अपनों से अपनी बात

June 1971

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विगत 20 वर्षों में बड़े प्रयत्न पूर्वक जागृत आत्माओं का एक-एक फूल इस विश्व उद्यान में से हमने बीना और उसे एक सूत्र में पिरोकर अपने विशाल परिवार की माला बनाई है। समय आ गया कि यह माला भगवान् के चरणों पर चढ़ाई जाये और हमारी जीवन भी की कमाई का श्रेष्ठतम सदुपयोग किया जाय। 1 लाख व्यक्तियों का विशाल परिवार जिसे कौटुम्बिकता एवं आत्मीयता के खाद पानी से सींच कर एक सुविकसित उद्यान के रूप में विकसित किया गया हो, अपने आप में एक बड़ा काम है। पर इसकी सार्थकता तभी है जब उसका श्रेष्ठतम सद् उद्देश्य के नये प्रयोग हो सके। अन्यथा ‘बड़ा कुटुम्बी बड़ा दुखी’ वाली उक्ति ही अपने ऊपर चरितार्थ होने लगेगी।

बड़े आदमी बनने की हविस और ललक स्वभावतः हर मनुष्य में भरी पड़ी है। उसके लिये किसी को सिखाना ही पड़ता। धन, पद, इन्द्रिय सुख, प्रशंसा, स्वास्थ्य आदि कौन नहीं चाहता ? वासना और तृष्णा की पूर्ति में कौन व्याकुल नहीं है ? पेट और प्रजनन के लिये किसका चिंतन योचित नहीं है। अपने परिवार को हमने बड़े आदमियों के समूह बनाने की बात कभी नहीं सोची। उसे महापुरुषों का देव समाज देखने की ही अभिलाषा सदा से रही वस्तुतः महा मानव बनना ही व्यक्तिगत जीवन का संकल्प और समाज का सौभाग्य माना जा सकता है। मनुष्य जीवन की सार्थकता महा मानव बनने में है। इसके अतिरिक्त आज की परिस्थितियां महा मानवों की इतनी आवश्यकता अनुभव करती है कि उन्हीं के लिये सर्वत्र त्राहि-त्राहि मची हुई है। हर क्षेत्र उन्हीं के अभाव में वीरान और विकृत हो रहा है ओछे स्तर के- बड़प्पन के भूखे लोग बरसाती उद्भिजों की तरह अहर्निश बढ़ते चले जा रहे हैं पर महामानवों की उद्भव स्थली सूनी पड़ी है। गीदड़ों के झुण्ड बढ़ चले पर सिंहों की गुफाएं सुनसान होती चली जा रही है। इस युग की सब से बड़ी आवश्यकता महामानवों का उद्भव होना ही है। वे बढ़ने तो ही विश्व के हर क्षेत्र में संव्याप्त उलझनों और शोक सन्तापों का समाधान होगा। अपने परिवार का गठन हमने इसी प्रयोजन के लिये किया था इस खान से नर रत्न निकले और विश्व इतिहास का एक नया अध्याय आरम्भ करें। युग-परिवर्तन जैसे महान् अभियान को उथले स्तर के व्यक्तियों द्वारा नहीं केवल उन्हीं लोगों से सम्पन्न किया जा सकता है जिनको महापुरुषों की श्रेणी में खड़ा किया जा सके।

हर विभूति कुछ मूल्य देकर खरीदी जाती है। उपहार पाने के लिये भी पात्रता उत्पन्न करनी पड़ती है। समय आ गया कि अपने विशाल परिवार के सामने उन प्रयोगों को प्रस्तुत करें जो आत्मबल सम्पन्न तथा लोक निर्माण में समर्थ व्यक्तियों के लिये अनिवार्य रूप से आवश्यक है। हमने अपनी जीवन साधना में इन तत्वों का समावेश किया और मंजिल की एक सन्तोष जनक लम्बाई पार कर चुके। अपने हर अनुयायी से इस अवसर पर यही अनुरोध कर सकते हैं कि जितना अधिक सम्भव हो इसी मार्ग पर कदम बढ़ायें जिस पर हम चलते रहे है। महामानव बनने के लिए जिन त्याग बलिदानोँ का मूल्य चुकाना पड़ता है आत्म परिष्कार का जो प्रबल पुरुषार्थ करना पड़ता है, उसी की चर्चा यहाँ कर रहे है।

