स्वप्न द्वारा मन का आत्मा से मेल-मिलाप

June 1971

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

रेडियो की सुई 340 किलो साइकिल्स पर लगाते ही हमारा रेडियो- रेडियो स्टेशन दिल्ली की शब्द तरंगें पकड़ने लगता है ऐसा इसलिए हुआ कि छोटे से रेडियो की विद्युत का रेडियो स्टेशन की विद्युत से सम्बन्ध जुड़ गया है। मन और आत्मा भी ऐसी ही दो छोटी और बड़ी विद्युत शक्तियाँ हैं। केनोपनिषद में मन को विद्युत कहा है- यन्मनः सहा इन्द्रः (गो0 उ॰ 4।11) में भी मन का विद्युत शक्ति कहा है। विद्युत का वेग एक सेकेंड में सवा लाख मील तक का है यही बात ऋग्वेद के 10।58 सूत्र के 1 से 11 मन्त्रों में देते हुए बताया है ‘यत् ते विश्वमिदं जगन्मनो जगाम् दूरकम् यत् ते पराः पारवतो मनो जगाम दूरकम्’- अर्थात् यह मन संसार के एक कोने से दूसरे कोने तक क्षण भर में पहुँच जाता है।

अखण्ड-ज्योति के पिछले अंकों में अमेरिका (शिकागो) के टेडसेरियस और जोहान्स द्वारा हजारों लाखों मील दूर और सैंकड़ों वर्ष हुई घटनाओं के कल्पना चित्र हू-ब-हू उतार देने का जिक्र किया है वह इस बात का प्रमाण है कि मन अपने तक सीमित क्षेत्र में ब्रह्मांड के प्रकाश-वर्षों की सीमाएं नाप सकने में समर्थ है वैदिक व्याख्यान माला में मन का “प्रचण्ड वेग” नामक प्रवचन में पंडित दामोदर सातवलेकर जी ने एक घटना का वर्णन किया है वह इस तथ्य का प्रकट करती है कि हम यदि ध्यान और विविध योग साधनाओं द्वारा अपने मन को सूक्ष्म पवित्र और नियंत्रित कर सकें तो वेद के अनुसार संसार के किसी भी क्षेत्र में होने वाली गतिविधि को संजय की दिव्य दृष्टि की तरह देख सकते हैं।

पं0 सातवलेकर जी लिखते हैं- वर्धा की अँग्रेजी पाठशाला में म॰ गोविन्द राव बावले अध्यापन का कार्य करते थे। उनकी धर्म-पत्नी चन्द्राबाई अपने बच्चे कमल के साथ सतारा जिले के ग्राम औंध अपने पिता के घर गईं थी। 1918 का अक्टूबर मास उन्होंने पति को चिट्ठी लिखी जिसमें लिखा कि मैं अमुक दिन वर्धा पहुँच रही हूँ। सामान्य अवस्था में श्री बावले का पत्नी की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं था पर जब उनके आने की बात पता चला तो स्वभावतः प्रेम और मिलन की इच्छा उत्पन्न हुई। यही बात उनकी पत्नी के मन में भी हुई दोनों एक दूसरे का ध्यान और स्मरण करने लगे। ध्यान दो मनों को जोड़ता है, यही उसकी वैज्ञानिकता है गायत्री उपासक सूर्य का ध्यान करने से मेधा बुद्धि, प्रज्ञा आत्म-बल, शक्ति, शरीर में लाल कणों की वृद्धि, आरोग्य और दूसरों के मन की आने वाली घटनाओं के पूर्वाभास पाने लगता है उसका भी यही कारण है कि सविता--सूर्य सारे सौर मंडल का नियामक है उसके लिए सौर मंडल का कोई भी क्षेत्र समय, गति और अपने ब्रह्मांड से परे नहीं। उसका प्रकाश समस्त सौर मंडल को आवृत किये है इसलिए वह सभी क्षेत्र की गतिविधियों को एक ही दृश्य में देखता है बुध उसके सबसे पास 36000000 मील की दूरी पर है हम पृथ्वी वासी उसी को देखना चाहें तो बड़ी बड़ी दूरदर्शी मशीनों की आवश्यकता होगी पर उसके लिए तो बुध से भी 800 गुना अधिक दूरी वाला नेपच्यून भी ऐसे ही हैं जैसे परिवार के बच्चे। पर जब कोई व्यक्ति ध्यान द्वारा सूर्य को अपने अन्दर धारण करने लगता है तो उसकी मानसिक शक्ति आत्मिक व्यापकता में परिणत होने लगती है। यह घटना उसका उदाहरण है।

