ज्ञान-विज्ञान का मूल देश - भारतवर्ष

March 1971

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“धर्म और विज्ञान में कोई संगति नहीं” - विज्ञान की प्रगति के साथ-साथ धार्मिक अपेक्षाएं समाप्त होती जायेंगी। जिन लोगों ने उक्त धारणायें बना रखी है अगली पंक्तियाँ पढ़कर उन्हें पता चलेगा कि आज संसार में भौतिक विज्ञान से लेकर रसायन शास्त्र, जीव शास्त्र, औषधि शास्त्र, वैमानिकी विद्या, पदार्थ विद्या तक की जो कुछ भी प्रगति दिखाई दे रही है उससे कहीं अधिक समृद्ध भारतीयों की वैज्ञानिक जानकारी रही है। चूँकि आत्मा जीवन का मूल है शरीर नष्ट प्रायः और परिवर्तनशील भाग, इसलिये यहाँ जो आत्म-कल्याण के साधनों को प्रमुखता दी गई तथा शारीरिक और भौतिक सुखों को गौण माना गया वह भारतीय आचार्य की दूरदर्शिता और प्रज्ञा का ही प्रमाण था।

धर्मपाद की पुस्तक “बोधि राजकुमार वत्थु” पुस्तक में एक आख्यायिका आती है। बोधि राजकुमार ने एक कारीगर से महल बनवाया। इस महल की डिजाइन और बनावट इतनी आकर्षक और सुदृढ़ थी कि उस समय के सारे राजा बोधि राजकुमार से ईर्ष्या करने लगे। स्थापत्य और वस्तु कला की दृष्टि से गत शताब्दी तक भारतीय परम्परायें बेजोड़ रही हैं उस जमाने का तो कहना ही क्या, वह हमारी कला प्रगति का चरम-विकास युग था। पाश्चात्य सभ्यता की आँधी को इस देश में घुसने न दिया जाता, तो आज भी हम कला के क्षेत्र में विश्व शिरोमणि रहे होते। दुनिया हमारे पाँव पूजती जबकि आज हमारे देश का शिक्षित नेतृत्व खुद ही अपना गौरव भुलाकर विदेशियों की ओर ताकता है।

बोधि राजकुमार ने सोचा कहीं ऐसा न हो कि यह कारीगर कहीं और जाकर इससे भी अच्छा महल तैयार कर दें इसलिये उन्होंने उसे वहीं बन्दी बनाकर जेल में डाल दिया और निश्चय किया कि उसके हाथ कटवा दिये जायें। यह व्यक्तित्व महत्वाकांक्षा ही इस राष्ट्र के लिये घातक बनी यदि उसे रोका गया होता तो सम्भवतः इस देश को पराधीनता का मुँह देखना न पड़ता। दुःख है कि राजनीति की जिन भूलों के कारण यह देश पहले गुलाम बना था वह महत्वकांक्षाएं आज भी शासन-तन्त्र को गुमराह कर रही है उसे रोकने का साहस हमारी स्वाभिमानी प्रजा को करना ही पड़ेगा।

कारीगर ने अपने एक मित्र के द्वारा अपनी स्त्री के पास खबर भेजी कि वह अपनी सारी सम्पत्ति बेचकर पुत्रों सहित मिले के लिए राजा से विनय करें। इस बीच उसने स्वयं बन्दी होकर भी राजा से प्रार्थना की कि यदि से यन्त्र दिये जायें तो वह हाथ कटाने से पूर्व राजा को एक अद्भुत वस्तु भेंट कर सकता है। राजा ने बात मान ली। इस बीच उसने एक सुन्दर गरुड़ यन्त्र (हैलिकाप्टर) तैयार किया। उधर उसकी पत्नी ने पति की आज्ञानुसार स्थायी सम्पत्ति बेच दी और अपने पुत्रों को लेकर राजा के पास गई और अपने पति से बन्दीगृह में ही भेंट करने की प्रार्थना की। राजा ने स्वीकृति देदी। इसके बाद “बोधि राजकुमार वत्थु’ में लिखा है-पुत्र दारुमरुस सकुनस्स कुच्छियं निसीदयित्व वातपातेन निक्सनित्वा पलायि” अर्थात् कारीगर ने अपनी धर्म पत्नी और बच्चों को उस गरुड़ यन्त्र में बैठाया और बन्दीगृह से पलायन कर गया। राजा के सिपाही देखते ही रह गये वह जाकर नेपाल में रहने लगा।