हम अपने जीवन का भावी कार्यक्रम निर्धारित कर चुके है, अपनी धर्म-पत्नी को एक निश्चित कार्य-पद्धति में जुटा दिया। हमारे साथ चल सकने की हिम्मत जिनने दिखाई उन्हें बुला कर युग-निर्माण योजना में जुटा दिया। गायत्री तपोभूमि में एक ऐसी टीम छोड़ दी जो हमारे संगठनात्मक, प्रचारात्मक, रचनात्मक और संघर्षात्मक मोर्चों पर समर्थ चतुरंगिणी की तरह लड़ती रहेगा। अब हमारा विशाल परिवार ही शेष रह गया है जिसे कुछ अन्तिम निर्देश देकर जाना है। कितने व्यक्ति कहते रहते हैं कि हम आपके साथ हिमालय चलेंगे। उनसे यही कहना है कि वे आदर्शों के हिमालय पर उसी तरह चढ़ें जिस तरह हम जीवन भर चढ़ते रहे। तपश्चर्या का मार्ग अति कठिन है। हमारी हिमालय यात्रा काश्मीर की सैर नहीं है जिसका मजा लूटने हर कोई विस्तार बाँधकर चलदे। उसकी पात्रता उसी में हो सकती है। जिसने आदर्शों के हिमालय पर चढ़ने की प्राथमिक पात्रता एकत्रित कर ली। सो हम अपने हर अनुयायी से अनुरोध करते रहे है और अब अधिक कहें और अधिक सजीव शब्दों में अनुरोध करते हैं कि वे बड़प्पन की आकाँक्षा को बदल कर महानता की आराधना शुरू करदें। यह युग परिवर्तन का शुभारम्भ है जो हमारे परिजनों को तो आरम्भ कर देना चाहिए। हम बदलेंगे युग बदलेगा’ का नारा-हमें अपने व्यक्तिगत जीवन कि विचार पद्धति और कार्य-प्रणाली में आमूल चूल परिवर्तन प्रस्तुत करके सार्थक बनाना चाहिए। निःसन्देह अपने परिवार में इस प्रकार का बदलाव यदि आ जाये तो फिर कोई शक्ति युग-परिवर्तन एवं नव-निर्माण को सफल बनाने में बाधक न हो सकेंगी।

अपना विशाल परिवार हमने एक ही प्रयोजन के लिये बनाया और सींचा है कि विश्व-मानव की अन्तर्वेदना हलकी करने में और रुदन, दरिद्र, जलन से बचाने के लिये कुछ योगदान सम्भव हो सके, पेट और प्रजनन की कृमि कीटकों जैसी सड़न से ही हम सब बहुमूल्य जिन्दगी न बिता डालें वरन् कुछ ऐसे हो जो जीवनोद्देश्य को समझें और उसे पूरा करने के लिये अपनी विभूतियों और सम्पत्तियों का एक अंश अनुदान दे सकने में तत्पर हो सकें। उच्च आदर्शों पर चल कर विश्व के भावनात्मक नव-निर्माण की दृष्टि से ही हमने अपना विशाल परिवार बनाया। यों दुख कष्ट से पीड़ितों की सहायता के लिए हमारे पास जो कुछ था उसे देते रहे पर उसका प्रयोजन विवेकहीन तथा कथित दानियों द्वारा लोगों की तृष्णा भड़काना स्वल्प प्रयत्न में अधिक लाभ उठाने की दुष्प्रवृत्ति जगाना एवं भिक्षा-वृत्ति का अभ्यस्त बनाना नहीं था। सिद्ध पुरुष हमें संयोग ने ही बना दिया, मनोकामना पूर्ण करने की बात अनायास ही हमारे ऊपर लग पाई वस्तुतः हम लोक मानस में उत्कृष्टता की वृष्टि करने वाले एक संदेश वाहक के रूप में ही आये और जिये। परिवार भी अपने मूल प्रयोजन के लिये ही बनाया।

अपने इस हरे-भरे उद्यान परिवार के फले-फूले परिजन वट-वृक्षों से हम कुछ आशा अपेक्षा रखें तो उसे अनुचित नहीं कहा जाना चाहिए उनके लिए कुछ भाव भरा संदेश प्रस्तुत करें तो इसे उचित ओर उपयुक्त ही माना जना चाहिए। हमारा प्रत्येक परिजन को बहुत ही मार्मिक और दूर-दर्शिता भरा परामर्श हैं, उन्हें गम्भीरता पूर्वक लिया जाना चाहिए उन पर चिंतन−मनन किया जाना चाहिए और यदि वे उचित जंचे तो तद्नुकूल अपनी मनोभूमि एवं क्रिया-पद्धति में ढालने के लिए विचार किया जाना चाहिए।