एक दूसरे को याद करने और मिलन की सुखद कल्पनाओं का क्रम दो तीन दिन तक चला एक दिन चला एक दिन एकाएक श्री बावले जी के मन में अनायास भयानक उदासी छा गई और उदासी बढ़ती गई। मित्रों के समझाने का भी कुछ असर न हुआ जबकि न तो कोई अशुभ पत्र आया था न अशुभ संवाद। उनका मन रह-रहकर औंध (सतारा) जाने के व्याकुल हो उठता। यदि उनका मन अत्यन्त निरामय और सूक्ष्म होता तो वह सारी बातें जो व्याकुलता के रूप में व्यक्त हो रहीं थीं तभी जान लेते पर ऐसा न हुआ। रात सोने पर उन्हें ऐसा लगा पत्नी कह रही हैं- आप आकर मुझे ले जाते तो क्यों ऐसा होता, अब जा रही हूं, रात में स्वप्न में मिला यह संकेत कितना स्पष्ट था यह उन्हें तब मालूम पड़ा जब अत्यधिक बेचैनी के कारण वे स्थिति सहन न कर सके और अपनी ससुराल गये वहाँ उन्होंने अपनी पत्नी को मृत पाया।

मन सामान्य स्थिति में अपने शरीर अपने विषयों के सुखों तक सीमित रहते रहते इतना स्थूल और संकीर्ण हो गया है कि वह दूरदर्शी घटनाओं का दृश्य और अनुभूति तो दूर, विचार और कल्पना भी नहीं कर पाता पर स्वप्न की अवस्था में उसके इन्द्रियों आदि के विषय सिमट कर आत्मभूत हो जाते हैं भले ही स्वप्न में अधिकाँश समय मन की कल्पनायें प्रधान रहती हों पर रात के किसी भी क्षण यदि वह आत्मा की ‘फ्रीक्वेंसी’ पर पहुँच जाता है तो व्यापक क्षेत्र की अनुभूतियाँ प्राप्त कर लेता है स्वप्नों का भविष्य में सत्य होना उसका स्पष्ट प्रमाण है। “सखाइवल आफ मैन” पुस्तक के पेज 112 में सर ओलिवर लाज ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि कोई माध्यम है अवश्य जिसके कारण अलौकिक ज्ञान हम तक पहुँचता है भले ही हम उसे न जान पाते हों उन्होंने इसी पुस्तक के 106-107 पेज में अपने कथन की पुष्टि में एक घटना भी दी है वह यों है- दृष्टि

पादरी इ॰ के इलियट अटलाँटिक समुद्र पर समुद्री यात्रा में थे 14 जनवरी 1887 की रात उन्होंने एक स्वप्न देखा कि उनके चाचा का पत्र आया है जिसमें छोटे भाई की मृत्यु की सूचना है। उन्होंने अपनी डायरी में इस घटना का वर्णन करते हुये लिखा है कि मैंने जब स्विट्जरलैंड छोड़ा तब भाई को सामान्य बुखार था पर वह मर जायेगा इसकी तो मन में कल्पना भी न आई थी, पर मैं जब इंग्लैण्ड पहुंचा तो मुझे जो सूचना मिली वह बिलकुल वही और वैसी ही थी जैसी समुद्र में स्वप्न में देखी थी इसका कारण परोक्ष दर्शन (क्लेयर वायेंस) के अतिरिक्त क्या हो सकता है ?

