संसार में ऐसे लोग भी दिखलाई देते हैं जो निकृष्ट कोटि के होने पर भी समुन्नत और सम्पन्न बने हुए है। किन्तु इन उदाहरणों से उत्कृष्टता का महत्व नहीं घट जाता। निकृष्टता कितनी ही सम्पन्न और धन वैभव से भरी क्यों न हो साधारण स्थिति में रह रही उत्कृष्टता के सम्मुख टिक नहीं सकती। मनुष्य एक महान व्यक्तित्व है उसका सबसे पहला लक्ष्य उत्कृष्टता ही है बाद में धन, दौलत और पद प्रतिष्ठा। उत्कृष्टता मनुष्यता का भाव-पर्यायी है। जिसने लोभ, लालच अथवा अयोग्य उदाहरणों से प्रेरित होकर उत्कृष्टता का परित्याग कर दिया उसने फिर अपने पास रखा ही क्या ? मनुष्य यदि मनुष्यता से रीत होकर भौतिक विभूतियों से सम्पन्न हो जाये तो क्या वह आशा कर सकता है कि उसे मनुष्य सम्बोधन से ही बुलाया जाये। निकृष्ट व्यक्ति भले ही आकार प्रकार और सूरत शकल में मनुष्य दीखता हो किन्तु वस्तुतः वह मनुष्य न होकर कुछ और ही होता है।
भौतिक विभूतियों को प्राप्त करने के लोभ में जो दिव्य तत्व उत्कृष्टता का त्याग कर देता है, वह उस मनुष्य की तर ही मूर्ख माना जाएगा जो रंगीन कांच के लोभ में हीरे मोती का त्याग कर देता है। कहां तो छाया की तरह चंचल, बादल की तरह अस्थिर और नश्वरता के दोष से दूषित भौतिक विभूतियां, जिसका भावाभाव दोनों ही दुःखदायी होते हैं और कहां मन, बुद्धि और आत्मा के साथ समग्र व्यक्तित्व को तेजस्वी बना देने वाली उत्कृष्टता। इतना अन्तर होते हुए भी जो उत्कृष्टता की अपेक्षा भौतिक विभूतियों को अधिक महत्व देकर निकृष्टतम बन जाने को तैयार है उसकी बुद्धि, भाग्य और भविष्य पर तरस ही खाना पड़ेगा। भौतिक विभूतियों और लौकिक सम्पदाओं का भी अपना एक महत्व है किंतु उसी सीमा तक जिस सीमा तक उनकी प्राप्ति का प्रयत्न और उपलब्धि मनुष्य की उत्कृष्टता को प्रभावित न कर पाये। जिस बिन्दु से भौतिक विभूतियों और लौकिक सम्पदाओं की ऐषणा उत्कृष्टता को प्रभावित करने लग जाएं वहीं से वे सर्वथा त्याज्य बन जाती है।
निकृष्टता की तुलना में उत्कृष्टता का गौरव न कभी कम हुआ है और न आगे होगा। उत्कृष्ट तथा महानुभाव लोग कितनी ही विषम तथा विपन्न परिस्थिति में क्यों न सन्तोष किये हों तब भी वे उस निकृष्ट की तुलना में संसार में सम्मानित और आदृत बने रहेंगे जिसने असत् मार्गों तथा उपायों द्वारा ढेरों धन दौलत इकट्ठी कर रखी है। संसार में दुष्टता और धूर्तता कितनी ही बढ़ जाये और सज्जनों का जीवन कितना ही कठिन क्यों न हो जाये तथापि यह युग-प्रभाव अधिक दिन नहीं ठहर सकता। अन्ततः उत्कृष्टता को ही स्थिरता और सफलता का श्रेय मिलेगा। संसार की सद्-सम्पत्तियों पर उसी का अधिकार होगा और उसी का अधिकार होगा और उसी की जीत का शंखनाद गूंजेगा।
निकृष्टता तथा दुष्टता की आयु अधिक नहीं होती। तथापि उत्कृष्टता की परीक्षा के लिये उसको भी संसार में आने का अवसर दिया जाता है। कमजोर और संदिग्ध व्यक्तियों को धोखे में डालने के लिए वह ज्वार की तरह बढ़कर आसमान छूने लगती है किन्तु कुछ ही समय बाद भाटे की तरह उतर कर भूमिसात् हो जाती है। निर्बल अथवा संदिग्ध व्यक्ति उसके उस उफान को देखकर विचलित हो उठते हैं और भाटे की प्रतीक्षा किये बिना ही अधीर होकर समुन्नति का साधन मानकर निकृष्टता की नीति अपना लेते हैं। निकृष्टता के आधार पर सम्पन्न बनते लोगों का सामयिक उत्थान ही नहीं देखना चाहिए। उनकी उस दशा को भी उसी जिज्ञासा से देखना चाहिए जो उनके कुकर्मों का परिणाम होती है।