हमारा पहला परामर्श यह है कि अब किसी को भी धन का लालच नहीं करना चाहिए और बेटे-पोतों को दौलत छोड़ मरने की विडम्बना में नहीं उलझना चाहिये। यह दोनों ही प्रयत्न सिद्ध होंगे। अगला जमाना जिस तेजी से बदल रहा है उससे इन दानों विडम्बनाओं से कोई कुछ लाभान्वित न हो सकेगा वरन् लोभ और मोह की इस दुष्प्रवृत्ति के कारण सर्वत्र धिक्कार भर जायेगा। दौलत छिन जाने का दुख और पश्चाताप सताएगा सो अलग। इसलिए यह परामर्श हर दृष्टि से सही ही सिद्ध होगा कि मानव जीवन जैसी महान् उपलब्धि का उतना ही अंश खर्च करना चाहिए जितना निर्वाह के लिये अनिवार्य रूप से आवश्यक हो। इस मान्यता को हृदयंगम किये बिना आज की युग पुकार के लिये किसी के लिये कुछ ठोस कार्य कर सकना सम्भव न होगा। एक ओर से दिशा पड़े बिना दूसरी दिशा में चल सकना सम्भव ही न होगा। लोभ-मोह में जो जितना डूबा हुआ होगा उसे लोक मंगल के लिए न समय मिलेगा न सुविधा। सो परमार्थ पक्ष पर चलने वालों को सबसे प्रथम अपने इन दो शत्रुओं को-रावण कुम्भ करण को- कंस, दुर्योधन को निरस्त करना होगा। यह दो आन्तरिक शत्रु ही जीवन-विभूति को नष्ट करने के सब से बड़े कारण है। सो इनसे निपटने का अन्तिम महाभारत हमें सबसे पहले आरम्भ करना चाहिए। देश के सामान्य नागरिक जैसे स्तर का सादगी और मितव्ययिता पूर्ण जीवन स्तर बनाकर स्वल्प व्यय में गुजारे की व्यवस्था बनानी चाहिए और परिवार को स्वावलम्बी बनाने की योग्यता उत्पन्न करने और हाथ-पाँव से कमाने में समर्थ बना कर उन्हें अपना वजन आप उठा सकने की सड़क पर चला देना चाहिये। बेटे-पोतों के लिये अपनी कमाई की दौलत छोड़ मरना भारत की असंख्य कुरीतियों और दुष्ट परम्पराओं में से एक है। संसार में अन्यत्र ऐसा नहीं होता। लोग अपनी बची हुई कमाई को जहाँ उचित समझते हैं वसीयत कर जाते हैं। इसमें न लड़कों की शिकायत होती है न बाप को कंजूस कृपण को गालियाँ पड़ती है। सो हम लोगों में से जो विचारशील है, उन्हें तो ऐसा साहस इकट्ठा करना चाहिए। जिनके पास इस प्रकार का ब्रह्म वर्चस न होगा। वे माला सटक कर, पूजा-पत्री उलट-पलट कर मिथ्या आत्म प्रवंचना भले ही करते रहें। वस्तुतः परमार्थ पथ पर एक कदम भी न बढ़ सकेंगे। समय, श्रम, मन और धन का अधिकाधिक समर्पण विश्व-मानव की सेवा को समर्पण कर सकने की स्थिति तभी बनेगी जब लोभ और मोह के खर-दूषण कुछ अवसर मिलने दें लोभ और मोह ग्रस्त को ‘आपापूती’ से ही फुरसत नहीं, बेचारा लोक-मंगल के लिये कहाँ से कुछ निकाल सकेगा और इसके बिना जीवन साधना का स्वरूप ही क्या बन पड़ेगा ? जिनके पास गुजारे भर के लिए पैतृक सम्पत्ति मौजूद है, उनके लिये यही उचित है कि आगे के लिये उपार्जन बिलकुल बन्द कर दें और सारा समय परमार्थ के लिये लगायें। प्रयत्न यह भी होना चाहिए कि सुयोग्य स्त्री-पुरुषों में से एक कमाये घर खर्च चलाये और दूसरे को लोक-मंगल में प्रवृत्त होने की छूट दे दे संयुक्त परिवारों में से एक व्यक्ति विश्व सेवा के लिये निकाला जाय और उसका खर्च परिवार वहन करें। जिनके पास संग्रहित पूँजी नहीं है। रोज कमाते रोज खाते हैं उन्हें भी परिवार का एक अतिरिक्त सदस्य बेटा ‘लोक-मंगल’को मान लेना चाहिए और उसके लिए जितना श्रम समय और धन अन्य परिवारियों पर खर्च होता है उतना तो करना ही चाहिए।

