर्भर बना सकता है।

तात्पर्य यह है कि उन्नति का आधार कोई स्थान, पद अथवा अवसर नहीं है उसका आधार है जिज्ञासा, इच्छा नवीनता तथा अखण्ड परिश्रम एवं लगन ! जीवन में यथा स्थान पड़े-पड़े घिस-घिस करते रहना जड़ता का लक्षण है। अपनी उन्नति का प्रयत्न न करना न केवल अपने साथ ही बल्कि पुत्रों तथा समाज के साथ भी अन्याय करना है। समाज की शोभा उसकी सफलता एवं सम्पन्नता हमारी उन्नति एवं विकास पर निर्भर है। अस्तु हम आज जहाँ पर पड़े है। वहाँ से आगे बढ़ने ऊँचे उठने में तन, मन धन भर कोई कसर उठा नहीं रखनी चाहिये।


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