भारद्वाज ऋषि कृत, ‘अंशु-बोधिनी’ पुस्तक के 28वें प्रकरण “वैमानिकी प्रकरण” में विमान विद्या से सम्बन्धित अनेक सूक्ष्म और प्रामाणिक तथ्यों का उल्लेख है। यदि प्राचीन संस्कृत वाङ्मय पर शोध की जाये और इन सूत्रों के आधार पर विज्ञान को एक नई दिशा दी जाये तो हमारे देश के वैज्ञानिक आज जो विदेशियों के ज्ञान के आधार पर अपनी जानकारियाँ बढ़ाते हैं वह कुछ ही समय में विज्ञान के आश्चर्यजनक रहस्यों की खोज करके भारत को महान् वैज्ञानिक प्रतिष्ठा प्रदान कर सकते हैं इस पुस्तक के यह अंश उसी का प्रमाण हैं -

शक्त्युग्दमों भूतवाहो घूमयानश्शिखेद्गमः अंशु वाह................... मुखो मणिवाहो मरुतखः। इत्पष्टकाधिकरणे वर्गाष्यु...... शास्त्रतः।

आठ प्रकार से चलने वाले विमान आकाश में चलते है- (1) शैत्युद्गमौ अर्थात् विद्युत से चलने वाले। (2) ............... अर्थात् जो अग्नि, वायु, जल आदि ईंधनों से चलते हैं। (3) धूमयान अर्थात् भाप सये चलने वो। (4) शिखोद्गम अर्थात् पंचशिखी तेल से चलने वाले। (5) अंशुवाह तारामुखो या जो विभिन्न ताराओं में जाया करते थे जो सूर्य की ऊर्जा से संचालित होते हैं। (6) उल्कारस ............. चुम्बक शक्ति। (7) मणियों की शक्ति से चलने वाले तथा (8) जो केवल वायु की शक्ति से चलते थे ................ आठ प्रकार के विमान थे। इस प्रकरण में ............. को ऊपर किस गति से ले जाना चाहिए, आकाश ................ अर्थात् बादल, बिजली, उल्का आदि से किस ................. किन यन्त्रों से रक्षा की जानी चाहिए इन सब बातों के साथ यह भी बताया है कि किसी भी ग्रह में उतरने से पहले उसकी परिक्रमा की जाये फिर उतरते समय .............. सावधानी रखी जाये आदि आदि। यह सब पढ़ने से .............. लगता है कि आज जो जर्मनी, अमरीका और रूस ............... उन्नति कर रहे है उस सबका आधार हमारे यहाँ ............... जर्मनी ले जाया गया अथर्ववेद ही है। हमारे ............ में होने के कारण अभी पाश्चात्य देशवासी सारे .................. नहीं पाते इसीलिए उन्हें लम्बे परीक्षणों के दौर ............. पड़ता है। हमारे लिये तो वह सारा मसाला ............. खोज की जाये रिंच और ढिभरी जैसे साधारण ....................... उनकी बनावट आदि के विस्तृत उल्लेखों वाला ................... हमारे यहाँ अभी भी सुरक्षित है आवश्यकता केवल ............. इकट्ठा करने और उस पर शोध करने की है। कुछ ................ अमृत बाजार पत्रिका ने इस आशय का एक लेख ..................... बताया था कि हैदराबाद के पत्थर घाटी नाम .................. डॉ. सैयद मुहम्मद कासिम जिनके पुरखे कभी ............ मौलवी रहे हैं उनके पास इस तरह के साहित्य ............... भण्डार सुरक्षित है। खोज की जाये तो सारे .............. ऐसी पाण्डुलिपियाँ आज भी सुरक्षित मिल सकती है।