परमार्थ प्रवृत्तियों का शोषण करने वाली इस विडम्बना से हम में से हर एक को बाहर निकल आना चाहिए कि “ईश्वर एक व्यक्ति है और वह कुछ पदार्थ अथवा प्रशंसा का भूखा है, उसे रिश्वत या खुशामद का प्रलोभन देकर उल्लू बनाया जा सकता है और मनोकामना तथा स्वर्ग मुक्ति की आकाँक्षायें पूरी करे के लिये लुभाया जा सकता है। ‘इस अज्ञान में भटकता हुआ जन-समाज अपनी बहुमूल्य शक्तियों को निरर्थक विडम्बनाओं में बर्बाद करता रहता है। वस्तुतः ईश्वर एक शक्ति है जो अन्तः चेतना के रूप में सद्गुणों और सत्प्रवृत्तियों के रूप में हमारे अन्तरंग में विकसित होती हैं। ईश्वर-भक्ति का रूप पूजा-पत्री की टण्ट-घण्ट नहीं विश्व-मानव के भावनात्मक दृष्टि से समुन्नत बनाने का प्रबल पुरुषार्थ ही हो सकता है। देवताओं की प्रतिमायें तो ध्यान के मनोवैज्ञानिक व्यायाम की आवश्यकता पूर्ति करने की धारणा मात्र है। वस्तुतः जैसे देवी-देवता मूर्तियों और चित्रों में अंकित किये गये है उनका अस्तित्व कहीं भी नहीं है। उच्च भावनाओं का अलंकारिक रूप ही ईश्वर के प्रतीक रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है। ऋतम्भरा प्रज्ञा के ही सरस्वती कहते हैं। मन को सधाने के लिए ही उसकी अलंकारिक छवि विनिर्मित की गई है। वस्तुतः अन्तरंग में समुत्पन्न सद्ज्ञान ही सरस्वती है। इस तथ्य को समझे बिना अध्यात्म भी कोई जाल-जंजाल ही सिद्ध होगा और मनुष्य को आत्म प्रवंचना में भटका कर उसकी उन शक्तियों में बर्बाद कर देगा जो लोक-मंगल की दिशा में प्रयुक्त होने पर व्यक्ति और समाज का भारी हित साधन कर सकती थी। हमारा परामर्श है कि परिजन कल्पित ईश्वर की खुशामद में बहुत सिर फोड़े। अपने अन्तरंग को और विश्व-मानव को समुन्नत करने के प्रयत्नोँ में जुट जायें और उस त्याग बलिदान की वास्तविक ईश्वर भक्ति तथा तपश्चर्या समझें। इस प्रक्रिया को अपना कर वे ईश्वरीय अनुग्रह जल्दी प्राप्त कर सकेंगे। पूजा उपासना का मूल प्रयोजन अन्तरंग पर चढ़े हुए मल आवरण विक्षेपों पर साबुन लगाकर अपने ज्ञान और कर्म को अधिकाधिक परिष्कृत करना भर है। ईश्वर को न किसी की खुशामद पसन्द है न धूप दीप बिना उसका कोई काम रुका पड़ है। व्यक्तित्व को परिष्कृत और उदार बनाकर ही हम ईश्वरीय अनुग्रह के अधिकारी बन सकते हैं। इस तथ्य को हमारा हर परिजन हृदयंगम करले तो वह मन्त्र-तन्त्र में उलझा रहने की अपेक्षा उस दिशा में बहुत दूर तक चल सकता है जिससे कि विश्व कल्याण और ईश्वरीय प्रसन्नता के दोनों आधार अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए है।

पहले ही कहा जा चुका है कि परिवार के प्रति हमें सच्चे अर्थों में कर्तव्यपरायण और उत्तरदायित्व निर्वाह करने वाला होना चाहिये आज मोह के तमसाच्छन्न वातावरण में जहां बड़े लोग छोटों के लिये दौलत छोड़ने की हविस में और उन्हीं की गुलामी करने में मरते-खपते रहते हैं, वहाँ घर वाले भी इस शहद की मक्खी को हाथ से नहीं निकलने देना चाहते जिसकी कमाई पर दूसरे ही गुलछर्रे उड़ाते हैं। आज के स्त्री बच्चे यह बिलकुल पसन्द नहीं करते कि उनका पिता या पति उनके लाभ देने के अतिरिक्त लोक-मंगल जैसे कार्यों में कुछ समय या धन खर्च करें। इस दिशा में कुछ करने पर घर का विरोध सहना पड़ता। उन्हें आशंका रहती है कि कहीं इस और दिलचस्पी लेने लगे तो अपने लिये जो मिलता था उसका प्रवाह दूसरी ओर मुड़ जायेगा। ऐसी दशा में स्वार्थ संकीर्णता के वातावरण में पले उन लोगों का विरोध उनकी दृष्टि में उचित भी है, पर उच्चादर्शों की पूर्ति उनके अनुगमन से सम्भव ही नहीं रहती। यह सोचना क्लिष्ट कल्पना है कि घर वालों को सहमत करने के बाद तब परमार्थ के लिये कदम उठायेंगे। यह पूरा जीवन समाप्त हो जाने पर भी सम्भव न होगा। जिन्हें वस्तुतः कुछ करना हो उन्हें अज्ञानग्रस्त समाज के विरोध की चिन्ता न करने की तरह परिवार के अनुचित प्रतिबन्धों को भी उपेक्षा के गर्त में ही डालना पड़ेगा। घर वाले जो कहें जो चाहे वहीं किया जाये यह आवश्यक नहीं। हमें मोहग्रस्त नहीं विवेकवान होना चाहिए। और पारिवारिक कर्तव्यों की उचित मर्यादा का पालन करते हुए उन लोभ एवं मोह भरे अनुबन्धों की उपेक्षा ही करनी चाहिए जो हमारी क्षमता को लोक मंगल में न लगने देकर कुटुम्बियों की ही सुख-सुविधा में नियोजित किये रहना चाहते हैं। इस प्रकार का पारिवारिक विरोध आरम्भ में हर महामानव और श्रेयपथ के पथिक को सहना पड़ा है। अनुकूलता पीछे आ गई यह बात दूसरी पर आरम्भ में श्रेयार्थी को परिवार के इशारे पर गतिविधियां निर्धारित करने की अपेक्षा आत्मा की पुकार के ही प्रधानता देने का निर्णय करना पड़ा है।