उत्कृष्ट आदर्शों वाले सत्पुरुष अपना हर कदम खूब सोच-विचार और नाप-तौलकर रखते हैं उन्हें कदम के बढ़ने की उतनी चिन्ता नहीं होती जितनी कि उसके सही होने की। वे जो कुछ करते और कहते हैं उसे पहले मर्यादा सत्य और सुशीलता की कसौटी पर कस लेते हैं। इस सोच विचार और पहचान परख के कारण उनकी प्रगति अन्धड़ की तरह नहीं हो पाती। उनके कदम जिम्मेवारी के साथ उठते पड़ते और बढ़ते हैं। निश्चय ही उत्कृष्टता के पुजारी अन्धाधुन्ध उन्नति तो नहीं कर पाते । तथापि वे जो कुछ उन्नति और प्रगति करते हैं वह दृढ़, स्थायी और चिरंजीवी होती है। उसके किसी भी कोण में पतन की सम्भावना का एक नगण्य सा भी बीज नहीं होता।
प्रदर्शन के विभ्रम से मुक्त होने के कारण इस अन्धी तथा स्वार्थ पूर्ण दुनिया में उत्कृष्टता जल्दी पहचानी नहीं जा पाती किन्तु एकबार जब वह पहचान ली जाती है ते फिर उसको समाज शिर आंखों पर चढ़ाये बिना नहीं रह सकता। किसी प्रतियोगिता में हजारों प्रत्याशी भाग लेते हैं। उनके से बहुत से बड़े ही वाचाल प्रदर्शनकारी और शान-शौकत वाले और व्यक्तित्ववान भी होते हैं और बहुत से सरल सीधे और साधारण भी। किन्तु जब चुनाव होता है ते प्रदर्शन पूर्ण निकृष्ट प्रतियोगियों को दूध की मक्खी की तरह निकाल दिया जाता है और साधारण, सरल तथा सीधा प्रत्याशी अपनी उत्कृष्टता के कारण चुन लिया जाता है।
उत्कृष्टता में एक अलौकिक तेज तथा आत्म-विश्वास रहता है जो हर जगह हर स्थिति और परिस्थिति पर अपना प्रभाव डालता रहता है। उत्कृष्टता ईश्वरीय तेज का ही एक अंश होता है उसको न तो प्रशंसित किया जा सकता है और न पराजित। उत्कृष्ट व्यक्ति अभाव तथा कठिनाई में भी अपने तेज से दमकता रहता है जबकि निकृष्ट व्यक्ति वैभव और विभूति की चमक के बीच भी मलीन तथा कलुषित बना रहता है। मानव जीवन की यह उपलब्धि कुछ छोटी उपलब्धि नहीं है। इसलिए किसी लोभ, लालच अथवा प्रेरणा में पड़कर मनुष्य को उत्कृष्टता से विमुख न होना चाहिए।
निकृष्ट उपायों द्वारा मिलने वाले वैभव तथा ऐश्वर्य की अपेक्षा उत्कृष्टता की रक्षा के साथ गरीबी स्वीकार कर लेना अधिक श्रेयस्कर है। ईश्वर ने मनुष्य को सृष्टि का सर्वोत्कृष्ट प्राणी बनाया है और तद्नुसार उससे उत्कृष्ट आचरण की आशा भी की है। अपने प्रभु अपने पिता और अपने रचयिता की आशा पर पानी फेरना अथवा उसके उपकारी निर्देश का न मानना भयानक कृतघ्नता है। बड़ा भारी विश्वासघात है। बहुधा लोग सुखोपभोग के लिये धन की तृष्णा से प्रताड़ित रहा है करते हैं। वे सोचा करते हैं कि अधिक से अधिक धन की सिद्धि होनी चाहिये उसके लिये कितने ही निकृष्ट साधन प्रयोग क्यों न करना पड़ें चिन्ता नहीं। आज के समय के बहुत से लोग ऐसा कर भी रहे है। किन्तु यदि गहरी और पैनी दृष्टि से देखा जाये तो पता चलेगा कि उस निकृष्ट धन से वे जिस सुख का उपभोग करते दिखलाई देते हैं वह वास्तव में उनके दुःख का कारण बना होता है। उस वैभव और विभूति के बीच भी वे बड़े ही अशान्त भीत और असन्तुष्ट रहा करते हैं। उनके साथ वे जिन महा पापों का संचय अपने अन्तःकरण में कर लिया करते है वे शोक-सन्तापों के रूप में प्रकट होकर उनका सुख चैन छीनते रहने की अपेक्षा कहीं अच्छा है कि उत्कृष्टता की रक्षा करते हुये कठिन और अभाव पूर्ण जीवन अंगीकार कर लिया जाए। मनुष्य की शोभा इसी में है कि वह उत्कृष्टता में अपना गौरव समझे और अल्प साधनों में भी सन्तोष पूर्वक अपनी आवश्यकताएं पूरी करता चले किन्तु भूलकर भी निकृष्टता की ओर न जाये। उस अभाव पूर्ण उत्कृष्ट जीवन में जो आत्मिक सुख, स्वर्गीय शान्ति और आत्म गौरव प्राप्त होगा वह वैभव पूर्ण निकृष्ट जीवन की झूँठी सुविधा से लाखों से लाखों गुना महत्वपूर्ण है।