एक गाँव के बीच से होकर एक बैरागी महात्मा चले जा रहे थे। रास्ते के एक घर में स्त्री-पुरुष के बीच उन्होंने एक लड़ाई होते देखी। यह देखकर सन्त जी चुपचाप खड़े हो गये। पुरुष कह रहा था- ‘मैं तो जाऊँगा और काशी जाकर गंगा स्नान करने के बाद विश्वनाथ जी का पूजन करता हुआ ईश्वर को प्राप्त कर लूँगा। तेरे साथ रहने में मेरी इतनी आयु बेकार चली गई। मेरे बिना तेरा जो हाल होगा सो देखना।’ स्त्री बोली- मैं भी यहाँ रहने वाली नहीं। तुमसे पहले वृन्दावन को चली जाऊँगी, जहाँ मीरा ने अपने गिरिधर गोपाल को पाया था। वहीं जाकर मैं भी यमुना जी में स्नान करती हुई श्रीकृष्ण भगवान का दर्शन करूंगी। मेरे बिना भी तुम्हें जो अड़चने पड़ेंगी, सो देखना।’
बाहर खड़े महात्मा ने उन दोनों को बुलाकर पूछा- ‘तुम दोनों क्यों लड़ रहे हो ?’ दोनों ने अपनी-अपनी बात कह सुनाई महात्मा जी व्यवहार तथा परमार्थ में भी कुशल थे। इसलिये उन्होंने दोनों को एक ही उत्तर दिया- ‘तुम दोनों का लड़ाने वाला तुममें से एक दूसरे काम नहीं हैं। और वह मन तुम जहाँ जाओ, वहाँ साथ रहेगा। इसलिये वहाँ जाकर भी तुम दोनों के मन की लड़ाई होती ही रहेगी। आखिर वहाँ जाकर जब मूर्तियों का पूजन करके ईश्वर को प्राप्त करना ही तुम्हारा अभीष्ट है न ? तो क्या तुम दोनों की मूर्ति ही ईश्वर जैसी नहीं है ? अरे, उससे भी अधिक अच्छी है। क्योंकि तुम्हारे में चेतना स्फुरित हो रही है और वह तो एकदम जड़ पत्थर की मूर्ति है। तुम्हारी आँखों में क्या ईश्वरी आनन्द नहीं झलक रहा है ? जाओ, घर में जाओ और आज से तुम परस्पर एक दूसरे को ईश्वर की मूर्ति मानकर पूजो। ऐसा करने से तुममें अब कभी लड़ाई ने होगी और तुम्हारा गृहस्थाश्रम संन्यासाश्रम की बराबरी करेगा।’ उन दोनों ने वैसा ही किया और सुखी हुये।
एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति।
एकं सन्तं बहुधा कल्पयन्ति॥
ब्राह्मण अनेक नामों से पुकारते, अनेक रूपों में कल्पना करते वह परमेश्वर एक ही है।