हमारा चौथा परामर्श यह है कि पुण्य परमार्थ की अन्तः चेतना यदि मन में जागे तो उसे सस्ती वाहवाही लूटने की मानसिक दुर्बलता से टकरा कर चूर-चूर न हो जाने दिया जाय। आमतौर से लोगों की ओछी प्रवृत्ति नामवरी लूटने का ही दूसरा नाम पुण्य मान बैठती है और ऐसे काम करती है जिनकी वास्तविक उपयोगिता भले ही नगण्य हो पर उनका विज्ञापन अधिक हो जाय। मन्दिर, धर्मशाला बनाने आदि के प्रयत्नों को हम इसी श्रेणी का मानते हैं। वे दिन लद गये जबकि मन्दिर जन जागृति के केन्द्र रहा करते थे। वे परिस्थितियां चली गई जब धर्म प्रचारकों और पैदल यात्रा करने वाले पथिकों के लिये विश्राम ग्रहों की आवश्यकता पड़ती थी। अब व्यापारिक या शादी-ब्याह सम्बन्धी स्वार्थपरक कामों के लिये लोगों को किराया देकर ठहरना या ठहराना ही उचित है। मुफ्त की सुविधा वे क्योँ लें-और क्यों दें। कहने का तात्पर्य यह है कि इस तरह के विडम्बनात्मक कामों से शक्ति का अपव्यय बचाया जाना चाहिये और उसे जन मानस के परिष्कार कर सकने वाले कार्यों की एक ही दिशा में लगाया जाना चाहिये। हमें नोट कर लेना चाहिए कि आज की समस्त उलझनों और विपत्तियों का मात्र एक ही कारण है मनुष्य की विचार विकृति। दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों ने ही शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक, राजनैतिक संकट खड़े किये है। वाह्य उपचारों से--पत्ते सींचने से कुछ बन नहीं पड़ेगा हमें मूल तक जाना चाहिये और जहां से संकट उत्पन्न होते हैं उस छेद को बन्द करना चाहिये। कहना न होगा कि विचारों और भावनाओं का स्तर गिर जाना ही समस्त संकटों का केन्द्र बिन्दु है। हमें इसी मर्मस्थल पर तीर चलाने चाहिए। हमें ज्ञानयज्ञ और विचार-क्राँति को ही इस युग की सर्वोपरि आवश्यकता एवं समस्त विकृतियों की एक मात्र चिकित्सा मान कर चलना चाहिए। और उन उपायों को अपनाना चाहिए जिससे मानवीय विचारणा एवं आकाँक्षा को निकृष्टता से विरत कर उत्कृष्टता का स्तर उन्मुख किया जा सके। ज्ञान-यज्ञ की सारी योजना इसी लक्ष्य को ध्यान में रख कर बनाई गई है। हमें अर्जुन को लक्ष्य भेदते समय मछली की आंख देखने की तरह केवल युग की आवश्यकता विचार-क्राँति पर ही ध्यान एकत्रित करना चाहिए और केवल उन्हीं परमार्थ प्रयोजनों को हाथ में लेना चाहिए जो ज्ञान-यज्ञ के पुण्य-प्रयोजन पूरा कर सकेगा। अन्यान्य कार्यक्रमों से हमें अपना कन बिलकुल हटा लेना चाहिए, शक्ति बखेर देने से कोई काम पूरा नहीं सकता हमारा चौथा परामर्श परिजनों को यही है कि वे परमार्थ भावना से सचमुच कुछ करना चाहते हों तो उस कार्य को हजार बार इस कसौटी पर कस लें कि इस प्रयोग से आज कि मानवीय दुर्बुद्धि को उलटने के लिये अभीष्ट प्रबल पुरुषार्थ की पूर्ति इससे होती है या नहीं। शारीरिक सुख सुविधायें पहुंचाने वाले धर्म-पुण्यों को अभी कुछ समय रोका जा सकता है, वे पीछे भी हो सकते हैं पर आज की तात्कालिक आवश्यकता तो विचार-क्राँति एवं भावनात्मक नव-निर्माण ही है सो उसी को आपत्ति धर्म युग धर्म-मानकर सर्वतोभावेन हमें उसी प्रयोजन में निरत हो जाना चाहिए। ज्ञान-यज्ञ के कार्य इमारतों की तरह प्रत्यक्ष नहीं दीखते और स्मारक की तरह वाह-वाही का प्रयोजन पूरा नहीं करते तो भी उपयोगिता की दृष्टि से ईंट चूने की इमारतें बनाने की अपेक्षा इन भावनात्मक परमार्थों के परिणाम लाख करोड़ गुना अधिक है। हमें वाह-वाही लूटने की तुच्छता से आगे बढ़कर वे कार्य हाथ में लेने चाहिए जिनके ऊपर मानव-जाति का भाग्य और भविष्य निर्भर है। यह प्रक्रिया ज्ञान-यज्ञ का होता अध्वर्यु बने बिना और किसी तरह पूरी नहीं होती।