इस सम्बन्ध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विज्ञान समस्त जानकारियां हमारे भारतीय आचार्यों, योगियों तथा तत्वदर्शियों की है। मांडूक्योपनिषद् में बताया है- स्वप्न स्थानाहुन्तः प्रज्ञः सप्ताँग एकोनविंशति मुखः प्रविविक्त भुक् तैजसो द्वितीयः पादः स्वप्न स्थान स्तैजस उकारो द्वितीया मात्रोत्कर्षादुभयत्वा द्वोर्त्कषति ह वै ज्ञान संततिं समानश्च भवति ॥ 10 ॥

अर्थात्-स्वप्न अवस्था में मन जाता है तब उसकी प्रज्ञा बुद्धि अन्दर ही काम करने लगती है और वह आत्मा रूप हो जाता है। इस समय इसके सात अंग (अर्थात् पांचों तत्वों की सूक्ष्म अवस्थायें या सूक्ष्म शरीर अहंकार और महत्तत्व), उन्नीस मुख (7 ज्ञानेन्द्रियां, 7 कर्मेन्द्रियां तथा पांच प्राण) भी उसी में लीन हो जाते हैं जिनसे आत्मा शरीर के समान ही संसार का भोग करता है। यह आत्मा का तेजस द्वितीय पाद है अर्थात् यह जागृति और सुषुप्ति के बीच की अंतर्दशा है उसकी अनुभूति आत्म तत्व की खोज में बड़ी सहायक हो सकती है।

शास्त्रों में सूर्य को इस जगत का आत्मा का है। आत्म पूजितोपनिषद में-”सूर्यात्म कत्वं दीपः” अर्थात्- सूर्यात्मकता ही दीप या सूर्य तेज में मन के विलय की स्थिति ही आत्म-साक्षात्कार ह। समस्त सूर्य मंडल एक प्रकार से सूर्य की प्रकाश-तरंगों का विद्युत् सागर है। देखने में ऐसा लगता है कि आकाश पोला और अँधेरा है पर यह बात सन् 1800 में ही यूरेनस की खोज करने वाले वैज्ञानिक लियम दर्शल ने बता दी थी कि अन्धकार नाम की कोई सत्ता संसार में है ही नहीं कण-कण में प्रकाश घुला हुआ है भले ही हमारी बाह्य आँखें उसे न देख पाती हों। अँधेरे में फोटो “फिल्में” धोने का आविष्कार इसी वैज्ञानिक सिद्धाँत पर आधारित है फिर भी हम उस सर्वव्यापी प्रकाशवान् विद्युत् आत्मा की अनुभूति क्यों नहीं कर पाते उसका कारण है कि उसी माप, पवित्रता, प्रकाश पूर्णता, शुद्धता और तत्व की विद्युत् हमारे पास नहीं हमारा मन दूषित रहता है। अस्पष्ट स्वप्न, स्वप्नों में भय और विकार इसी बात के प्रतीक है कि हमारा मन अस्त-व्यस्त, अपवित्र है ऐसे बुरे स्वप्नों का कारण-

यस्त्वा स्वप्नेन तमसा मोहयित्वा निपद्यते।

अर्थात्- हमारे अज्ञान और पाप-मन के कारण दुःस्वप्न आते हैं। उनके परिहार का कारण बताते हुए ऋषि लिखते है-

स्वप्नं सुप्त्वा यदि पश्यसि पापं। पर्यावर्ते दुःष्वप्नात्पापत्स्वप्न्याद भूत्या। ब्रह्माहमंतरं कृण्वे परा स्वप्नमुखाः शुचः॥

अर्थात्- यदि स्वप्न में बुरे भाव आते हैं तो उन्हें अज्ञान, पाप और आपत्ति सूचक समझ कर उनके परिष्कार के लिए ब्रह्म की उपासना करनी चाहिये जिससे मन के अंदर सतोगुण की वृद्धि होकर अच्छे स्वप्न दिखाई देने लगे और आत्मा की अनुभूति होने लगे।