विमान ही नहीं अन्य क्षेत्रों में भी भारत का विज्ञान उल्लेखनीय प्रगति पर था। ब्रह्माण्ड विकास की जानकारी के लेख अखण्ड-ज्योति में पहले छप चुके है। प्रकाश की गति की जानकारी सर्व प्रथम 1675 में रोमर ने की थी इसके बाद 1925 में “माइकल सन” ने गणितीय सूत्रों के आधार पर प्रकाश की गति 186864 मील प्रति सेकेण्ड निकाला। यह जानकारियाँ बहुत हाल की हैं भारतीय ग्रन्थों का अवलोकन करते हुए हम मुनि आत्रेय की भागवत पढ़ते हैं तो उसमें प्रकाश की गति का मान निकालने वाली इकाइयाँ मिलती हैं। उनसे प्रकाश की गति 187670 मील प्रति सेकेण्ड निकलती है। इस मान में और आज के मान में कोई बड़ा अन्तर नहीं है सम्भव है आज के वैज्ञानिक कई ऐसी भूलें करते हों जो तब भी हमारे यहाँ के आचार्यों को ज्ञात रही हों और हमारे मानक ही सही हों जो भी हो इतना तो निश्चित ही है कि हमारी पहले की जानकारियाँ अत्याधुनिक थी। इन सारी जानकारियों के आधार पर ही हमारे यहाँ “आत्मा” और ब्रह्म जैसे सूक्ष्म तत्वों का ज्ञान प्राप्त किया गया है जबकि आज का विज्ञान इनका उपयोग इन्द्रिय सुख और भौतिक महत्वाकांक्षाओं में नियोजित करके मानवीय कल्याण को दिग्भ्रमित करने में लगा हुआ है। विज्ञान का सर्वोत्तम उपयोग लौकिक सुखों की अभिवृद्धि नहीं अपितु अमरत्व प्रदान करना और साँसारिक भयों से मुक्ति प्रदान करना है।

पाक्र, डैविस की पाँच पीढ़ियों ने केवल चिकित्सा शास्त्र पर क्रमबद्ध अनुसन्धान किये हैं। उसने भारतीय चिकित्सा पद्धति को आधुनिकतम बताते हुए लिखा है कि यहाँ शल्य (आपरेशन) चिकित्सा तक का अच्छा ज्ञान था। सुश्रुत को इस देश का महान सर्जन मानकर उनका एक कल्पना चित्र बनाकर प्रसारित भी किया। यह चित्र रीडर्स डाइजेस्ट के एक अंक में छपा भी था। पाक्र डेविस ने आचार्य सुश्रुत को ने केवल एक महान डाक्टर माना वरन् यह भी स्वीकार किया है कि उनकी औषधियाँ और चिकित्सा पद्धति ने सारे विश्व को प्रभावित किया।

यह सुश्रुत ही है जिन्होंने सर्व प्रथम शरीर के भीतरी अंगों की बनावट का वर्णन किया है। सुश्रुत संहिता में उन्होंने बताया है-शरीर में 900 संधियाँ, 700 रक्त वाहनियाँ, 500 माँस पेशियाँ, 300 हड्डियाँ है। 300 अर्थात् नलिका जो आधुनिक चिकित्सा जगत में पूर्ण रूप से खोजी भी नहीं जा सकी उनका ज्ञान सुश्रुत को था उन्होंने इनके लिए ‘रसकुल्पा’ अर्थात् रस स्रावित करने वाली नाम दिया है। सुश्रुत संहिता में 101 अस्त्रों का भी उल्लेख है और उन औषधियों का भी वर्णन है जो किसी अंग को सुन्न करने और आपरेशन के बाद “एण्टी सेप्टिक” के रूप में दी जाने में प्रयुक्त होती थी।

एक बार आश्रम के किसी लड़के ने खेलते समय धातु का कोई टुकड़ा निगल गया। वह टुकड़ा आँतों में जाकर अटक गया और कष्ट देने लगा। टुकड़े को आपरेशन करके निकालने में चुम्बक का प्रयोग करके उसे बाहर निकाला गया। यह घटना इस बात की प्रमाण है कि उस समय चिकित्सा पद्धति में चुम्बक का भी प्रयोग होता था।