लोभ और मोह के बंधन काटने और अज्ञान प्रलोभन से ऊंचा उठाने पर ही जीवनोद्देश्य पूरा कर सकने वाले-ईश्वरीय प्रयोजन एवं युग पुकार के पूरा कर सकने वाले मार्ग पर चल सकते हैं सो इसके लिये हमें आवश्यक साहस जुटाना ही चाहिए। इतने से कम में कोई व्यक्ति युग-निर्माताओं महा मानवों की पंक्ति में खड़ा नहीं हो सकता। इन चार कसौटियों पर हमें खरा सिद्ध होना ही चाहिए। फौज में भर्ती करते समय नये रंगरुटों की लम्बाई, वजन, सीना तथा निरोगिता जाँची जाती हैं, तब कहीं प्रवेश मिलता है। बड़प्पन की तृष्णा में मरने खपने वाले नर-पशुओं के वर्ग से निकल कर जिन्हें नर-नारायण बनने की उमंग उठे उन्हें उपरोक्त चार प्रयोजनों को अधिकाधिक मात्रा में हृदयंगम करने तथा तद्नुकूल आचरण करने का साहस जुटाना चाहिए। यदि यह परिवर्तन प्रस्तुत जीवनक्रम में न किया जाया तो मनोविनोद के लिए कुछ छुट-पुट भले ही चलता रहे कोई महत्व पूर्ण ऐसा कार्य एवं प्रयोग न बन सकेगा जिससे आत्म-कल्याण और लोक-मंगल की सन्तोष-जनक भूमिका सम्पन्न हो सकें।

युग-परिवर्तन के लिए अपनी चतुर्मुखी योजना हर प्रेमी परिजन को भली प्रकार समझ लेनी चाहिए। (1) प्रचारात्मक (2) संगठनात्मक (3) रचनात्मक (4) संघर्षात्मक अपनी प्रक्रिया क्रमशः इन चार चरणों में विकसित होगी। शुभारम्भ प्रचारात्मक प्रयोग से किया गया है। ज्ञान-यज्ञ या विचार-क्राँति के नाम से इसी प्रयोग को पुकारते हैं। जब तक वस्तु स्थिति विदित न हो, समस्याओं बीमारियों का निदान और कारण मालूम न हो, तब तक उपचार का सही कदम नहीं उठ सकता। अपने प्रचार अभियान में इन दिनों यही सिखाया जा रहा है कि व्यक्ति और समाज की समस्त समस्याओं का एक मात्र कारण मनुष्य की चिन्तन-पद्धति का विकृति हो जाना है। इसे सुधरे बदले बिना किसी समस्या का चिरस्थायी हल न निकलेगा। वस्तु स्थिति है भी यही। भावनात्मक नवनिर्माण ही विश्वव्यापी प्रगति और शान्ति का एक मात्र हल है। इस तथ्य पर सर्वसाधारण का ध्यान जितनी गहराई तक केन्द्रित होगा उतनी ही तत्परता से बौद्धिक क्राँति के सरंजाम जुटेंगे। उनके स्थान पर परिष्कृत प्रचार तन्त्र का निर्माण करना पड़ेगा। इस दृष्टि से वे सभी कार्य अति महत्वपूर्ण है जिनका आरम्भ युग-निर्माण योजना के अंतर्गत इन दिनों छोटे रूप में आरम्भ किया गया है। वाणी, लेखनी, प्रकाशन, कला, संगीत, अभिनय, शिक्षा, प्रदर्शन, वाक्य पट, समारोह आदि अगणित प्रचार माध्यमों की विशाल परिमाण में आवश्यकता पड़ेगी। जिसके लिए प्रचुर धन-शक्ति की आवश्यकता है। मस्तिष्कों को ढालने के लिये प्रचार तंत्र जितना समर्थ होगा उतना ही सफलता पूर्वक मानवीय चिन्तन एवं क्रिया-कलाप को परिष्कृत किया ज सकेगा। प्रचार तंत्र द्वारा वर्तमान विनाशात्मक स्वरूप को निरस्त करने के लिये उतना ही बड़े सृजनात्मक प्रचार तंत्र को खड़ा करना पड़ेगा। इसके लिये साहित्य-निर्माण उसकी खपत, प्रवचन, संगीत, फिल्म आदि अनेक माध्यमों के विशाल रूप दिया जाना है। इसके लिए प्रचुर परिमाण में धन-शक्ति और जन शक्ति की जरूरत पड़ेगी। इसकी व्यवस्था हम लोग स्वयं बड़ी आसानी से जुटा सकते हैं यदि लोभ और मोह के जंजाल से निकल कर वासना तृष्णा को ठोकर मार कर- निर्वाह भर के लिए प्राप्त पर सन्तोष करके अपनी शारीरिक मानसिक और आर्थिक क्षमता को प्रयुक्त करने लगें।