ऊपर दी शास्त्रीय व्याख्याएं अब वैज्ञानिक सत्यता की आरे अग्रसर हो रही है इसलिए आत्मा की शोध, स्वप्न परिष्कार और विकास के विज्ञान की संभावनायें भी बढ़ चली है सत्य स्वप्नों की क्षणिक अनुभूति का कारण मन का शरीर में आत्मा के प्रतिनिधि सुषुम्ना शीर्षक में पात या मिलाप है। जागृत अवस्था में शरीर और मन का नियंत्रण मस्तिष्क से होता है। मस्तिष्क के उभरे हुये भाग को “गायराई” कहते हैं दो “गायराई” के बीच एक दरार होती है इसे “सलकस” होता है इसे केन्द्रीय (सेन्ट्रल सलकस) कहते हैं इसी के सामने गायरस में सारे शरीर को आज्ञा देने वाले कोष होते हैं। इन कोषों का शरीर की हर क्रिया पर नियन्त्रण होता है। आने वाली नसें (इफरेन्ट नर्व्स) सूचना लाती और जाने वाली (इफरेन्टे सूचना ले जाती है। जटिल से जटिल समस्यायें यह कोष ही सुलझाते हैं किन्तु जब मनुष्य सो जाता है तब सुषुम्ना के अनद का ‘ग्रे मेटर’ मस्तिष्क जैसे कार्य करने लगता है उस समय मस्तिष्क को इन सूचनाओं से अवगत रहना आवश्यक नहीं उदाहरण के लिये सोते हुये मनुष्य के शरीर पर मक्खी बैठे तो हाथ उसे हटा देगा पर जागने पर मस्तिष्क को उसका ज्ञान नहीं होगा क्योंकि यह कार्य सुषुम्ना ने किया। सुषुम्ना इड़ा और पिंगला (इड़ा- बाँई नाड़ी है जिससे सारे शरीर के बाँये अंगों को नाड़ियां जाती है।) पिंगला- दाँई नाडी है जिससे सारे दायें अंगों को नाड़ियाँ जाती है योग शास्त्रों में 72864 नाड़ियाँ बताई है। के मध्य की स्थिति अर्थात् ऋण व धन दोनों विद्युत् कणों का-या विद्युतीय अवस्था है वह इनसे सम्बन्ध रखती है पर उसका मुख्य सम्बन्ध आकाश से है। इसमें आकाश की सी ही पोलाई और वहीं द्रव्य प्रकाशवान् है इसे ही वह सुई कह सकते हैं जो सूर्योत्मकता आकाश या ब्रह्माण्ड के रहस्यों से मन का सम्बन्ध जोड़कर उसे व्यापक बनाती है। आत्मा से सम्बन्ध जोड़ती है। गायत्री उपासना या योग-साधनाओं से नाड़ी शोधन क्रिया होती है शुद्ध हुई सुषुम्ना में मन का प्रवाहित होना ही दिव्य स्वप्न दिखाता है उस समय एक विराट क्षेत्र में हमारी चेतना तैर रही होती है इसीलिये दिव्य आकृतियाँ, ग्रह नक्षत्र, पर्वत नदी, हरे-भरे स्थान दिखाई देते हैं। हमारे संस्कारों में अनेक जन्मों की स्मृतियाँ होने के कारण मन की चंचलता रेडियो की खड़खड़ाहट की तरह तब भी रहती है पर इन अनुभूतियों का लाभ कठिन परिस्थितियों में भी निरन्तर आत्म-विकास की और उन्मुख रहने में लिया जा सकता है।

स्वप्नों का सत्य होना उसके स्पष्ट प्रमाण है वैसे प्रमाण सैंकड़ोँ संग्रहित है वह अखण्ड ज्योति में पहले भी छपे आगे भी छपते रहेंगे पर उनकी सार्थकता तभी है जबकि हम आत्मा की प्राप्ति में मन के महत्व को समझें और उसे शुद्ध पवित्र बनाने के संकल्प और साधनाओं का अभ्यास करें।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118