कर्नल अल्कार ने भारतीय ग्रन्थों का अवलोकन करने के बाद लिखा है कि आज जिन बातों की हमारे वैज्ञानिक कल्पना भी नहीं कर सकते ऐसी अस्त्र विद्या-भारतीयों के पास थी। उन्हें विभिन्न गैसों का ज्ञान था हाइड्रोजन बमों का निर्माण भारतवर्ष में हुआ है। प्रोफेसर बिल्सन ने तो यहाँ तक लिख है- “राकेट भारतीय आविष्कार लगते हैं आज उनकी केवल नकल हो रही है।”

शुक्रनीति में जिस बन्दूक और उसमें गोला भरकर दागने का उल्लेख है वह आजकल की बन्दूकों से किसी भी स्थिति में खराब न रही होगी उसका प्रमाण-

नालीके द्विविध ज्ञेयं वृहत्क्षुद्रविभेदतः। तिर्यगूर्ध्वयुतं छिद्रं नालं पंचवितस्तिकम्॥ मूलाग्रयो लक्ष्यिभेदि तिल बिन्दु युतं सदा। यन्त्राघाताग्नि कृद्ग्राव चूर्ण धृर्क्कण मूलकम्॥ प्रबाह्यं शकटाद्यैस्तु सुयुतं विजयप्रदम्॥ -शुक्रनीति अ॰ 4

इन पंक्तियों में बन्दूक की सारी रचना व बारूद का वर्णन है। कई बनावटें तो ऐसी मिलती-जुलती है जैसा कि ऊपर बन्दूक की ‘ओर साई’ का वर्णन है आज की बन्दूक से हू-बहू मिलता है इससे लगता है आज का विज्ञान हमारे यहाँ से ले जाये गये ग्रन्थों का ही परिणाम है। आज जब कि अपना सारा देश दूसरों के प्रयोगों की नकल करके आगे बढ़ना चाहता है तथा यह कहना भूल नहीं होगी कि यदि हम अपने ही उपलब्ध ज्ञान को एक नई दिशा दे सके होते तो अध्यात्म ही नहीं भौतिक विज्ञान की दृष्टि से उन्नति के पथ पर तेजी से अग्रसर हो गये होते। हमें आगे यही करना है। अपने देश की वैज्ञानिक प्रतिभाओं को शोध के लिये अपनी ही तरह का ज्ञान प्रस्तुत करना है ताकि हम विज्ञान के क्षेत्र में दुनिया के देशों के पछाड़ सकें। और यह बता सकें धार्मिक लोग पूजा उपासना करना ही नहीं जानते वरन् आर्थिक औद्योगिक व वैज्ञानिक क्षेत्र में आगे बढ़कर सर्व शक्तिमत्ता की अभिव्यक्ति भी अच्छी तरह जानते हैं।

एक अँग्रेजी युवती ने इटली से एक कीमती घड़ी खरीदी। इंग्लैंड आने पर उसे ज्ञात हुआ कि घड़ी की कीमत कम है। उसे धोखा दिया गया है- ठग लिया गया। युवती ने इटली के तात्कालिक अधिनायक मुसोलिनी को पत्र लिखा जिसमें ठगी का पूर्ण उल्लेख था। लौटती डाक से ही उसे मुसोलिनी का पत्र मिला जिसमें उक्त धोखा देही के लिए क्षमा प्रार्थना की गई थी। साथ ही क्षति पूर्ति के पैसे भी मिल गये।

इसके पश्चात् घड़ी के व्यापारी का पत्र उक्त युवती को प्राप्त हुआ जिसमें लिखा था ‘अपनी गलती के लिए हम हृदय से क्षमा चाहते हैं।’ व्यापार में अनीति के कारण हमारी दुकान सील बन्द करदी गई है। आप सिफारिशी पत्र लिख दें तभी फिर खुल सकती है। युवती ने पत्र लिखा दिया। पर राष्ट्र का चरित्र ऐसे ही सुरक्षित रखा जाता है।


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