योजना का दूसरा चरण संगठनात्मक है। भीड़ का संगठन बेकार है। मुर्दों का पहाड़ इकट्ठा करने से तो बदबू ही फैलेगी। जिनके मन में कसक है जो वस्तुस्थिति को समझ चुके है उन्हीं का एक महान् प्रयोजन के लिए एकत्रीकरण वास्तविक संगठन कहला सकता है। युग-निर्माण परिवार संगठन में अब वे ही लोग लिये जा रहे है जो ज्ञान-यज्ञ के लिए दस पैसे और एक घण्टा समय देने के लिये निष्ठा और तत्परता दिखाने लगे है कर्मठ लोगों का संगठन बन जाने पर प्रचारात्मक अभियान को सन्तोषजनक स्तर तक पहुंचा देने पर ऐसी स्थिति आ जायेगी कि जो अति महत्व पूर्ण इन दिनोँ शक्ति एवं स्थिति के अभाव में कर नहीं पा रहे है वे आसानी से किये जा सकें।

सृजनात्मक और संघर्षात्मक कार्यक्रम की हमें अति विशाल परिमाण पर तैयारी करनी होगी। इन दिनों तो उनकी चर्चा मात्र करते हैं बहुत जोर नहीं देते क्योंकि जिस लोक-समर्थन के लिए प्रचार और कार्य कर सकने के लिए जिस संगठन की आवश्यकता है वे दोनों ही तत्व अपने हाथ में उतने नहीं है जिससे कि अगले कार्यों को सन्तोष-जनक स्थिति में चलाया जा सके। पर विश्वास है कि प्रचार और संगठन का पूर्वार्ध कुछ ही दिन में संतोष जनक स्तर तक पहुंच जायेगा तब हम सृजन और संघर्ष का विशाल और निर्णायक अभियान आसानी से छेड़ सकेंगे और उसे सरलता पूर्वक सफल बना सकेंगे।

सृजन एक मनोवृत्ति है, जिससे प्रभावित हर व्यक्ति को अपने समय के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए कुछ न कुछ कार्य व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से निरन्तर करना होता है। उसके बिना उसे चैन ही नहीं मिलता। किस परिस्थिति का किस योग्यता का व्यक्ति नवनिर्माण के लिए क्या रचनात्मक कार्य करें यह स्थानीय आवश्यकताओं को देख कर ही निर्णय किया जा सकता है। युग-निर्माण योजना के ‘शत-सूत्री’ कार्यक्रमों में इस प्रकार के संकेत विस्तार पूर्वक किये गये है। रात्रि पाठशालायें प्रौढ़ पाठशालायें, पुस्तकालय, व्यायामशालायें स्वच्छता, श्रमदान, सहकारी संगठन, सुरक्षा शाक, पुष्प, फल उत्पादन आदि अनेक कार्यों की चर्चा उस संदर्भ में की जा चुकी है। प्रगति के लिये यह नितान्त आवश्यक है कि हर नागरिक में मन में यह दर्द उठता रहे कि विश्व का पिछड़ापन दूर करने के लिए-सुख-शान्ति की सम्भावनायें बढ़ाने के लिये उसे कुछ न कुछ रचनात्मक कार्य करने चाहिए। यह प्रयत्न कोटि-कोटि हाथों, मस्तिष्कों और श्रम सीकरों से सिंचित होकर इतने व्यापक हो सकते हैं कि सृजन के लिए सरकार का मुँह ताकने और मार्ग दर्शन लेने की कोई आवश्यकता ही न रह जाय।

दुष्टता की दुष्प्रवृत्तियाँ कई बार इतनी भयावह होती है कि उनका उन्मूलन करने के लिये संघर्ष के बिना काम ही नहीं चल सकता। रूढ़िवादी, प्रतिक्रिया वादी, दुराग्रही मूढ़मति अहंकारी, उद्दण्ड निहित स्वार्थ ओर असामाजिक तत्व विचारशीलता और न्याय की बात सुनने को ही तैयार नहीं होते। वे सुधार और सदुद्देश्य को अपनाना तो दूर और उलटे प्रगति के पथ पर पग-पग पर रोड़े अटकाते हैं। ऐसी पशुता और पैशाचिकता से निपटने के लिये प्रतिरोध और संघर्ष अनिवार्य रूप से निपटने के लिये प्रतिरोध और संघर्ष अनिवार्य रूप से आवश्यक है। हिन्दू-समाज में अन्ध परम्पराओं का बोलबाला है। जाति-पाँति के आधार पर ऊँच-नीच, स्त्रियों पर अमानवीय प्रतिरोध, बेईमानी और गरीबी के लिये विवश करने वाला विवाहोन्माद मृत्यु-भोज, धर्म के नाम पर लोक-श्रद्धा का शोषण, आदि ऐसे अनेक कारण है जिनने देश की आर्थिक बर्बादी और तज्जनित असंख्य विकृतियों को जन्म दिया है। बेईमानी, मिलावट, रिश्वत और भ्रष्टाचार का हर जगह बोलबाला है, सामूहिक प्रतिरोध के अभाव में गुण्डात्मक दिन-दिन प्रबल होता जा रहा है और अपराधों की प्रवृत्ति दिन दूनी रात चौगुनी पनप रही है। शासक और नेता जो करतूतें कर रहे है उनसे धरती पाँवों तले निकलती है। यह सब केवल प्रस्तावों और प्रवचनों से मिलने वाला नहीं है। जिनकी दाढ़ में खून लग गया है या जिनका अहंकार आसमान छूने लगा है वे सहज ही अपनी गतिविधियाँ बदलने वाले नहीं है। उन्हें संघर्षात्मक प्रक्रिया द्वारा इस बाते के लिये विवश किया जायेगा कि वे टेढ़ापन छोड़ें और सीधे रास्ते चलें। इसके लिये हमारे दिमाग में गाँधीजी के सत्याग्रह, मजदूरों के घिराव, चीनी कम्युनिस्टों की साँस्कृतिक क्रान्ति के कडुए मीठे अनुभवों को ध्यान में रखते हुए एक ऐसी समग्र योजना है जिससे अराजकता भी न फैले और अवाँछनीय तत्वों को बदलने के लिये विवश किया जा सके। उसके लिए जहाँ स्थानीय, व्यक्तिगत और सामूहिक संघर्षों के क्रम चलेंगे वहाँ स्वयं सेवकों की एक विशाल ‘युगसेना’ का गठन भी करना पड़ेगा जो बड़े से बड़ा त्याग बलिदान करके अनौचित्य से करारी टक्कर ले सकें। भावी महाभारत इसी प्रकार का होगा वह सेनाओं से नहीं -- महामानवों लोकसेवियों और युगनिर्माताओं द्वारा लड़ा जायेगा। सतयुग लाने से पूर्व ऐसा महाभारत अनिवार्य है। अवतारों की शृंखला-सृजन के साथ-साथ संघर्ष की योजना भी सदा साथ लाई है। युग-निर्माण की लाल मशाल का निष्कलंक अवतार अगल दिनों इसी भूमिका का सम्पादन करें तो इसमें किसी को आश्चर्य नहीं मानना चाहिए।

प्रचारात्मक, संगठनात्मक, रचनात्मक और संघर्षात्मक चतुर्विधि कार्यक्रमों को लेकर युग निर्माण योजना क्रमशः अपना क्षेत्र बनाती और बढ़ाती चली जायेगी। निःसन्देह इसके पीछे ईश्वरीय इच्छा और महाकाल की विधि व्यवस्था काम कर रहीं है, हम केवल उसके उद्घोषक मात्र है। यह आन्दोलन न तो शिथिल होने वाला है, न निरस्त। हमारे तपश्चर्या के लिये चले जाने के बाद वह घटेगा नहीं - हजार लाख गुना विकसित होगा। सो हममें से किसी को शंका कुशंकाओं के कुचक्र में भटकने की अपेक्षा अपना वह दृढ़ निश्चय परिपक्व करना चाहिए कि विश्व का नव निर्माण होना ही है और उससे अपने अभियान को, अपने परिवार को अति महत्वपूर्ण ऐतिहासिक भूमिका का सम्पादन करना ही है।

परिजनों की अपनी जन्म-जन्मान्तरों की उस उत्कृष्ट सुसंस्कारिता का चिन्तन करना चाहिए जिसकी परख से उन्हें अपनी माला में पिरोया है। युग की की पुकार, जीवनोद्देश्य की सार्थकता, ईश्वर की इच्छा और इस ऐतिहासिक अवसर की स्थिति, महामानव की भूमिका को ध्यान में रखते हुए कुछ बड़े कदम उठाने की बात सोचनी चाहिए। इस महा अभियान की अनेक दिशाएं है जिन्हें पैसे से, मस्तिष्क से, श्रम सीकरों से सींचा जाना चाहिए जिसके पास जो विभूतियां है उन्हें लेकर महाकाल के चरणों में प्रस्तुत होना चाहिए। लोभ, मोह के अज्ञान और अन्धकार की तमिस्रा को चीरते हुए हमें आगे बढ़ना चाहिए और अपने परिवार के लिए रख कर शेष को विश्व मानव के चरणों में समर्पित करना चाहिए। नव निर्माण की लाल मशाल में हमने अपने सर्वस्व का तेल टपका कर उसे प्रकाशवान रखा है अब परिजनों की जिम्मेदारी है कि वे उसे जलती रखने के लिये हमारी ही तरह अपने अस्तित्व के सार तत्व को टपकाएं। परिजनों पर यही कर्तव्य और उत्तरदायित्व छोड़कर इस आशा के साथ हम विदा हो रहे है कि महानता की दिशा में कदम बढ़ाने की प्रवृत्ति अपने परिजनों में घटेगी नहीं बढ़ेगी ही।


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